कन्नड़ लेखिका बानू मुश्ताक के कहानी संग्रह Heart Lamp को बुकर पुरस्कार मिलने पर शुरू में जितनी प्रशंसा हो रही थी, अब उनकी कहानियों पर उतने ही सवाल भी खड़े किए जाने लगे हैं। फेसबुक में ही कई टिप्पणियों में लेखकों-पाठकों ने कहानियों के विषयों, तथ्यों और उनके संदेशों या निष्कर्षों पर सवाल उठाए हैं। इन सवालों का निशाना शायद बुकर पुरस्कार के निर्णायक अधिक हैं।
सवाल उठने भी चाहिए। कोई भी लेखक, कृति या पुरस्कार भी सवालों से ऊपर कैसे हो सकते हैं? गीतांजलिश्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ को बुकर पुरस्कार मिलने के बाद भी कई कोनों से सवाल उठे थे। उनमें एक सवाल यह भी है कि यह पुरस्कार हिंदी या कन्नड़ कृतियों की मौलिक रचनाधर्मिता को मिला है या अनुवाद-कौशल को?
कई पाठकों को ‘रेत समाधि’ जटिल और अपठनीय लगा था लेकिन मुझे वह न केवल बहुत अच्छा लगा, बल्कि उसकी शैली और ट्रीटमेंट, वगैरह ने भी प्रभावित किया था। वह मेरे पसंदीदा उपन्यासों में शामिल है।
मैं बतौर एक पाठक ही ये बातें लिख रहा हूं। बानू मुश्ताक की बिल्कुल सीधी, सरल, सहज और भाषाई चमत्कार या जटिल शिल्प के बिना लिखी गई कहानियाँ मुझे छू गईं। कुरान, हदीस और शरियत के नाम पर सताई, दबाई गई गरीब व मध्यवर्गीय परिवारों की मुस्लिम महिलाओं की स्थितियाँ व यंत्रणाएँ रेशा-रेशा खोलती ये कहानियाँ अपने भीतर प्रतिरोध के स्वर भी साथ लिए हुए हैं। कहीं-कहीं तनिक लाउड होती भी लगती हैं लेकिन धर्म के नाम पर मर्दवाद के लिए जरूरी सांकेतिक चुनौती खड़ी करती हैं।
इन कहानियों का शिल्प इतना सीधा और सरल है कि उसे सपाट या सादाबयानी कहा जा सकता है। शायद आजकल सादाबयानी वाली कथाएं हमारे यहां बहुत सराही नहीं जातीं। इन कहानियों की विषय वस्तु और उनके संदेश पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। जैसे कि ‘रेड लुंगी’ कहानी में हज्जाम के सामान्य चाकू से किया गया खतना और घाव पर पोती गई राख, डॉक्टर के यहां किए गए खतने और दवाओं से बेहतर और सुरक्षित साबित हुआ। किशोर उम्र बच्चों का खतना करने पर भी सवाल उठे हैं।
सवाल मेरे मन भी उठते रहे। सवाल तो प्रेमचंद की कहानी ‘मंत्र’ पढ़ते हुए भी उठा था कि प्रेमचंद क्या कहना चाहते हैं जब बताते हैं कि जहरीले सांप के काटे अपने बच्चे को डॉक्टर नही बचा पा रहा था तब उसे एक झाड़-फूक करने वाले ओझा ने बचा लिया?
सवाल गलत नहीं हैं लेकिन क्या कहानियों का संदेश मात्र इसी तरह सम्प्रेषित होता है? क्या कहानियों के मर्म किन्हीं और प्रसंगों में नहीं होते? जो हालात बयां किए जाते हैं, अतिरंजित ही सही, समाज का आईना नहीं होते? आबे जमजम में भिगाया गया कफन ओढ़कर कब्र में जाने की यासीन बुआ के दिली अरमान ही कहानी का मर्म हैं या कि कहानी में वर्णित वे हालात जिनसे ऐसी मन:स्थितियां बनती हैं, ताउम्र जकड़े रहती हैं, और वह वर्ग चरित्र भी जो शाजिया और यासीन बुआ के परिवारों का फर्क बनाता है?
ज़्यादा बड़ा सवाल शायद यह होगा कि मुस्लिम महिलाओं के जो हालात इन कहानियों में वर्णित हुए हैं, क्या वे पहली बार साहित्य में दर्ज़ हुए हैं? क्या पहले भारतीय भाषाओं में इन पर नहीं लिखा गया या इससे बेहतर रूप में दर्ज़ नहीं हुआ? या फिर अंग्रेजी अनुवाद से पहली बार बुकर पुरस्कार के निर्णायकों के सामने आया?
सबसे बड़े और प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार का भी तो एक पक्ष और विपक्ष होता ही है।
बहरहाल, बानू मुश्ताक की ये कहानियां देर तक मेरे भीतर प्रतिध्वनित होती रहीं। यह तकलीफ भी कि विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य के मामले में हिंदी कितनी दरिद्र है।
‘रेड लुंगी’ कहानी में जब एक फटेहाल भूखी महिला झूठ बोलकर अपने लड़के का दोबारा खतना करवाने आ जाती है, ताकि उसे कुछ रुपए और खाने का सामान मिल सके, तो पाठक भीतर तक हिल नहीं उठता? जब उस महिला को इस झूठ के लिए दुत्कार कर भगा दिया जाता है, तो वहां मौजूद लोगों की खिलखिलाहट समाज और शासन के मुंह पर तमाचा नहीं है? खतना तो छोटे शिशुओं का होता है, इस तथ्य से क्या कहानी खारिज की जा सकती है? उसमें जो मुस्लिम समाज है और जैसी स्थितियां दिखाई गई हैं, उन पर ध्यान नहीं जाता क्या?
