Wednesday, August 13, 2025

मलबे में गहरे दफ्न लोग

 

धन सिंह दहाड़ मारकर रोए जा रहा था। सोलह दिन बाद उसकी मां की लाश मकान एक मलबे से निकली थी। सफेद पड़ गई फूली लाश पर झुका हुआ वह विक्षिप्त-सा चीख रहा था।

"इजा रे! कैसी मौत मिली तुझे! ... तू तो कहती थी, मकान आदमी को कभी नहीं दबाता रे धनुआ...। देख आज इतने दिन बाद मिली है तेरी सड़ी लाश, अपने ही मकान से....।" 

वे सब दौड़कर वहां पहुंचे। बाकी गांव वाले भी जमा हो गए। धन सिंह को किनारे करके वे मलबा हटाने में जुट गए, ताकि लाश को साबुत निकाला जा सके। दुर्गंध इतनी थी कि उबकाई आती थी और सिर चकराता था। यह उसी मकान का मलबा था जिसमें मास्साब देवी सिंह की लाश मिली थी। उनकी घड़ी-बंधी कलाई मलबे के ऊपर निकली हुई थी। घड़ी तब भी टिक-टिक कर रही थी लेकिन उनकी सांसों की घड़ी कबके थम चुकी थी। उन्हें उसी दिन निकाल लिया गया था, लेकिन धन सिंह की मां की लाश मकान के ऊपरी हिस्से का मलबा साफ हो जाने के बाद भी नहीं मिली थी। लोगों ने लाशें ढूंढना छोड़ दिया था। आसपास के प्रभावित गांवों में भी ऐसी कई लाशें दबी थीं, जिन्हें निकाल पाना बहुत मुश्किल था। गांव वालों ने धन सिंह को समझाने की कोशिश की थी कि मां का कोई कपड़ा लेकर उसी से दाह संस्कार और क्रिया कर्म कर दे। मगर वह मानता न था।

"रहना तो यहीं होगा, बाल-बच्चों के साथ। लाश ठीक से नहीं फूंकी और विधि-विधान से क्रिया कर्म नहीं किया तो कितने जन्मों तक सताएगी।" मां की मौत के गम पर उसके भूत बनकर सताने की आशंका हावी हो चुकी थी। इसलिए वह रोज थोड़ा-थोड़ा मलबा हटाकर इतने दिनों से मां की लाश खोजने में लगा था। आज उसे सफलता मिल गई थी। 

मलबा हटते-हटते धन सिंह की मां की लाश से सटी भैंस की लाश भी दिखने लगी। उसका और भी बुरा हाल था। लाश में कीड़े रेंग रहे थे। कुछ लोग परे हटकर कै करने लगे।

"भैस के पास कैसे मरी होगी तेरी इजा? गोठ में सोती थी क्या?" किसी ने धन सिंह से कहा।

धन सिंह रोना भूलकर वहीं आ खड़ा हुआ- "शिबौ इजा, तू भैंस को बचाने गई होगी उस रात। सोचा होगा मकान से बाहर निकलने से पहले जानवरों को भी खोलकर बाहर कर दूं... तभी गिर गया होगा मकान। जानवरों के ख्याल के मारे ही वह यहां सोती थी। तू भाग आती, मरने देती भैंस को।" वह फिर रोने लगा।

सबकी आंखें नम हो आईं। पुष्कर के तो आंसू निकल आए। उसे अपनी मां की याद आ गई। चंद रोज पहले वह सिर्फ तीन दिन को अल्मोड़ा अस्पताल में भर्ती थी  तो भैंस और बैल के लिए रोती थी कि किसी ने ठीक से चारा दिया होगा या नहीं, उसे पानी भी दो बार चाहिए, कि इतने दिन से हरी घास को तकती होगी बेचारी। तब पुष्कर उसे झिड़कता हुआ हंसता था। मगर आज धन सिंह की मां को भैंस के पास मरा हुआ पाकर वह शायद कुछ-कुछ समझ रहा था कि यह औरत मकान से सुरक्षित बाहर आने के बाद भी जानवरों को खोलने फिर निचली मंजिल (गोठ) में क्यों गई होगी, अपनी जान पर खेलकर!  

('दावानल' का एक अंश, जो धराली में मलबे में दफ्न लाशों की याद करते हुए बार-बार याद आ जाता है) 

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