Wednesday, May 03, 2023

संग-साथ-- तीसरी आंख से देखे गए अविस्मरणीय चित्र

अशोक अग्रवाल की गिनती हिंदी के विशिष्ट कथाकारों में होती है। इस बार उनके संस्मरण उन्हें विशिष्ट बना रहे हैं। संस्मरणों की नवीनतम कृति से उन्होंने साबित किया है कि वे अपने करीबी रचनाकारों की स्मृतियों में अपनी कथाओं एवं चरित्रों की तरह ही प्राण भर देते हैं। जब तक हम संग साथके साथ रहते हैं यानी उसे पढ़ रहे होते हैं, उतनी देर वे सभी लोग स्मृतियों के संसार से उतरकर हमारे साथ चलते-फिरते, बोलते, झगड़ा और प्यार करते हैं। किताब बंद करते ही वे हमें अकेला छोड़ जाते हैं। एक रिक्ति और कचोट मन में गहरे बनी रह जाती है, जैसे- बहुत करीब से उठकर चला गया कोई!

शमशेर बहादुर सिंह, अज्ञेय, त्रिलोचन और विनोद कुमार शुक्ल की स्मृतियों में आत्मीयता होने के बावजूद तनिक लिहाज की दूरी भी दिखाई देती है। यह उनकी विराट छवियों के कारण भी हो सकता है जिसके भीतर आप अत्यंत सहजता से प्रवेश पा तो जाते हैं लेकिन अपने ही संकोच में कुछ न कुछ देखना और स्पर्श करना हर बार रह जाता है। नागार्जुन को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता था लेकिन एक तो बाबा किसी अपिरिचित के साथ भी सारी दूरियां स्वयं ही पाट देते रहे और अशोक जी ने तो उन्हें बाहर-भीतर से देखा-जाना बहुत करीब से और कई कोणों से। बल्कि, उन्होंने वह भी देखा और अनुभव किया जिसे बाबा के कई करीबी नहीं देख पाए या अनदेखा कर गए, इसलिए यहां बाबा को पूरा खुले में देखा जा सकता है। उनका यह नायाब संस्मरण जब पहलमें छपा था तो इसके एक-दो प्रसंगों पर विवाद हुआ और ज्ञानरंजन को स्पष्टीकरण प्रकाशित करना पड़ा था। वे विवादितअंश इस पुस्तक से निकाल दिए गए हैं लेकिन ज्ञान जी का स्पष्टीकरण शामिल किया गया है जिससे जानने वालों को उन प्रसंगों की अनुगूंज सुनाई दे ही जाती है। स्वाभाविक ही बाबा के साहित्य और साहित्येतर में भी प्रवेश करने की एक खिड़की यह संस्मरण है।   

जो संस्मरण संग-साथके धड़कते प्राणों सरीखे हैं, वे बहुत कम या लगभग नहीं जाने गए रचनाकारों के बारे में हैं।  नवीन सागर, अमितेश्वर, प्रियदर्शी प्रकाश, अशोक माहेश्वरी, जितेंद्र कुमार, पंकज सिंह और विश्वेश्वर से जुड़ी यादों में कथाकार अशोक अग्रवाल की परकाया प्रवेश की दक्षता चकित करती है। इन संस्मरणों को पढ़ते हुए एक कसक और बेचैनी बहुत तीव्रता से जकड़ लेती है। अशोक अग्रवाल इनके निजी और रचना संसार के भीतर न केवल प्रत्येक ओने-कोने को महसूस कर आए हैं, बल्कि अपना भी कुछ वहीं छोड़ आए हैं। इसीलिए वे स्मृति-चित्र हमारे भीतर अंकित रह जाते हैं और रह-रह टीसते हैं। लगता है अशोक जी के पास अपने इन अत्यंत आत्मीय रचनाकारों के व्यक्तित्व के देखे-अनदेखे, उजले-स्याह पक्षों को खोलकर रख देने की कोई कुंजी होगी! जैसे, जितेंद्र कुमार के बारे में वे लिखते हैं- “खुद अपना एक अपयश वह केंद्रीय भाव है जिसे पकड़कर जितेंद्र कुमार के व्यक्तित्व और कृतित्व के मर्म को कुछ हद तक समझा जा सकता है।” ऐसी ही कोई कुंजी उनसे नवीन सागर के वे अनलिखे किस्से कहलवा देती है जो असमय काल-कवलित हुए इस कहानीकार की अद्भुत प्रतिभा को उजागर करते हैं।

लक्ष्मीधर मालवीय पर जो संस्मरण है, वह इस मायने में तनिक भिन्न है कि उसमें मालवीय जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के विभिन्न पहलुओं को करीब से जानने के अलावा हम एक बेहतरीन यात्रा-वृतांत भी पढ़ते हैं। संग-साथसे पता चलता है कि अशोक अग्रवाल घूमक्कड़ स्वभाव के रहे हैं। घुमक्कड़ी, बल्कि आवारगी, किसी भी इनसान को विलक्षण अनुभवों और संवेदनशीलता से समृद्ध करती है। लेखक के लिए तो वह तीसरी आंख अर्जित करने जैसा है जिसे खोलने पर जीवन और जगत के भीतर के अदृश्य को देखा और अनुभव किया जा सकता है। इन संस्मरणों में यही अनुभव-समृद्धि दिखाई देती है। इस किताब में वर्णित अधिकसंख्य रचनाकार भी घुमक्कड़ प्रवृत्ति के रहे हैं। यह दुतरफा लगाव इन स्मृति-चित्रों में और भी प्राण फूंकता है। गद्य तो अशोक जी का सरस और बहते पानी-सा निर्मल है ही।  

संग-साथकी समृद्धि प्रकारांतर से हमें हिंदी साहित्य-संसार की गरीबी भी दिखा देती है। कैसे-कैसे अद्भुत रचनाकार-कलाकार अनजाने रहे चले आए और बिखरते-टूटते गए। अपने रचनाकर्म और जीवन को योजनाबद्ध ढंग से व्यवस्थित या प्रचारित न करने वालों की यहां कोई पूछ या गिनती नहीं। कैसे-कैसे हीरे थे जिन्हें तराशा, सम्भाला और सामने लाया जाना था। उनका लगभग गुमनामी में तिरोहित हो जाना और उनकी रचनात्मकता की सुध भी न लेना, उनकी अपनी अराजकता से अधिक हिंदी साहित्य-समाज की अहंमन्यता है। अशोक जी को साधुवाद कि कुछ हीरों की चमक वे दिखा सके, भले ही उनके बुझ जाने के बाद।

- न जो, 03 मई, 2023

(संग-साथ- अशोक अग्रवाल, सम्भावना प्रकाशन, मूल्य-300/-, सम्पर्क- 7017437410)       

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