आज रात अपनी यह कविता उसने मुझे फोन पर सुनाई जिसके लिए मैं कभी कभार, उसके बचपन में, कवितानुमा कुछ लिख दिया करता था. यूं कविताएं उसने पहले भी लिखी हैं, लेकिन मेरे ब्लॉग में उसकी यह पहली ही है. मजा यह कि मेरे लिए यह ब्लाग भी उसी ने बनाया था,सन 2006 में ...नवीन जोशी
हर्ष जोशी
लो, एक और मई आ गई
उबलती दोपहर और उमस भरी रातें
वैसी ही हैं लेकिन
गरमी का मौसम अब बदल चुका है
अब खिडकी ही से देख सकता हूँ छुटि्टयों की कुनमुन
गली में क्रिकेट खेलते
आउट और नो बॉल का हुड्दंग मचाते बच्चों को
साइकिल पर रेस लगाती खिलखिलाती लड़कियों को
स्कूल कैम्पिंग से लौट कर आती हुई बस की खिडकी से मुँह चिढाता
बेसुरे गाने गाता हुआ बचपन
मुझे टैफिक सिगनल पर छेडता है
वापस आओगे ?
कैसे जा सकता है कोई पलट कर
अब जबकि हम ऑफिस के ए सी में कैद हैं
और उस पुराने खुर्राट कूलर का गुर्राना
और खस की खुसबू वाले पानी की छींक
बहुत पीछे छूट गए हैं
अब जब दोपहर का काटना कोई खास मायने नहीं रखता
क्योंकि न किसी फुटबॉल, कैरम बोर्ड
या पुरानी कॉमिक्स उधार पर देने वाले उस अधेड आदमी को हमारा इंतजार है
अच्छे आम तो दूर इस शहर में कच्चे आम भी मुश्किल से मिलते हैं
पसीना अब निकलता है तो खुशी नहीं होती
हर बूंद सवाल करती है मैं क्यों निकली
और हवा में मौजूद दहक से मैं पूछता हूँ
क्या तुम मुझे फिर वैसे नहीं छू सकती
हॉं, किसी दुर्लभ छुट्टी में
जो पहले सा नहीं रह गया
उस आलस के बगल में लेट कर सुनने की कोशिश करता हूँ तो
एक आवाज तरस खा लेती है मुझ पर
कबाडी वाला
वैसे, गर्मियां मुझे अब अच्छी नहीं लगतीं.
3 comments:
Chhutiyan to ab bhi bahut mil jaati hain par ek chhuthi sirf khud par kharch karne ke liye aaj nahi milti...harsh ki yeh kavita is umas bhari dopahar mein ek thandi hawa ki tarah aayi hai.
Sundar!
अच्छी रचना है
मनभावन !
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