Friday, September 15, 2023

'तुम तो अच्छे मुसलमान थे, रहमान' पर तरसेम गुजराल की टिप्पणी

 नवीन जोशी की कहानियां एक तरफ पूंजी के नए और आक्रामक चरित्र की पहचान कराती हैं, दूसरी तरफ भारत के मामूली आदमी के सुख-दुख, जीवन यथार्थ के अंतरंग चरित्र हमारे सामने रखती हैं, कुछ इस तरह कि समाज की नब्ज पर हमारी उंगलियां टिक जाती हैं।

हिंदू-मुसलमान दोनों इनसान हैं और दोनों भारतीय परंतु इधर कुछ समय से हिंदू-मुसलमान कुछ ज़्यादा ही होने लगा है जो कि सामाजिक ढांचे के लिए काफी तनावपूर्ण और निंदनीय ही कहा जाना चाहिए। उनकी कहानी 'तुम तो अच्छे मुसलमान थे रहमान' इसी तनाव की रचनात्मक स्तर पर गहरे तल पर जांच-पड़ताल करती है। कहानी में सक्सेना और रहमान दोनों मित्र हैं। सुबह की सैर एक साथ ही मिलकर करते हैं। आज जब सुबह एक साथ ही निकले तो पास से एक हाकर अखबार का एक शीर्षक जोर से सुनाता हुआ उनके पास से गुजरा- 'डंके की चोट पर सीएए लागू करेंगे'। रहमान ने चौंककर देखा। 'एकबारगी उन्हें लगा कि हाकर वह हेडिंग उन्हीं को सुना रहा है। क्या वह जान रहा  है कि वे मुसलमान हैं? क्या उनके कपड़े, उनकी शक्ल और उनकी चाल उनके मजहब की चुगली कर रहे हैं? उन्होंने अनायास सक्सेना की ओर देखा। क्या इसे देखकर उसके धर्म का पता चलता है?'

'कल भाषण सुना आपने?' सक्सेना ने पूछा।

'सुना था',  रहमान ने धीरे से इतना ही कहा। इंतज़ार करने लगे कि सक्सेना आगे कुछ कहे। कोई टिप्पणी, अपनी सहमति या असहमति, लेकिन वह कुछ नहीं बोले।'

कविता की भाषा में कहा जा चुका है- 'किस ओर हो तुम?'

'डेमोक्रेसी में तो डायलॉग होता है। आप किसी की सुनोगे ही नहीं? कम से कम लोगों से बात तो करो। कई शहरों-कस्बों में बड़ी संख्या में जनता मुखालफ़त कर रही है, भीषण सर्दी और बारिश में ठिठुरते हुए बेमियादी धरने पर बैठी है तो उनका कोई पक्ष होगा न!'

दोनों मित्र चुपचाप चलते जा रहे हैं। यहाँ एक पंक्ति बड़ी अर्थपूर्ण है- 'पिछले कुछ वर्षों से उनके बीच चुप्पियां बढ़ती गई हैं। खासकर रहमान का बोलना बहुत कम हो गया है।' जब सक्सेना ने कहा कि आज दूसरी तरफ चलें उधर? तब रहमान से रहा नहीं गया, बोले-'अरे सक्सेना, कहां-कहां रास्ता बदलेंगे। रहना तो यहीं है न, इन्हीं लोगों के बीच।जुबान पर तो आया था कि कह देंपाकिस्तान तो चले नहीं जाएंगेलेकिन उन्होंने सायास रोक लिया।

यह कहना आसान हो गया है कि अगर विरोध है तो पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते, किसी के लिए कितना कष्टदायक हो सकता है, यह नहीं सोच पाएंगे। फिर कहा कि हाकर उनका नाम नहीं जानता। वहां तो सभी जानते हैं कि यही रहमान हैं। लोग हैं कि उन्हें आते देखते ही कानाफूसी करने लगते हैं।

 "आदाब रहमान साहेब, खैरियत?' कोई यूँ ही पूछ लेता है। 'आपकी दुआ है,' वे धीरे से कहते हैं।

"बहुत मजे में हैं साहब। खाते यहां का और गाते वहाँ का" चबूतरे के इर्द-गिर्द जुटे लोगों में कोई इस तरह कहेगा कि रहमान सुन लें। 

"एक-एक घुसपैठिया बाहर किया जाएगा, डंके की चोट पर।'

"वंदे मातरम भी नहीं बोलेंगे। भारत माता की जै कहते फटती है। दिखाने को लहराएंगे तिरंगा और संविधान की प्रतियाँ और साजिश करेंगे देश के खिलाफ।"

सक्सेना ने सहारा देना चाहा। रहमान ने कहा-'कहीं भी जाओ, मैं रहमान से घनश्याम तो हो नहीं जाऊंगा।' उनके स्वर में दर्द छुपा न रहा। 

