पत्रकार के रूप में 37 साल की नौकरी के बाद 30 जून को मैं औपचारिक रूप से रिटायर हो गया. अगस्त 1977 में ‘स्वतंत्र भारत’, लखनऊ से यह सिलसिला शुरु हुआ था जहां से ‘नव भारत टाइम्स’, फिर वापस ‘स्वतंत्र भारत’, उसके बाद एक साल ‘दैनिक जागरण’ और पिछले 15 वर्ष ‘हिंदुस्तान’ में बीते. छह महीने के लिए कानपुर और दो साल के लिए पटना का कार्यकाल छोड़ कर सारा समय लखनऊ में ही तैनात रहा. दिल्ली-मुम्बई समेत दूसरे शहरों में जाने से यह संकोची पहाड़ी बचता, बल्कि भागता ही रहा लेकिन लखनऊ में ही कुछ कम नहीं मिला.
एमए-हैमे करके पहाड़ लौट कर मास्टर बनने की ख्वाहिश थी.
संयोग कि पढ़ाई के दौरान ही पत्रकार बन गया और इसी में रम गया मगर कभी पछतावा नहीं हुआ.
हां, पहाड़ न लौट पाने का मलाल बना हुआ है.
छात्र जीवन में छिट-पुट लिखने की कोशिश करते इस युवक को
ठाकुर प्रसाद सिंह और राजेश शर्मा ने बहुत प्रेरित और उत्साहित किया. अशोक जी पहले
सम्पादक और पत्रकारिता के गुरु मिले. उन्होंने खूब रगड़ा-सिखाया. नई पीढ़ी अशोक जी
के बारे में शायद ही जानती हो.
वे दैनिक ‘संसार’ में पराड़कर जी के संगी रहे और उन ही की
परम्परा के और विद्वान सम्पादक थे. उन्होंने हिंदी टेलीप्रिण्टर के की-बोर्ड को
तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई थी,
हिंदी में क्रिकेट कमेण्ट्री की शुरुआत की थी और भारत सरकार के प्रकाशन विभाग
में रहते हुए हिंदी में तकनीकी शब्द कोशों के विकास का मार्ग प्रशस्त किया था. फिर
राजेंद्र माथुर मिले जिनके मन में आधुनिक हिंदी पत्रकारिता का विराट स्वप्न (विजन)
था और ज़ुनून भी जिसे वे अपनी टीम के नवयुवकों के साथ शायद ज़्यादा बांटते थे. 1983
में ‘नव भारत टाइम्स’ का लखनऊ संस्करण शुरू करते वक़्त
पत्रकारों की भर्ती के लिए जो विज्ञापन उन्होंने खुद लिखा था उसके शब्द आज भी
दिमाग में गूंजते हैं- “…वे ही युवा आवेदन करें जो स्फटिक-सी
भाषा लिख सकें और जिन्हें खबरों की सुदूर गंध भी उत्साह और सनसनी से भर देती हो.”
(नई पीढ़ी के पत्रकार और पत्रकारिता के छात्र गौर फरमाएं )
आज जब मीडिया में भाषा ही सबसे ज़्यादा तिरस्कृत हो रही हो तो अशोक
जी और राजेंद्र माथुर बहुत याद आते हैं. यहां मृणाल (पाण्डे) जी का भी ज़िक्र करना
चाहूंगा जिनके साथ अखबार की भाषा (चंद्रबिंदु को लौटा लाने तक
की कवायद) पर काम करने से लेकर रचनात्मक और सार्थक पत्रकारिता के सुखद अवसर भी मिले.
पिछले 15 वर्ष ‘हिंदुस्तान’ में अत्यंत
चुनौती भरे, उत्साह पूर्ण और बहुत कुछ सीखने-सिखाने वाले रहे.
यह ऐतिहासिक अखबार जो (बिहार को छोड़कर) गिनती में भी कहीं नहीं था, आज हिंदी के अग्रणी पत्रों में शामिल है. इसमें सम्पादकों से लेकर कुशल प्रबंधकों
की एक बड़ी टीम का योगदान है. गर्व रहेगा कि मैं भी इस टीम में शामिल रहा.
अपनी 37 वर्षों की पत्रकारिता में मीडिया संस्थानों का
स्वरूप बदलते करीब से देखा. सम्पादकों-पत्रकारों की प्राथमिकताएं और सफलता के पैमाने
बदलते देखे. लम्बी गाथा है यह लेकिन संतोष है कि सम्पूर्णता में भारतीय पत्रकारिता
आज भी अपना फर्ज़ निभा ले जाती है और संवेदनशील मानवीय मुद्दों के लिए हाशिए भी बचे
हुए हैं.
मेरे लिए यह कम आह्लाद की बात नहीं है कि अपने सभी सम्पादकों
और प्रबंधन से मुझे बहुत स्नेह और सम्मान मिला. सबसे महत्वपूर्ण हासिल वे सहयोगी हैं
जो इस दौरान मिले-बिछुड़े और जिनसे बहुत कुछ सीखा और गुस्सा व प्यार पाया. कुछ के
साथ गाढ़ी दोस्ती हुई और पारिवारिक रिश्ते भी बने. स्वाभाविक है कि गिले-शिकवे भी
बहुतों को होंगे और रहेंगे. चूंकि मैं सिर्फ एक नौकरी से रिटायर हुआ हूँ, इसलिए
मेरे मन में उनकी जगह वैसी ही बनी रहेगी. मेरे बारे में क्या-कैसा सोचना या न
सोचना पूरी तरह उनका विशेषाधिकार है.
सभी का शुक्रिया.
-
नवीन जोशी, लखनऊ, 2 जुलाई, 2014
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