Saturday, January 24, 2015

ये चराग जल रहे हैं-2/ विद्या अवस्थी माने हमारी विद्या दी



रेणु की याद के साथ विद्या दी का चेहरा उभरा, हमारी विद्या दी! विद्या अवस्थी “हमारी” विद्या दी कब-कैसे बनी होंगी?

1971 में हाई स्कूल में पढ़ता था, तभी से उत्तरायण” के लिए कुमांऊनी कविता-कहानी लिखने लगा था. किसी शाम कार्यक्रम के बाद जिज्ञासु जी कहते- “विद्या के यहां चलोगे?” यह सवाल नहीं आदेश होता था. हम आकाशवाणी भवन के पीछे की गलियों से होकर क्ले स्क्वायर की न्यू हैवलक रोड कॉलोनी पहुंच जाते. वहां विद्या जी का, जिन्हें पता नहीं कब “दी” कहना शुरु किया होगा, मुस्कराता चेहरा सदा स्वागत को तत्पर मिलता. डा (विज्ञानी नीलाम्बर अवस्थी) साहेब ठेठ पिथौरागढ़ी कुमाऊंनी में आव-भगत करते और तीन प्यारी बच्चियां कमरे से निकल कर पैर छूना कभी नहीं भूलतीं.

धीरे-धीरे वह हमारा समय-असमय का अड्डा बन गया. कभी सिर्फ बच्चियां मिलती तो कभी डा साहेब खुद चाय बना लाते. विद्या दी ऑफिस से थकी-मांदी आतीं तो फिर चाय बनती. जिज्ञासु जी को विद्या के हाथ की चाय चाहिए ही चाहिए थी. तब हमें कभी यह महसूस नहीं हुआ कि दिन भर की थकी-मांदी विद्या दी को तनिक आराम की ज़रूरत है. वे कभी ऐसा महसूस ही नहीं होने देती थीं. तब भी नहीं जब वे रायबरेली या सीतापुर कहीं तैनात थीं और देर से घर पहुंचती. अपनी प्यारी मुस्कान लिए रसोई में जुट जातीं और हम अपनी गप्पें लिए उनके साथ रसोई में भी खड़े हो जाते.

रिश्तों में इतनी मिठास घुलती गई कि मिठाइयां और चाय की प्यालियों में घुली चीनी उसका क्या मुकाबला करेंगी! मुनमुन (दीप्ति) चुनमुन (तृप्ति ) और कुन्नू (ज्योति) का मैं मामा हो गया. सबसे छोटी कुन्नू तो लाड़ से गोद में ही चढ़ जाती और डा साहेब मज़ाक करते- “देखना, बेचारा नवीन पिचक न जाए!” पड़ोस में ही विद्या दी का मायका था. अक्सर उनकी ईजा, भाई, बहुएं और बच्चे भी चले आते. पूरा घर भर जाता और ऐसा जमावड़ा लगता कि हमें अपने घर लौटने की याद मुश्किल से आती.

1974 में जब “आंखर” का गठन हुआ तो विद्या दी का घर उसका दूसरा दफ्तर जैसा बन गया. कितनी बैठकें हमने वहां कीं. हर साल 16 अप्रैल को “आंखर” का जनमबार विद्या दी के घर की छत पर मनाया जाता. उनसे पूछने की ज़रूरत नहीं होती थी. बस, उन्हें फैसला सुना दिया जाता कि इस बार भी जनमबार आपके यहां मनेगा. आज सोचता हूं, कभी तो कोई दिक्कत-परेशानी-व्यस्तता रहती होगी मगर मज़ाल है जो कभी हमें महसूस होने दिया हो. दोनों की ज़िम्मेदारी वाली नौकरियां थी, बच्चियों की पढ़ाई थी मगर पूरा परिवार घर के आयोजन की तरह जुट जाता.

