ठण्ढी रात के सन्नाटे में बिल्कुल अचानक मेरे कानों में जोर-जोर से एक पहचानी-सी आवाज में सम्मोहित कर देने वाला गायन गूंजने लगा- “सल्लाम
वाले कुम. त्यारा वे गौड़ गाजिना, सल्लाम वाले कुम.
म्यारा मियां रतना गाज़ी, सल्लाम वाले कुम.
तेरी वो बीवी फातिमा, सल्लाम वाले कुम...” और अचम्भित मैं गाने वाले को इधर-उधर खोजता रह गया.
तभी आंखों के सामने गाने वाले का चेहरा दिखा, धुंधला-सा. "ओ हो, केशव अनुरागी जी! कैसे हो आप? आज कहां से यहां?" वे जवाब देने की बजाय गाते रहे- "तेरी वो बीवी फातिमा, सल्लाम वाले कुम..."
फिर वह छाया-सा चेहरा भी गायब हो गया. बस, कमरे में गूंजती रही आवाज़- 'सल्लाम वाले कुम..."
तभी आंखों के सामने गाने वाले का चेहरा दिखा, धुंधला-सा. "ओ हो, केशव अनुरागी जी! कैसे हो आप? आज कहां से यहां?" वे जवाब देने की बजाय गाते रहे- "तेरी वो बीवी फातिमा, सल्लाम वाले कुम..."
फिर वह छाया-सा चेहरा भी गायब हो गया. बस, कमरे में गूंजती रही आवाज़- 'सल्लाम वाले कुम..."
1980 के आसपास कभी अनुरागी जी से भेंट हुई थी. वहीं
आकाशवाणी, लखनऊ में जो अपना सांस्कृतिक स्कूल और अड्डा था. अनुरागी जी
संगीत विभाग के पैक्स अर्थात कार्यक्रम अधिकारी बन कर आए थे. संगीत उनकी रग-रग में
था, उनके हंसने और रोने में था. हां, सचमुच!
वे इतना डूब कर गाते थे कि रोने लगते थे.
धीरे-धीरे जाना मैंने कि गायन तो उनकी अद्वितीय प्रतिभा का
अंश भर था. ‘ढोल सागर’ की उनकी समझ उल्लेखनीय थी. इस
शास्त्र को जितना उन्होंने समझा उतना शायद और किसी ने नहीं. वे उस पर अपनी खास समझ
के आधार पर काम करना चाहते थे. शोध. बस, वे सोचते ही रहे. तो भी एक काम
उन्होंने ऐतिहासिक किया. कई गढ़वाली लोक गीतों की
स्वर लिपियां बनाई और उनका लोक-शास्त्रीय अध्ययन किया. यह काम लोक को दस्तावेज़ी शास्त्र
का दर्ज़ा देने जैसा है.
मैं उनके पीछे पड़ा रहता- ‘अनुरागी जी, अपना काम पूरा करिए. ढोल सागर पर काम होना ही चाहिए.’ वे गरदन हिलाते और ‘हां-हां’
कह कर टाल जाते. उनके मुंह में हमेशा ही पान का बीड़ा भरा रहता और अक्सर वे घुटकी
भी लगाए रहते. मैं उनके घर जाने की ज़िद करता, वे टाल जाते,
बहाना बनाते. एक बार मैं ज़िद करके उनके घर पहुंच गया. वे अत्यंत
सादगी से रहते थे और खूब अव्यवस्थित भी. मेरी रट थी कि आप ढोल सागर पर लिखो,
दिक्कत हो तो आप बोलो और मैं लिखता चलूंगा. मेरी ज़िद देख कर
उन्होंने एक बक्से से निकाल कर करीब 40-50 पन्ने मुझे पकड़ा दिए. मुझे अपने घर से ज़ल्दी
चलता करने के लिए ही शायद. टाइप किए हुए पन्ने.
घर आकर मैंने वे पन्ने पढ़े तो चकित रह गया. संगीत में
मेरी कोई गति नहीं लेकिन इतना तो समझ ही गया कि यह ऐतिहासिक महत्व का काम है. उन
पन्नों में गढ़वाली लोक गीतों की स्वर लिपियां थीं, उनकी संरचना पर
विद्वतापूर्ण टिप्पणियां, शास्त्रीय धुनों पर लोक धुनों का
प्रभाव, आदि-आदि. बाद में पता चला उनमें कुछ गीत ठेठ लोक धुनों
पर खुद अनुरागी जी के रचे हुए थे. उस काम को और आगे बढ़ाना था. वह बहुत बहुत
महत्वपूर्ण किताब बन जाती. मैं हर मुलाकात में यही रट लगाता और वे टालने में
माहिर. मैंने उन पर दवाब बनाने को ही उन पन्नों का एक छोटा हिस्सा ‘नैनीताल समाचार’ में छपवा दिया और साथ में टिप्पणी
भी लिखी- ‘अपने बुज़ुर्गों को डांट’. अनुरागी
जी को दिखाया तो वे फीकी-सी हंसी हंस दिए. क्या उनके अंदर कोई कुंठा थी?