पढ़े-लिखे, सम्पन्न मुस्लिम परिवारों में भी स्त्रियों का साल-दर-साल बच्चे पैदा करते जाना, बीमार होने या शरीर ढल जाने पर इस आशंका से त्रस्त रहना कि खाविंद कब दूसरा-तीसरा निकाह कर ले और उसे दर-दर भटकना पड़े, (ऐसा होता भी है इन कहानियों में) सताई जा रही विवाहित महिला का ससुराल छोड़कर मायके जाना और भाइयों द्वारा जबरन वापस ससुराल पहुंचाया जाना, पतियों का यह कहना कि ‘क्या दिक्कत है तुम्हें, सब कुछ तो दिया है, क्या कमी है?’, बीवियों को इंसान नहीं, बच्चे पैदा करने की मशीन और घरेलू नौकर समझा जाना, बीवी को जीते-जी ‘ताजमहल’ बनवाने का ख्वाब दिखाना और उसके मरते ही कमसिन लड़की से ब्याह रचा लेना और जवान बेटी को आगे पढ़ाने की बजाय घरेलू नौकरानी एवं भाई-बहनों की आया बना देना, जैसी कितनी ही अमानवीय हालात में जीती मुस्लिम महिलाओं की इन ‘सामान्य’ कहानियों में निर्णायकों ने बहुत कुछ देखा-पाया है। नेट पर उनकी प्रशंसात्मक टिप्पणियां पढ़ी जा सकती हैं।
इन कहानियों में महिलाओं का प्रतिरोध भी सामने आता है, कहीं मद्धिम सुरों में पर्दे के पीछे तो कहीं बगावत की तरह। ‘ब्लैक कोबराज’ में एक मस्जिद के मुतवल्ली साहब जो अपने समुदाय को कुरान और शरियत के नाम पर जकड़न में बनाए रखने में लगे रहते हैं, उनकी ही बीवी कहानी के अंत में मुतवल्ली-पति से यह ऐलान करती है कि “दरवाजा बंद करो, जो सात बच्चे तुम्हें दे चुकी हूं, उन्हें संभालो, मैं चली अस्पताल ऑपरेशन कराने।”
‘हाई हील्ड शू’ में नायिका का प्रतिरोध बड़ा प्रतीकात्मक और सुन्दर बन पड़ा है। गर्भवती आरिफा को उसका पति ऊंची एड़ी वाली ऐसी जूतियां जबर्दस्ती पहना देता है, जो उसके पैर में फिट नहीं हैं, चुभती हैं, काटती हैं, वह गिर-गिर पड़ती है, गर्भस्थ शिशु पर जोर पड़ता है लेकिन पति हुजूर बीवी को ऊंची एड़ी की जूतियां पहनाकर मुदित मन आगे-आगे चले गए हैं। असल में वह जूतियां नहीं, उसकी बेड़ियां हैं, जिनसे मुक्त होने के लिए वह लाख जतन करती है लेकिन सफल नहीं होती। अंतत: गर्भस्थ शिशु की पुकार वह सुनती है, उसमें एक उम्मीद नजर आती है और जूतियों पर वह इतना जोर डालती है कि उनके टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं।
यह भी ध्यान देना होगा कि बानू मुश्ताक 1970-80 के दौर में कन्नड़ साहित्य में शुरू हुए दलित एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों (मुख्यत: मुस्लिम) की प्रतिरोधी धारा (बंदया या बांदया, जो भी उच्चारण हो) से उभरी लेखिका, सामाजिक कार्यकर्ता और वकील हैं। इन कहानियों का लेखन काल भी तीन-चार दशक पुराना है। समाज बदला होगा, महिलाओं के हालात भी कुछ सुधरे होंगे लेकिन हम अपने चारों ओर जो देख रहे हैं, मुस्लिम ही नहीं, हिंदू समाज में भी, महिलाओं को पितृसत्ता की जकड़न और अत्याचारों से कहां-कैसी मुक्ति मिली है? लेखिका के प्रगतिशील नजरिए और आंदोलनकारी भूमिका के बावजूद इन कहानियों में थोपी हुई क्रांति नहीं है।
संग्रह की अंतिम कहानी ‘बि अ वुमन वन्स, ओ लॉर्ड’ में ‘प्रभु’ (यहां ‘अल्लाह’ सम्बोधन नहीं है) को चिट्ठी लिखती महिला अपनी दुखभरी कहानी लिख चुकने के बाद अंत में साग्रह निवेदन करती है-
“हे प्रभु, अगर तुम दोबारा दुनिया बनाओ, उसमें फिर से स्त्री और पुरुष बनाओ, तो अनुभवहीन कुम्हार की तरह मत करना। इस धरती पर एक महिला की तरह आना। एक बार महिला बनकर देखो, प्रभु!”
यह पीड़ा भरी पुकार इस धरती पर कब से गूंज रही है और जाने कब तक गूंजती रहेगी।
- न जो, 31 मई 2025
1 comment:
अच्छा लिखा है आपने। कहानियां सरल हैं लेकिन मार्मिक भी। परिवेश को बहुत अच्छे से पकड़ा है। और महिलाओं के नजरिए से लिखी गई हैं।
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