वक़्त अपनी रफ्तार भागता रहा. “आंखर” बिखर गया और मुलाकातें कम हो गईं मगर रिश्तों की ऊष्मा वैसी ही बनी रही. बच्चे बड़े हुए, शादियां हुई, डा साहेब और विद्या दी रिटायर हो गए. कभी लखनऊ रहते, कभी चुनमुन के साथ अमेरिका. फिर कोई दो साल पहले अचानक पता चला कि विद्या दी को कोई लाइलाज बीमारी हो गई है और वे कल्याणपुर में अपने देवर (वे सबके आन्चा यानी आनंद चाचा कहाते हैं) के यहां पड़ी है. मैं और लता मिलने गए. डा साहेब ने कहा- “देखो विद्या, तुमसे मिलने कौन आया है!”

बिस्तर पर पड़ी विद्या दी की गरदन हौले से घूमी और हमें देखते ही उनकी आंखों में पहचान और पुराने रिश्तों की चमक जागी. वे बोल नहीं सकती थीं. बस, सुन सकती थीं और अंगुलियों से इशारे कर सकती थीं. उनके अंगों ने धीरे-धीरे काम करना बंद कर दिया था.
-“विद्या दी”- मैंने पुकारा तो उन्होंने मेरी एक अंगुली अपनी हथेली में कस कर पकड़ ली, जिसे हम ”प्याट्ट” पकड़ना कहते हैं, वैसे ही. इसी “प्याट्ट” पकड़ से हमारा आत्मीय सम्वाद हुआ, सारा सुख-दुख, लाड़-प्यार, शिकवे-शिकायतें, जाने क्या-क्या.

वे मेरी अंगुली पकड़े रहीं और डा साहेब सुनाते रहे- “जब नवीन की मूंछ की रेख भी नहीं फूटी थी, तब से हमारे घर आ रहा है... अब सब मिलने आ गए तुमसे, विद्या, सब से भेट हो गई तुम्हारी...” लता चलने का इशारा कर रही थी क्योंकि उसकी आंखें डबडबा आई थीं और गला रुंध रहा था. मैं अपने को किसी तरह सम्भाले रहा. डा साहेब सामान्य दिख रहे थे लेकिन समझा जा सकता था कि उनके भीतर क्या-कुछ नहीं चल रहा होगा. विद्या दी की आंखें नौले-सी डबडब थीं और दरवाजे तक हमारा पीछा करती रहीं. देहरी से कदम बाहर रखते हुए हमने देखा डा साहेब विद्या दी की आखें पोछ रहे थे.

फिर कुछ दिन बाद उनकी मौत की खबर आई. पिछले बरस बरसी भी हो गई. बरसी पर मैं मुनमुन से विद्या दी की रचनाओं का संकलन निकालने की बात कर रहा था और वह मुझे विद्या दी का लिखा और उन ही का गाया आखिरी भजन सुनाने में लगी थी जो अमेरिका में चलती गाड़ी में मोबाइल पर रिकॉर्ड किया गया था. हां, यह बताना तो मैं भूल ही गया कि विद्या दी हिंदी और कुमाऊनी में कविताएं, गीत, भजन और होलियां लिखती और गाती थीं. भाषा प्रांजल और गला मधुर था उनका. “उत्तरायण” और “आंखर” की कई लोक भाषा कवि गोष्ठियों में उन्होंने चारु चंद्र पाण्डे, गिर्दा, आदि के साथ कविताएं पढ़ी. उनका वह सुरीला स्वर अब भी कानों में गूंजता है.

कुन्नू अब जब भी मिलती है, कहती है- “नवीन मामा, ‘आंखर को फिर शुरू कीजिए....” लता की बांह पकड़ कर झकझोरती है- “लता मौसी, मामा से कहिए न...” फिर हंसती है- “पति मामा, पत्नी मौसी... ये हमारा कैसा रिश्ता है!”

, किसी व्याख्या की ज़रूरत नहीं. खून के तथाकथित रिश्तों का विधान होता होगा जिनमें अक्सर उष्मा नहीं होती. हमारे ये आत्मीय रिश्ते किसी विधान के मोहताज़ नहीं! इनकी जड़ों में मुहब्बत की वह गर्मी है जिसमें सब पिघल कर एक हो जाता है. (क्रमश:)

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