एक बार बड़े भाई अलताफ से बात होने पर रहमान ने कहा था -'मुझे निकलना है इन तंग गलियों से, मुल्ला-मौलवियों के फतवों-तकरीरों से, शरिया की जकड़न से, पर्देदारी और जहालत से। मुझे खुली हवा में सांस लेनी है, बच्चों को अच्छा पढ़ाना-लिखाना है, आगे देखना है।लेकिन भाई ने गुस्से में कहा था - जाओ, खूब शौक से जाओ लेकिन एक दिन पछताओगे और इन्हीं तंग गलियों की तरफ वापस दौड़े आओगे। किस खुली हवा में जाना चाहते हो, जहां कोई हिंदू किसी मुसलमान को किराए का मकान भी नहीं देता?’ कैसी विडम्बना है! 

अम्मी का कहना भी कहाँ गलत है? 'तेरे दादा और अब्बा को कभी जरवत ना पड़ी अपने को अच्छा मुसलमान साबित करने की।’ 

अच्छा साबित करने/होने का पूरा अध्याय था। "दीवाली के पांचों दिन रहमान का मकान रोशन रहता। शकीला बुर्का नहीं पहनती थी, बेटी बिना हिजाब के बिना मुहल्ले की लड़कियों के साथ उछलती-खेलती थी, बेटा राशिद (जो इस कॉलोनी में आने के बाद पैदा हुआ) जन्माष्टमी में कान्हा का रूप धर कर पार्क में सबको मोहता था और सुरीले स्वर में भजन गाता था। पाकिस्तान क्रिकेट टीम की जीत पर पटाखे छुड़ाने वाले मुसलमानों को वे गरियाते थे। तीन तलाक जैसी कुप्रथा के खिलाफ बोलते थे। कहते थे कि मुसलमानों को मज़हब के नाम पर धर्म के ठेकेदारों ने ज़ाहिल बना रखा है और राजनैतिक दलों ने वोट बैंक।"

'नो डॉक्युमेण्ट्स, रिजेक्ट सीएए को लेकर प्रदर्शन था। रहमान देर तक वहाँ चहलकदमी करते रहे। कॉलोनी के लोग बेखबर नहीं थे। सुनाया गया- "ये कागज नहीं देखाएंगे भैया, यहीं रहकर छाती पर मूंग दलेंगे।"

शीला रोहेकर के उपन्यास 'पल्लीपार' पर लिखते हुए नवीन जोशी उल्लेख करते हैं- "2014 के सत्ता परिवर्तन के बाद देश तेजी से बदला और उससे भी तेजी से बदला मीडिया। चैनल के कर्ता-धर्ता और सम्पादक “लाल टीका लगाए, सिर पर रुमाल धरे फोटुओं में चमकने लगे थे। उनके चेहरे की संवेदना, सोच और खरेपन की रेखाएं भोथरी होने लगी थीं।” तब सारा अपने विद्रोही स्वभाव के कारण ए न्यूज डॉट कॉमसे बाहर हुई और अशफाक को मजबूरन बाहर होना पड़ा- “मुझे नहीं पता था कि सलिल कपूर जैसे सजग और प्रबुद्ध व्यक्ति को भी मैं किसी आतंकवादी गिरोह का सदस्य या दूर का कोई रिश्तेदार अथवा जासूस लगूंगा।” (तद्भव 46)

इन पंक्तियों का उल्लेख बेवजह नहीं है। वह उसी तनाव को गहराते हैं जिसे रहमान झेल रहा है।

जब गांधी हिंदू-मुसलमान के पागलपन के अंधियारे को महसूस कर रहे थे, वह बहुत विचलित हुए थे। एक दोस्त को गांधी ने लिखा था- 'मेरा मौजूदा मिशन मेरे जीवन का सबसे मुश्किल और जटिल मिशन है ... मैंने इससे पहले अपने जीवन में इतना अंधियारा नहीं पाया था। रातों का अंत होता ही नहीं लगता। सिर्फ इस बात से राहत है कि खुद मैं न तो अपने को उलझन में पाता हूं, न निराश हूं। करेंगे या मरेंगे की असली परीक्षा यहीं हो रही है। यहाँ करेंगे का मतलब है, हिंदुओं और मुसलमानों को शांति से रहना सीखना होगा। वरना मैं इसी प्रयास में अपनी जान दे दूंगा।' (समयांतर,जनवरी2023)

कहानी में रहमान तब आहत होते हैं जब उन्हें लगता है कि उनका मित्र सक्सेना भी उन्हें ठीक से समझ नहीं पा रहा। जब वातावरण में जहर घोलने का काम कुछ शक्तियाँ कर रही हों, ऐसी कहानियों की जरूरत होती है। वे हमारे कानों में कुछ कह जाती हैं, जो मानीखेज होता है। 

-तरसेम गुजराल, परीकथा, मई-जून-जुलाई-अगस्त, 2023 में

 

 

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