Tuesday, August 24, 2021

यात्राएं बताती हैं उत्तराखण्ड का हाल

कभी लखनऊ के गिरि विकास अध्ययन संस्थान की शोध परियोजनाओं के लिए उत्तराखंड के दूरस्थ क्षेत्रों  की यात्रा पर गए अरुण कुकसाल अब पक्के पहाड़ी घुमक्कड़ हैं। पहाड़ के गांवों से उन्हें बहुत प्यार है। इसीलिए पौड़ी गढ़वाल के अपने गांव चामी में रहने लगे हैं। वहां एक पुस्तकालय और कम्प्यूटर केंद्र बनाकर बच्चों को भावी जीवन संग्राम के लिए तैयार कर रहे हैं। सुदूर गांवों और दुर्गम शिखरों की यात्रा करने का कोई अवसर वे छोड़ते नहीं।

चले साथ पहाड़’ (सम्भावना प्रकाशन) अरुण की दस यात्राओं का वृतांत है। ये यात्राएं 1990 से 2020 के बीच की अवधि में की गई हैं। तीस साल के लम्बे अंतराल में उत्तराखण्ड में आए बदलाव और कहीं-कहीं लगभग यथास्थिति को भी दर्ज़ किया गया है। अरुण जिज्ञासु यात्री हैं और अपने संस्मरणों में इतिहास से लेकर दंत कथाओं और धार्मिक मान्यताओं को भी पिरोते चलते हैं। कुछ यात्राएं तीर्थ स्थलों की है लेकिन उनके वृतांतों में भी अपने समाज को जानने की उत्कंठा ही दिखती है।

अरुण मानते हैं कि “इस दुनिया को बेहतर और जीवंत बनाने की पहली पहल करने वाला निश्चित ही एक घुमक्कड़ रहा होगा।” घुमक्कड़ी हमें अपने समाज को भीतर तक देखना सिखाती है। यह देखा हुआ यथार्थ बदलाव की ललक पैदा करता है। 2018 में मध्य महेश्वर की यात्रा में वे पाते हैं कि “रांसी गांव में सड़क तो आ गई पर रोजगार कुछ बढ़ा नहीं। नतीजन, इसी सड़क से लोग देहरादून और अन्य मैदानी शहरों की ओर सरकने लगे हैं। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद से इन 18 सालों में 28 परिवार यहां से पूरी तरह पलायन करके जा चुके हैं।” पलायन की बढ़ती प्रवृत्ति का कारण सिर्फ बेरोजगारी नहीं है। एक यात्रा में वे पाते हैं कि “30 किमी तक तो प्राथमिक उपचार भी सम्भव नहीं है। अव्यवस्थाओं का चरम देखना है तो उत्तराखण्ड आइए। प्रकृति ने जितनी खूबसूरत जगहें यहां दी हैं, उतना ही कुरूप व्यवस्थाओं के लिए जिम्मेदार यहां का शासन-प्रशासन है।”

पलायन करने और न कर पाने की मजबूरियां इन यात्राओं में बार-बार सामने आती हैं। रुद्रनाथ जाते हुए “एक खण्डहर हवेली दिखी तो खेत में काम कर रही एक बुजुर्ग महिला ने बताया- ये खूब पैसे वाले लोग थे तो उनको यहां रहकर क्या करना था। बाहर देश चले गए। अब उनका कोई नहीं आता यहां। पहाड़ में रहना तो हम गरीब गुरबों के लिए है। कहां जाना हमने।” जहां सड़क नहीं पहुंची है, हर उस जगह उसकी मांग है लेकिन अरुण चौंकते हैं जब सरनौल में ग्रामीणों की सबसे पहली मांग मोबाइल टावर लगाने की होती है, सड़क की मांग दूसरे नम्बर पर। स्वाभाविक ही “संचार और यातायात आज की दुनिया में समुदायों की जरूरतों में पहले नम्बर पर हैं।” रंवाई इलाके के एक ग्राम प्रधान का दर्द देखिए- “एक जूनियर स्कूल है पर उसमें अध्यापक नहीं है। मोटर सड़क और बिजली कभी यहां आएगी, ऐसी कोई उम्मीद नहीं है। मोबाइल टावर इधर हो जाता तो हम जीने-मरने की खबर तो दे पाते सरकार को।” यह वह रंवाई है जहां “साठ के दशक तक बाहर से बिल्कुल भी अन्न नहीं आता था।” तब का पूरी तरह आत्मनिर्भर इलाका अब विकासके लिए सरकार का मुंह जोहता है। और, सरकार है कहां, ये देखिए-

आधा-अधूरा पड़ा स्कूल भवन देखकर “प्रदीप (राज्य सभा सदस्य प्रदीप टम्टा) पूछते हैं- कभी कोई जिला शिक्षा अधिकारी आए हैं इस इलाके में?

