कल शाम पत्रकार साथी सुधीर मिश्र की लिखी और धीरज भटनागर निर्देशित लघु फिल्म 'घुसपैठिया कौन' देखी। यह गाज़ियाबाद की एक अदालत में भटक आए (जिसके लिए आम तौर पर 'घुस आए' कहा जाता है) तेंदुए के किस्से से प्रेरित है।
फिल्म बताती है कि असल घुसपैठिया मनुष्य है। वह जानवरों के जंगल में घुसपैठ कर चुका है। रोचक कथा बुनी गई है। तेंदुआ एक समाचार चैनल की प्रोड्यूसर के घर आ गया है। वह प्रोड्यूसर से कहता है कि मेरा इण्टव्यू करो। तब वह बताता है कि घुसपैठिए हम नहीं हैं। इनसान है। वह संविधान का हवाला देता है। कहता है मनुष्य मेरी भाषा नहीं सीख सका, इसलिए मैंने उसकी भाषा सीख ली।
प्रदर्शन के बाद थोड़ी चर्चा भी हुई। उसमें दो पूर्व आईएफएस अधिकारी, मोहम्मद अहसन और संजय सिंह भी थे। वे वन्य जीवों के बारे में बेहतर जानते हैं। अत्यंत महत्वपूर्ण बात कह रहे थे। उन्हें अपनी बात पूरी करने का समय नहीं मिला। जब मंत्री और नेता मुख्य अतिथि होते हैं तो ऐसा ही होता है। मंत्री बड़े और मुद्दा छोटा हो जाता है। गम्भीर चर्चा नहीं हो पाती। मैं भी अपनी बात रखना चाहता था लेकिन अवसर नहीं मिल सका।
मनुष्य ने जंगलों में घुसपैठ कर ली है, यह बात अब नई नहीं। पहले से स्थापित है। इस ओर कम ध्यान जाता है कि तेंदुओं की संख्या भी बहुत बढ़ गई है। उनके बच्चों को खा जाने वाले सियार और लकड़बग्घे समाप्तप्राय हैं। इस बढ़ती आबादी को और जंगल चाहिए। वह है नहीं। नए इलाके की तलाश में तेंदुए अक्सर मानव आबादी की ओर भटक आते हैं। कभी शिकार की खोज में भी। उनसे व्यवहार करना हम भूल चुके हैं। सह-जीवन हमें अब स्वीकार नहीं।
यह नहीं हो सकता कि जानवर जंगल में रहें और मनुष्य बस्ती में। कोई सीमा नहीं खींची जा सकती। जंगलों के बिना मानव जीवन नहीं चलेगा। उसे जंगल और जंगल के प्राणियों के साथ रहना सीखना होगा। जानवर यह जानते हैं। मनुष्य ही भूल गए।
हमने बचपन में पहाड़ के जंगलों में खूब गुलदार (तेंदुए) देखे। वहां मनुष्य का दैनंदिन जीवन जंगलों पर अधिक निर्भर है । जंगल में तेंदुए और मनुष्य एक दूसरे के सम्पर्क में आए दिन आते हैं। न तेंदुआ हमला करता है, न आदमी। तेंदुआ मनुष्य को दूर से देख लेता है। छुप जाता है। मनुष्य को तेंदुए की तेज गंध (बाघैन) आ जाती है। दोनों रास्ता बदल लेते हैं। पहाड़ों में रहने वाले और आदिवासी आज भी यही करते हैं। वहां दोनों का टकराव नहीं होता या बहुत कम। तेंदुआ या बाघ आत्मरक्षा में ही हमलावर होता है।
हम शहरी मनुष्यों का व्यवहार बहुत बदल गया है। हम स्वार्थी, घमंडी, लालची और असहिष्णु हो गए हैं। हम अपने पड़ोसी मनुष्य को बर्दाश्त नहीं करते। कार पार्किंग के झगड़े में गोली मार देते हैं। गली के कुत्ते को मार डालते हैं। तेंदुए को क्या बर्दाश्त करेंगे!
आबादी में भटक आए तेंदुए के वीडियो देखिए। वह बेचारा भागना चाहता है। रास्ता तलाशता है या कहीं दुबकना चाहता है। सैकड़ों लोग लाठियां, गुम्मे, सरिया, वगैरह लेकर उसके पीछे पड़ जाते हैं। जैसे कोई दुश्मन को घेर रहे हों। वह आत्मरक्षा में इधर-उधर भागता है। झपटता है फिर भी किसी का गला नहीं पकड़ता। वह खुद बहुत डरा होता है। उसे अकेला छोड़ दें। अनदेखी करें। उसे रास्ता दें। वह चुपचाप चला जाएगा। अहसन साहब व संजय जी यही कह रहे थे।
लेकिन हम मनुष्य तो खूंख्वार हो चुके हैं। हम इस धरती को अपनी निजी सम्पदा समझ बैठे हैं। उसके लिए आपस में भी मारकाट करते हैं। किसी और को बर्दाश्त नहीं करते। हमारी लिप्सा सबसे बड़ी हो गई है।अंतहीन। सच यह है कि इस धरती पर हम सबसे बाद में आए। तेंदुआ हो या चींटी या कोई भी जानवर, बैक्टीरिया और वायरस, वनस्पतियां, सब हमसे बहुत पहले से यहां हैं। इस धरती पर हमसे पहले हक उनका है।
पहले के इनसानों में यह समझ खूब थी। जंगलों के निकट रहने वालों में आज भी यह समझ है। हम आज के शहरी-कस्बाई मनुष्य यह समझ लें तो तेंदुआ या कोई भी जीव 'दुश्मन' नहीं रहेगा। तब हम 'घुसपैठिया' नहीं कहलाएंगे। तब हम इनसानों से भी नफरत नहीं कर पाएंगे।
कहना चाहता था कि फिल्म में यह स्वर भी होता तो वह पूर्ण हो जाती। व्यापक अर्थवत्ता पा लेती। खैर, फिल्म जैसी है, उसमें भी अर्थवान है। सुधीर और फिल्म निर्माता टीम को बधाई।
- न. जो, 11 अगस्त, 2025
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