Thursday, September 07, 2023

सुप्रीम कोर्ट की पर्यावरण संरक्षण समिति पर सरकार का कब्जा

मोदी सरकार किस प्रकार स्वतंत्र और उच्चाधिकर प्राप्त संस्थाओं की स्वायत्तता छीनकर उन्हें अपने नियंत्रण में ले रही है, इसका और उदाहराण, बल्कि मामला सामने आया है। सन 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक केंद्रीय उच्चाधिकार समिति (सीईसी) बनाई थी जो इस पर नज़र रखती थी कि सरकार पर्यावरण की सुरक्षा के बारे में दिए गए निर्णयों का ठीक से पालन कर रही है या नहीं। यह समिति अपनी रिपोर्ट सर्वोच्च को सौंपती थी यानी उसके प्रति जवाबदेह थी। उस रिपोर्ट के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय सरकार को निर्देश देता था या मनमाने निर्माण पर रोक लगाता था। इसी कारण कई सरकारी परियोजनाओं पर अदालत ने सरकार को फटकार भी लगाई थी। 2008 में इस समिति का पुनर्गठन किया गया था। इसी साल मार्च में समिति ने पर्यावरण को क्षति पहुंचने के कारण कश्मीर के पत्नी टॉप पर एक सम्मेलन-संकुल का निर्माण करने के विरुद्ध रिपोर्ट दी थी हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इसकी अनुमति दे दी थी। यह सुप्रीम कोर्ट को भी अच्छा नहीं लगा होगा लेकिन इससे यह साबित होता है कि यह समिति कितनी अधिकार प्राप्त थी।

यह सरकार इस समिति को कैसे बर्दाश्त करती! जिस प्रकार भी हुआ हो, अब सुप्रीम कोर्ट ने इस समिति को केंद्र सरकार के हवाले कर दिया है यानी समिति अब पर्यावरण मंत्रालय के प्रति जवाबदेह होगी और उसी को अपनी रिपोर्ट देगी। विभिन्न परियोजनाओं में पर्यावरण संरक्षण मानकों का उल्लंघन होने के मामले अब कोर्ट नहीं, सरकार यानी पर्यावरण मंत्रालय स्वयं देखेगा। स्वाभाविक है कि इस समिति का अब कोई महत्त्व नहीं रह गया है। इस बारे में आज Indian Express ने अपने पहले पृष्ठ पर बड़ी खबर छापी है।

यहां यह भी याद करना जरूरी है कि सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी ही एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति उत्तराखण्ड में बन रही ऑल वेदर चार धाम फोर लेन परियोजना और बड़े बांधों की निगरानी के लिए भी बनाई थी जिसके अध्यक्ष रवि चोपड़ा थे। रवि चोपड़ा समिति ने सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट दी थी कि संवेदनशील पहाड़ों पर साढ़े पांच मीटर से अधिक चौड़ी सड़क बनाना खतरनाक होगा। तब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया था कि सड़क की चौड़ाई समिति की सिफारिशों के अनुरूप रखी जाए। मोदी सरकार को यह कैसे स्वीकार होता! आखिर यह प्रधानमंत्री का 'ड्रीम प्रॉजेक्ट' है। सो, तिकड़में लगाई गईं। समिति के सरकारी सदस्यों ने अपनी राय बदली और सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने तर्क दिया कि यह इलाका चीन सीमा से लगा है और सेना को सीमा पर आधुनिक टैंक, आदि पहुंचाने के लिए दस मीटर से चौड़ी सड़क की आवश्यकता है। राष्ट्रीय सुरक्षा का तर्क स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को अपनी मर्जी के अनुसार चौड़ी सड़क बनाने की अनुमति दे दी। खिन्न होकर रवि चोपड़ा ने समति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। यह भी उल्लेखनीय है कि सेना के एक बड़े अधिकारी ने कहा था कि सीमा तक आधुनिक टैंक आदि पहुंचाने के लिए साढ़े पांच मीटर चौड़ी सड़क पर्याप्त है। हाल की भारी बारिश में इसी फोर लेन पर कई जगह भूस्खलन हुए। एक जगह तो सौ मीटर फोर लेन अलकनंदा में समा गई।

बहरहाल, 'सीईसी' के पुनर्गठन के बारे में पर्यावरण मंत्रालय ने अधिसूचना जारी कर दी है जिससे साफ है कि समिति निष्प्रभावी हो जाएगी। अधिसूचना के अनुसार समिति सरकार को रिपोर्ट देगी, सुप्रीम कोर्ट का उससे कोई मतलब नहीं होगा।। समिति के सदस्य कौन होंगे, यह सरकार तय करेगी। समति में अब पहले की तरह दो स्वयं सेवी संगठनों के प्रतिनिधि नहीं होंगे। समिति का खर्च भी सरकार ही वहन करेगी और जिसे 'विषेषज्ञ' कहेगी, उसे इसका सदस्य बना देगी। अधिसूचना में स्पष्ट कहा गया है कि यह समिति केंद्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण में कार्य करेगी। अगर सरकार को समिति के सुझाव स्वीकार नहीं होते तो सरकार का ही निर्णय अंतिम माना जाएगा। 

इसी के साथ वह दौर अब समाप्त हो गया है जब पर्यावरण के मामलों में सरकार की मनमानी पर सुप्रीम कोर्ट की नज़र रहती थी। याद कीजिए कि पिछले ही दिनों सरकार ने वन कानून 1980 में संशोधन करके यह सुनिश्चित कर दिया है कि सीमांत क्षेत्रों में एक सौ किमी के दायरे में किसी भी परियोजना के लिए वन कानून के प्रावधान लागू नहीं होंगे। प्राकृतिक रूप से सम्पन्न जैव विविधता वाले वनों में भी सरकार 'राष्ट्रीय हित' के नाम पर मनमाना निर्माण कर सकेगी। संसद में ये संशोधन बिना बहस पारित कर दिए गए थे। वन कानून के नए प्रावधानों ने गोदावर्मन मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय किए गए मानक भी निष्प्रभावी कर दिए हैं। 

जल-जंगल-जमीन से लगातार उजाड़े जा रहे आदिवासी/ग्रामीण समुदाय अब विस्थापन के विरुद्ध किसी कानूनी सहायता पाने के हकदार लगभग नहीं रह गए हैं। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप की सम्भावना न्यूनतम कर दी गई है। प्रकृति के प्रकोप से पहाड़ों पर निरंतर जारी विनाशलीला के बावजूद सरकारें कुछ सीखने को तैयार नहीं हैं। मोदी सरकार तो किसी भी तरह की निगरानी या हस्तक्षेप सहन करने को तैयार नहीं है। 

-न जो, 08, सितम्बर, 2023


 

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