“जानकारी नहीं है सर, मैं भी पहली बार आ रहा हूं- खण्ड शिक्षा अधिकारी चौहान उत्तर देते हैं।” और, जब प्रदीप महिलाओं से मुखातिब होते हैं कि उनकी समस्याएं जान सकें तो पता चलता है कि “वे नहीं जानती कि महिलाओं के इलाज के लिए महिला डाक्टर भी होती हैं। उनके लिए फार्मासिस्ट ही सब कुछ है। महिला मंगल दल, आंगनवाड़ी, आशा कार्यकर्ती, आदि के बारे में उन्हें जानकारी नहीं है।”

बहुत पुरानी नहीं, यह 2016 की बात है जब उत्तराखण्डराज्य को अस्तित्व में आए सोलह साल हो चुके थे। बड़ी उम्मीद से अपने लिए अलग राज्य मांगा था उत्तराखण्डी जनता ने लेकिन 2017 की रुद्रनाथ यात्रा में लेखक और उसके साथी सुनते हैं कि “अच्छे खासे थे उत्तर प्रदेश में। कहने को अपना राज्य है पर जब जनता के पास खाणे-कमाणे के लिए कुछ होगा नहीं तो क्या करना ऐसे राज का?”

1990 में की गई सुंदरढूंगा यात्रा के समय अपना राज्य नहीं बना था। उस समय का यात्रा विवरण बताता है कि “जातोली गांव की सरकारी राशन की दुकान आठ किमी दूर खाती गांव में है। वहां से एक खच्चर सामान की ढुलान 60 रु है। गांव में सरकारी गल्ले की दुकान की मांग लोग सालों से कर रहे हैं। सारी सरकारी सुविधाएं खाती गांव से आगे ही नहीं बढ़ पाती हैं...।” राज्य बनने के 21 वर्ष बाद पुस्तक की भूमिका में लेखक उस यात्रा का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि “तब से बहुत समय बदल गया है परंतु विडम्बना यह है कि सुंदरढूंगा ग्लेशियर जाने के रास्ते में आखिरी आबादी वाले जातोली गांव के लोग जीवन की मूलभूत सुविधाओं से अभी भी वंचित हैं।”  

सरकारों का दावा है पर्यटन प्रदेश बनाने का लेकिन 2017 में यात्री पाते हैं कि “सरकार का पर्यटन-तीर्थाटन विकास सिर्फ विज्ञापनों में ही दीखता है। यहां तो सरकार लापता है। जो कुछ है बस स्थानीय लोगों का किया हुआ कमाल है।” स्थानीय जनता है भी कमाल की मोहिली और भोली- “पास ही चाय की दुकान है। दुकानदार जी अपने जानवरों की खोज में सामने की धार में खड़े हैं। वहीं से ऊंची आवाज में कहते हैं- मुझे देर लगेगी, आप चाहें तो अपने आप चाय बना लीजिए। चाय के पैसे वहीं रख जाना।”              

ऐसी भोली जनता में सरकार के प्रति घोर अविश्वास है। उसके कारण हैं- “घिमतोली के सरकारी उद्यान फार्म के बारे में दुकानदार से पूछा- वह कहां पर है? तुनक कर वह कहता है- किसका फार्म साब! वह तो कब का सरकार ने किसी प्राइवेट को बेच दिया। वर्षों से सुन रहे हैं कि वो लोग जड़ी-बूटी उगाएंगे पर तब से उसे बंजर होते ही देख रहे हैं। सरकार को जो करना चाहिए वह तो उससे होता नहीं। हां, हम पहाड़ियों के पैतृक व्यवसाय जरूर हडप रही है।” यह अकेला किस्सा नहीं है। भराणीसैण में, जहां उत्तराखण्ड की राजधानी गैरसैण में बनाने के लिए आंदोलित जनता को ग्रीष्मकालीन राजधानीका झुनझुना दिया गया है, “राज्य बनने से पहले एशिया का प्रसिद्ध गोवंशीय संकर प्रजनन केंद्र था, जो अब वीराने के हवाले है। रास्ते में करोड़ों की लागत से बनी विदेश से आयातित भीमकाय मशीन को दिखाते हुए इंद्रेश कहते हैं, वर्षों पहले यह मशीन आई और बिना उपयोग में आए यहीं पड़े-पड़े खराब हो गई।” और, उखीमठ में “गढ़वाल मंडल विकास निगम के शुरुआती हिस्से में तीन भारी-भरकम भवनों के आधे-अधूरे अवशेष चुपचाप निरीह अवस्था में खड़े हैं। उनके चारों ओर बड़ी-बड़ी झाड़ियां उग आई हैं। साफ बात है कि वर्षों से इनकी सुधि नहीं ली गई है।” एक स्थानीय व्यक्ति से इसका कारण पूछा गया तो बोला –“अजी बताना क्या, सरकार की नालायकी के नमूने हैं ये।” अरुण की यात्राएं पाठकों को उत्तराखण्ड के ऐसे दर्दनाक एवं क्रूर हालात से परिचित कराती चलती हैं।

