चंद रोज़ पहले की खबर है कि व्यापारी नेता बनवारी
लाल कंछल को अदालत ने फरार घोषित करके उनके नाम गैर जमानती वारण्ट भी जारी किया है।
कंछल साहेब को खुले आम राजधानी में घूमते देखा जा सकता है। वे अक्सर सार्वजनिक समारोहों
में शामिल हो रहे हैं जहां वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी मौजूद रहते हैं और उनको सलाम
बजाते हैं। उनके खिलाफ फ़रारी का आदेश और गिरफ्तारी का वारण्ट किसी सामान्य से
मुकदमे में कई बार बुलाए जाने के बावजूद अदालत में हाजिर नहीं होने के कारण जारी
किया गया है। यह मुकदमा पिछले करीब 17 वर्ष से चल रहा है और उन्होंने कभी अदालत
में पेश होने की या जमानत करा लेने की ज़रूरत नहीं समझी। ऐसा ही एक मामला समाजवादी
पार्टी के विधायक रविदास मेहरोत्रा का था जो करीब 25 वर्ष से अदालती नोटिसों और वारण्ट
के बावजूद अदालत में हाजिर नहीं हुए थे। इसलिए अदालत को मजबूर होकर उन्हें फरार
घोषित करते हुए गैर जमानती वारण्ट निकालना पड़ा था। तब कहीं जाकर रविदास महरोत्रा
ने अदालत में पेशी दी और जमानत करवाई थी। यह अभी चंद महीने पहले की बात है।
कंछल और मेहरोत्रा किसी भी रूप में अपराधी नहीं
हैं। कंछल वर्षों से व्यापारियों की राजनीति कर रहे हैं और आंदोलनों में जेल जाते
रहे हैं और इस कारण उन पर मुकदमे भी हुए तो आश्चर्य नहीं। (उनकी अपनी राजनीतिक
महत्वाकांक्षाएँ भी है जिसके लिए वे अवसरानुकूल राजीतिक पार्टियां बदलते रहते हैं, यह अलग बात है) रविदास मेहरोत्रा लखनऊ विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति
में खूब सक्रिय रहे हैं और पिछले कोई चालीस बरस से राजधानी लखनऊ में विविध
धरना-प्रदर्शनों-गिरफ्तारियों में शामिल रहे हैं। उनका दावा है कि जेल जाने का
कीर्तिमान उन ही के नाम है। सो, उनके खिलाफ मुकदमे होना
स्वाभाविक ही है।
कंछल और रविदास यहाँ सिर्फ दो उदाहरण हैं। सवाल यह
है कि सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सक्रिय ये नेता बरसों-बरस अदालती नोटिसों
और वारण्ट की भी जानबूझ कर अनदेखी क्यों करते हैं? ये
सामान्य से मुकदमे होते हैं जिनमें खुद अदालत में पेश होने की जरूरत नहीं होती.
आपका वकील ही सारी औपचारिकता पूरी कर देता है,
व्यक्तिगत पेशी से छूट दिला देता है और ज़रूरत पड़ने पर जमानत भी करा लेता है। फिर
ऐसा क्यों होता है कि कंछल 17 वर्ष और रविदास उससे भी कई बरस ज़्यादा अदालती फरमान
का संज्ञान ही नहीं लेते और फरार घोषित किए जाने के बावजूद उनके चहरे पर शिकन तक
नहीं आती?
इसका सच यह है कि हमारे देश में नेता नाम के जीवों
को नियम-कानून नाम की चिड़िया से ही बहुत नफरत है और यह कई-कई रूपों में प्रकट होता
है। इस देश में यह अकल्पनीय है कि किसी नेता की गाड़ी चौराहे की लालबत्ती पर
नियमानुसार ठहर जाए लेकिन यह दृश्य बहुत आम हैं कि नियमानुसार वाहन के कागजात
दिखाने को कहने या सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक गाड़ियों के शीशों से गाढ़ी
काली फिल्म उतारने या नियम तोड़ने पर चालान करने वाले किसी सिपाही या बड़े पुलिस
अधिकारी को नेता छाप लोग धमकाएँ या निलंबन और ट्रांसफर कराते मिलें। यहाँ नियम का
पालन करना तौहीन मानी जाती है। इसलिए डंके की चोट पर नियम तोड़ने वाला बड़ा और
रौबदार माना जाता है। जो नियम माने और कानून से डरे वह बेचारा और गऊ छाप समझा जाता
है। तभी तो छुटभय्ये लोग नियम तोड़ना नेता बनने की पहली सीढ़ी मानते हैं।
तकलीफदेह बात यह है कि नियम-कानून का पालन कराने
वाली पुलिस को खुद इस विसंगति पर कोई क्षोभ नहीं होता, बल्कि वह स्वयं नियम-कानून तोड़ने वाले नेताओं की सुरक्षा में लगी होती है।
कंछल के प्रकरण में जब लखनऊ के एसएसपी से पूछा गया तो उनका जवाब था कि अभी उन्हें
कोर्ट का आदेश नहीं मिला है और न ही आदेश की जानकारी है। रविदास के मामले में तो
इधर गिरफ्तारी का आदेश था और उधर पुलिस के आला अफसर तक उनके बेटे की शादी की दावत
में मेहमानों संग मेजबान को भी फर्सी सलाम बजा रहे थे।
यह हमारे नेताओं की ही महिमा है कि कानून-व्यवस्था
की रखवाली करने के लिए बनी पुलिस ठीक उलटी भूमिका में दिखाई देती है। वह निरीह और लुटती-पिटती
जनता की रक्षा में तैनात नहीं दिखाई देती लेकिन पहले से सी बहुत सुरक्षित नेताओं
को जाने किस खतरे से बचाने के लिए मजबूत सुरक्षा घेरा बनाए चलती है। जिन दिनों
प्रदेश विधान सभा का सत्र चलता है उन दिनों पूर्वाह्न करीब ग्यारह बजे विधान भवन में
जाते विधायकों के काफिले देख लीजिए। उनकी सरकारी और निजी सुरक्षा बलों की फौज आम
जनता को, महिलाओं और स्कूली बच्चों तक को ऐसे घुड़कती चलती है जैसे कि वे दुश्मन
हों! इसी रौब-दाब से हमारे नेताओं का खून बढ़ता है। तभी तो सुरक्षा दस्ता छिनते ही
जैसे उनके प्राण ही सूख जाते हैं।
यही वह बड़ी वजह भी है कि नेताओं, उनके बेटे-भतीजों और चमचों के अपराधों में शामिल होने के बावजूद पुलिस
उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं करती, बल्कि उनके बचाव में
पैतरेबाजी करती रहती है। आज प्रदेश की सपा सरकार कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर
विफलता के लिए जो ज़लालत झेल रही है, उसका मुख्य कारण भी यही
है कि न तो पुलिस में राजनीतिक संरक्षण प्राप्त अभियुक्तों को पकड़ने का मनोबल है
और न ही राजनीतिक नेतृत्व ने उसे इतनी स्वतन्त्रता दे रखी है।
नतीजा कुल मिला कर यह कि नियम-कानून नेताओं और
दबंगों के पैरों की ठोकर खाते लुढ़के पड़े हैं। सामान्य जनता ही है जो नियम-क़ानूनों से डरती है।
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