Thursday, February 01, 2024

दो फरवरी 1984 की याद और उदासी

आज दो फरवरी 2024 है। एक दो फरवरी 1984 भी थी जब अल्मोड़ा जिले के बसभीड़ा-घुंगौली (चौखुटिया से 5 किमी दूर) गांव से एक जनांदोलन शुरू हुआ था, जिसे बाद में 'नशा नहीं रोजगार दो' आंदोलन के नाम से जाना गया और जिसने आने वाले कई महीनों तक पूरे उत्तराखण्ड (तब अलग राज्य नहीं बना था) को झकझोर डाला था और प्रदेश सरकार को उसके दबाव में आकर कुछ मांगें माननी पड़ी थीं। वह जनता के आक्रोश का विस्फोट था क्योंकि स्थितियां ऐसी बना दी गई थीं कि इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था। उत्तराखण्ड संघर्षवाहिनी ने इस आंदोलन का तब नेतृत्व किया था और इस आंदोलन को मात्र नशे के विरुद्ध नहीं, उत्तराखण्ड की मूलभूत समस्याओं से जोड़ा था।

वह चिपको आंदोलन की आंशिक सफलता (आंशिक विफलता भी) के बाद का दौर था और उससे उपजी सामाजिक-राजनैतिक चेतना से पहाड़ का समाज धड़क रहा था। जो सरकार सुदूर पर्वतीय गांवों में सड़क, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार जैसी मूलभ्होत सुविधाएं उपलब्ध कराने के बारे में गम्भीर नहीं थी, वह गांव-गांव नशे का तंत्र फैलाने में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से लगी हुई थी। सरकारी संरक्षण में शराब की विक्री के अलावा दवा के नाम पर बेचे जा रहे सुरा, टिंचरी, लिक्विड जैसे नशे से पहाड़ का जन-जीवन अस्त-व्यस्त था। स्कूली बच्चे तक नशे की गिरफ्त में आ रहे थे। परिवार उजड़ रहे थे और महिलाएं त्रस्त थीं। इसीलिए महिलाएं इस आंदोलन में सबसे आगे थीं। उन्होंने नशा बेचने वाली दुकानों के आगे धरने दिए, दुकानें बंद कराईं, शराब ठेकेदारों का घेराव किया, जिलाधिकारियों की घेराबंदी करके शराब की नीलामी रुकवाई और जन प्रतिनिधियों को सड़कों पर घेर उनसे तीखे सवाल किए।

आज चालीस साल बाद उत्तराखण्ड में स्थितियां और भी खराब हो गई हैं। जनता को उसका 'अपना राज्य'  मिले तेईस वर्ष हो गए हैं लेकिन उसके हालात अत्यंत खराब हैं। नशे का सरकारी तंत्र तो फैला ही है, जल-जंगल-जमीन की लूट चरम पर है, बड़े-बांधों, अनावश्यक फोर लेन हाईवे, भूमिगत रेल परियोजना, आदि-आदि के कारण पहाड़ का अस्तित्व ही दांव पर लगा दिया गया है। धर्म के नशे का अलग कहर बरपा हो रहा है।गांव उजड़ रहे हैं, भुतहा गांवों की संख्या निरंतर बढ़ रही है, सरकारी देखरेख में जमीनों की लूट मची है, दलालों-ठेकेदारों-माफिया की जकड़न में नदी-पहाड़,पानी, रेता-बजरी, जड़ी-बूटी, आदि-आदि संसाधनों का जबर्दस्त दोहन हो रहा है और जनता पहले से भी अधिक पलायन करने को मजबूर है।

ऐसे में 1984 की तुलना में आज प्रतिरोध की कहीं अधिक आवश्यकता है लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि कैसा सन्नाटा है। पुरानी आंदोलनकारी शक्तियां बिखर गईं या सता के बगलगीर हो गईं और नई पीढ़ी में जैसे कोई सुगबुगाहट ही नही। उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी, जो उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी का ही एक धड़ा है, हर साल बसभीड़ा में नशा नहीं रोजगार दो'आंदोलन की वर्षगांठ मनाता है लेकिन वाहिनी से निकले अन्य धड़ों में कोई हलचल नहीं होती। वे एक प्रतीकात्मक प्रदर्शन तक नहीं करते, न ही विज्ञप्ति जारी करते हैं। अब अधिकतर प्रतिरोध विज्ञप्तियों से या प्रतीकात्मक धरने से होते हैं।असहायता और विकल्पहीनता का अजब आलम है।

पिछले 22-23 वर्षों में कांग्रेस और भाजपा की सरकारें अदल-बदल कर बनती रही हैं। इन दलों से आजिज जनता घोर विकल्पहीनता के कारण इन्हीं नागनाथों और सांपनाथों में से एक को चुनने के लिए विवश है। एक सचेत और आंदोलनरत समाज के हिस्से यह राजनैतिक विकल्पहीनता क्यों आई? राजनैतिक विकल्प के नाम पर जो परिवर्तनकामी ताकतेंहैं भी, चुनावों में उनके गिने-चुने प्रत्याशियों को एक हजार वोट भी मुश्किल से मिलते हैं। हर चुनाव से पहले ये ताकतें मिल-जुल कर भाजपा एवं कांग्रेस के विरुद्ध एक सशक्त विकल्प बनाने की बातें करती हैं। 2022 के विधान सभा चुनाव के लिए भी इनमें एकता की बातें हुई थीं। 2023 में भी भाजपा के विरुद्ध सामूहिक चुनाव नीति बनाने की चर्चा बहुत दिनों से हो रही है। वास्तविकता यह है कि उनमें कभी जमीनी एकता नहीं हो पाई। बल्कि, इन छोटे-छोटे दलों-संगठनों में टूट बढ़ती गई है। फिलहाल इसकी सम्भावना नहीं दिखती कि अपने-अपने कोनों में सिमटी और जनाधार खोती जा रही ये पार्टियां किसी तरह एक हो भी जाएं तो दोनों राष्ट्रीय दलों का कामचलाऊ क्षेत्रीय विकल्प बन पाएंगी।

आज उत्तराखण्ड की जनता सबसे लाचार हाल में है। न कोई सरकार उनके हित में काम कर रही है न ही बड़े आंदोलन के लिए प्रेरित और नेतृत्व करने वाला कोई उनके बीच है। जनता की लाचारी का सबसे अच्छा उदाहरण राज्य का भू-कानून है। गांवों के गोचर-पनघट और खेत तक बिक रहे हैं और जनता चुपचाप देख रही है। राज्य की हालत ऐसी बना दी गई है कि अधिसंख्य ग्रामीण जनता को अपनी जमीन बचाने में कोई रुचि ही नहीं रह गई है जबकि पूर्व में वह सबसे कीमती संसाधन माना जाता रहा। जमीन बेचो और भागोही उसे एकमात्र विकल्प दिखाई दे रहा है। 

नशे का बुरी तरह जकड़ चुका शिकंजा भी उस जनता की निस्सहायता बताता है जिसने चालीस साल पहले अपने नशा विरोधी आंदोलन से उत्तर प्रदेश की सरकार को हिला दिया था। आज की सरकारों ने नशे के धंधे को राजस्व का सबसे बड़ा स्रोत बना लिया है। बसभीड़ा में उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के एक संक्षिप्त आयोजन के अलावा कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है। दो फरवरी अब उदास ही करती है। 

- न जो, 2 फरवरी 2024

 

 

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