भारी गड़बड़ियों और उपेक्षाओं वाले उत्तराखण्ड में अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है, अरुण यह नोट करना भी नहीं भूलते। कहो, कैसे हो रानीखेतवृत्तांत में वे उम्मीद की रोशनी भी देखते हैं- “पौड़ी से तकरीबन 90 किमी की यात्रा हो गई है और हमें न तो कोई टूटा/खण्डहर घर/इमारत मिली और न ही कहीं बंजर जमीन या छूटे हुए खेत दिखाई दिए हैं।” वैसे, यह चलती कार से देखा हुआ सच है। तो भी कैन्यूर गांव का यह दृश्य उम्मीद जगाता है –“जंगल और लोगों के रिश्ते यहां अभी भी जीवंत हैं...। जंगलों की भरपूर उपलब्धता ने यहां के लोगों के पुश्तैनी कार्यों को कमजोर नहीं होने दिया है। जंगलों में जंगली जानवरों का आधिपत्य है तो खेत-खलिहानों में मानवों का।” यह संतुलन अब दुर्लभ ही कहा जाएगा। “कुमाऊं के सल्ट इलाके की देश-दुनिया में मशहूर मिर्च का लाखों का कारोबार” करने वाले आढ़तियों का होना भी आशा एवं सम्भावनाएं बनाए रखता है।

तमाम निराशाजनक दृश्यों के बीच अरुण पाठकों को जनता की मेहनत और अपने पहाड़ों से प्यार का दर्शन करा कर निराश नहीं होने देते- “ये है भाई लोगो, ग्राम सभा डख्याट.... गांव के ऊपरी भाग में घना बेमिसाल जंगल। विजय बताते हैं कि यह सब गांव के लोगों की मेहनत का फल है। इस पूरे पहाड़ पर ग्रामीणों ने वर्षों से देखभाल करके जंगल पैदा किया, उसे पाला-पोसा और आज उसका लाभ ले रहे हैं।” यहां हमारी भेंट अच्छी नौकरियां छोड़कर अपने-अपने गांव लौटे और कुछ न कुछ उद्यम कर रहे लोगों से भी होती है।

2013 के जल-प्रलय से तबाह हुए केदारनाथ और आसपास के इलाके के सरकारी सौंदर्यीकरण को तनिक आशा से देखते हुए भी लेखक यह चेतावनी देता है कि “बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप के कारण पहाड़ों का पारिस्थितिकीय तंत्र गड़बड़ाने लगा है।” उधर, तीर्थाटन और पर्यटन के नाम पर “बिना साइलेंसर की बाइकें, बिना हेल्मेट और अंधाधुंध रफ्तार के साथ हवा में नशे की गंध छोड़ते दंभी युवकों की भीड़” हैरान-परेशान करती है।

कुल मिलाकर ये यात्रा वृत्तांत आज के उत्तराखण्ड का आईना हैं। प्रकाशित चित्रों में परिचय की कमी खलती है। कुछ अशुद्धियां भी हैं, विशेष रूप से पितृको को बार-बार पित्रपढ़ना सुस्वादु भोजन के बीच कंकड़ आ जाने की तरह किरकिराता है।

    -चले साथ पहाड़, लेखक- अरुण कुकसाल, प्रकाशक- सम्भावना प्रकाशन, हापुड़ (7017437410) पृष्ठ 208, मूल्य 250/-

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