अनुरागी जी ने वह काम भी आगे नहीं बढ़ाया, हालांकि
उतना हिस्सा भी ठीक-ठाक किताब बनती थी. मैंने उसे छपवाने की कोशिश की लेकिन उस काम
के कद्रदां ही कितने थे? बाद में शिवानंद नौटियाल जी के
प्रयास से उत्तर प्रदेश संगीत-नाटक अकादमी ने उस पुस्तक के प्रकाशन हेतु पांच हज़ार
रु. की सहायता दी और नौटियाल जी ने विश्व प्रकाशन से इसे छपवाया. किताब का नाम
अनुरागी जी ही का दिया हुआ रखा गया- “नाद नंदिनी.” उसकी भूमिका कुमार गंधर्व ने
बहुत गद-गद हो कर लिखी है. शिवानंद जी ने भी किताब में अनुरागी जी और उनकी प्रतिभा पर जानकारीपरक
लेख लिखा. लेकिन तब अनुरागी जी अपनी किताब को छपा देखने के लिए जीवित नहीं थे. पता
नहीं “नाद-नंदिनी” की कितनी प्रतियां छपी होंगी और कहां धूल खा रही होंगी. नौटियाल
जी से एक प्रति मैं झटक लाया था, बस.
हां, अनुरागी जी में कुंठाएं थीं और उनका कारण
हमारा यह समाज है. वे गढ़वाल के एक गरीब-दलित परिवार में जन्मे थे. बाजगी परिवार में,
जिन्हें ढोल बजाने के लिए तो मंदिरों से लेकर घरों तक बुलाया जाता
था लेकिन उनके हिस्से में अनाज के कुछ दाने और अपमान व तिरस्कार ही आते थे. अनुरागी
जी ने बचपन ही से इस अपमान के बदले ढोल को इस तरह बजाया कि उसे पी लिया, उसे घोट लिया, वे उसके तालों-स्वरों में समा गए. ढोल
से उन्होंने मुहब्बत की और उसी से अपना विद्रोह भी गुंजायमान किया. मंगलेश डबराल
ने उन पर जो बहुत मार्के की कविता लिखी है उसमें यूं ही नहीं कहा है कि ‘केशव अनुरागी ढोल के भीतर रहता है.’ ढोल के भीतर
उनका अपना राज था जहां कोई अपमान, कोई सामाजिक उपेक्षा और
कटूक्तियां नहीं थी. वहां सुरों, तालों और धुनों की परम
मानवीय दुनिया थी. वहां सिर्फ संगीत था जो मनुष्यों में कोई भेद करना नहीं जानता.
जब वे ‘उत्तरायण’ के पैक्स
बनाए गए तो जिज्ञासु जी के आग्रह पर उन्होंने कुमाऊंनी-गढ़वाली गीत गाने वाली
लड़कियों को लोक धुनें सिखाना शुरू किया. ‘ग्वीराला फूल फुलि
गे मेरा भिना, ग्वीराला लयड़ी फुलि गे...’ गीत की मौलिक लोक धुन सिखाते-सिखाते वे खुद गाने
लगते और जब लड़कियां सही स्वर पकड़ लेतीं तो वे हारमोनियम को ढोल बना लेते और रोने लगते.
आंखों से जार-जार आंसू बहते. लड़कियां हंसने लगतीं तो वे उनके सिर में हौले से टीप
मारते.... हां, उनमें रेणु भी होती थी. उन दिनों ‘आंखर’ के कई कार्यक्रमों के लिए उन्होंने गायकों को
रिहर्सल कराई और खुद भी मंच से गाया.
गज़ब होती थी उनकी तान, आरोह-अवरोह. क्या गला था उनका! जब वे गाते-
‘रिद्धि को सुमिरूं, सिद्धि को
सुमिरों, सुमिरों शारदा माई...’ तो
हवा थम जाती और उसमें अनुरागी जी के स्वरों की विविध लहरियां उठने-गिरने लगतीं.
बायां हाथ कान में लगा कर वे दाहिने हाथ को दूर कहीं अंतरिक्ष की तरफ खींचते और
चढ़ती तान के साथ खुली हथेली से चक्का-सा चलाते, गोया निर्वात
में पेण्टिंग बना रहे हों. मंद्र सप्तक से स्वर उठा कर जाने कब वे तार सप्तक जा पहुंचते
और वहां कुछ देर विचरण करने के बाद कब वापस मंद्र तक आ जाते, पता ही नहीं चलता था. तब वे अपने ढोल के भीतर होते थे और बाकी दुनिया
बाहर.... वे हमारे कुमार गंधर्व थे. हां, सचमुच, वे मालवा (मध्य प्रदेश)
के उस महान गायक से कभी अनौपचारिक-सी दीक्षा ले आये थे लेकिन इस बारे में बात करने
पर हंस देते थे. यह सच है कि कुमार गंधर्व उनकी प्रतिभा से अच्छी तरह परिचित थे.
“नाद नंदिनी” की उनकी भूमिका से यह स्पष्ट है.
गिर्दा जब कभी लखनऊ आते तो दोनों की गज़ब की छनती. सुर-ताल, गायकी
और वाद्य के साथ ‘यही है हुसेनगंज का असली..’ यानी मधुशाला तक. ‘सल्लाम वाले कुम...’ का दीवाना था गिर्दा. बात-बात में टेर देता- ‘तेरी
वो बीवी फातिमा...’ और अनुरागी जी ढोल के भीतर से गमकते- ‘सल्लाम वाले कुम.’ “सल्लाम” गाने का उनका तरीका
अनोखा ही था.
कुछ वर्ष बाद अनुरागी जी प्रोन्नति पर आकाशवाणी, नज़ीबाबाद
चले गए. उसके बाद एक-दो मुलाकातें ही हो पाईं. सुनता कि उनकी घुटकियां बहुत बढ़ गईं
थीं. फिर एक दिन वे ढोल के भीतर ऐसे गए कि वहां से कभी वापस नहीं निकले.
हां, बजाने वाला कायदे का हो तो ढोल आज भी अनुरागी जी के स्वर में गमकते
हैं. (क्रमश:)
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