उन्हें कोई कहता था ‘जगधारी जी’, कोई ‘जगाधरी जी’ और मैं भी शुरू-शुरू
में समझ नहीं पाया था कि यह कैसा नाम है. उनसे पूछने का सवाल ही नहीं उठता
था क्योंकि वे बहुत ‘रिजर्व’ रहते थे. झक सफेद सूती पैण्ट और कमीज़, आम तौर
पर खादी के, और एक हाथ में कोई किताब उनकी बहुत जानी–पहचानी छवि है.
आकाशवाणी, लखनऊ के “उत्तरायण” एकांश में जिज्ञासु जी की कुर्सी के साथ वाली
मेज़-कुर्सी पर उन्हें बैठे देखा करता था. जब जिज्ञासु जी को
कुमांऊनी-गढ़वाली के रचनाकार घेरे रहते तब भी वे या तो कुछ लिखते या किसी
किताब में खोए रहते. पौने छह बजते-बजते वे स्टूडियो पहुंच जाते और “दद्दा
वीर सिंह” बन कर “भुला शिवानंद” बने जिज्ञासु जी के साथ “उत्तरायण” की
कम्पीयरिंग करते. पौने सात बजे स्टूडियो से निकल कर अकेले ही पैदल चल देते.
कई बार तो वे 3-4 मिनट की शुरुआती कम्पीयरिंग करके ही चले जाते थे. उनके
हाथ की किताबें मेरी उत्सुकता का केंद्र रहतीं लेकिन हमारे बीच ‘नमस्ते’’
शुरू हो जाने के बावज़ूद वे काफी समय तक मेरे लिए रहस्यमय बने रहे.
फिर एक दिन सहसा रहस्य का पर्दा गिर गया. रघुवीर सहाय के सम्पादन में निकलने वाले ”दिनमान” और उसकी प्रखर पत्रकारिता का मैं दीवाना था और हर सप्ताह कॉफी हाउस के फुटपाथ पर लगने वाली दुकान से बिना नागा दिनमान खरीद कर चाटा करता था. उस रोज़ दिनमान के नए अंक में जीत जरधारी के नाम से एक टिप्पणी छपी थी- सम्भवत: डा दीवान सिंह भाकूनी को डा. शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार मिलने पर. यह टिप्पणी देखकर दो बातें साफ हो गईं थीं. एक तो यह कि उनका सही नाम जीत जरधारी है और दूसरा यह कि वे खूब पढ़ने वाले ही नहीं, अच्छा लिखने वाले भी हैं. ‘दिनमान’ में छपना उन दिनों प्रतिष्ठा और स्तर का प्रमाण पत्र था. अगली मुलाकात में मैंने जरधारी जी से कहा कि मैंने ‘दिनमान’ में आपकी टिप्पणी पढ़ी है.
-“अच्छा, दिनमान पढ़ते हो?” उन्होंने खुश हो कर पूछा- “क्या करते हो?’ मैं तब इण्टर की पढ़ाई कर रहा था और यदा-कदा पत्र-पत्रिकाओं में लिखने लगा था. उस दिन से हमारी बातचीत का सिलसिला शुरु हुआ. अपने बारे में वे कभी कोई बात नहीं करते थे लेकिन धीरे-धीरे मुझे पता चलता रहा कि 1940 के दशक में टिहरी राजशाही के खिलाफ चले प्रजा मण्डल आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था. यह आंदोलन राजशाही, उसके द्वारा पोषित भद्र लोक और इनके द्वारा आम जन के शोषण, बेगार, आदि के खिलाफ था. इसी आंदोलन में गिरफ्तार श्रीदेव सुमन जेल में ऐतिहासिक भूख हड़ताल के बाद शहीद हुए थे. जरधारी जी ने भी इसी आंदोलन में कुछ दिन जेल काटी थी. मूलत: वे पत्रकार थे और देहरादून, टिहरी, नरेद्र नगर, हरिद्वार, वगैरह से उन्होंने कई अखबारों के लिए लिखा. पत्रकारिता के कारण ही, और अपने साफ-शफ्फाक़ उच्चारण के लिए भी, वे 1962 में आकाशवाणी से शुरू हुए “उत्तरायण” कार्यक्रम के उद्घोषक के रूप में चुने गए.
खानदान के लिहाज़ से उनका नाम जीत सिंह नेगी होना था लेकिन, जैसा कि उनकी बेटी रमा बताती है, माता ने उन्हें गांव के नाम पर ‘जरधारी’ कहा क्योंकि इस सबसे बड़ी संतान का जन्म काफी समय बाद और बड़ी मान्यताओं के उपरांत हुआ था जो अपने पीछे चार और भाई लाया. बहरहाल, ‘दिनमान’ प्रसंग के बाद मेरी उनसे विविध विषयों पर बातें होने लगीं. पत्र-पत्रिकाओं में छपे मेरे लेख पढ़कर वे मुझे मेरी कमजोरियां बताने और सिखाने लगे. मेरे पत्रकार बन जाने के बाद उनसे मेरा रिश्ता प्रगाढ़ हुआ.
रंगमंच में उनकी बहुत दिलचस्पी थी, खास कर बाल रंगमंच में, जिसके लिए वे बहुत कुछ करना चाहते थे. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का लिखा बाल नाटक “लाख की नाक” का निर्देशन उन्होंने किया था. वे राज बिसारिया के साथ “टॉ” से और शशांक बहुगुणा के साथ “लक्रीस” से भी जुड़े रहे. 1974 में “शिखर संगम” के लिए दो गढ़वाली नाटकों का निर्देशन उन्होंने किया था- “एकीकरण” और “खाडू लापता”. मुझ युवा के लिए वह बहुत मज़ेदार अनुभव था. मैं “शिखर संगम” से घनिष्ठ रूप में जुड़ा था और “एकीकरण” के पूर्वाभ्यास के साथ ही कुमांऊनी नाटक “मी यो गेयूं, मी यो सटक्यूं” की रिहर्सल में भी जाया करता था, जिसका निर्देशन नंद कुमार उप्रेती जी कर रहे थे. क्या अद्भुत ‘कंट्रास्ट” मुझे देखने को मिला. एक तरफ जरधारी जी की रंगमंच की बारीक समझ और गम्भीरता थी और दूसरी तरफ नंद कुमार जी का निर्मल और मौलिक भदेसपन. उप्रेती जी पात्रों से अपने ही जैसा ठेठ कुमांऊनी उच्चारण और सबसे अपने ही ढंग का अभिनय चाहते थे. वे हर पात्र को खुद अभिनय करके दिखाते थे कि “यस कर यार”, जिससे सभी कलाकार हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते. उधर जरधारी जी थे जो सभी कलाकारों को पूरी आज़ादी और प्रयोग करने की स्वतंत्रता देते थे. परिवार के मामले में भी वह बहुत उदार थे. ठेठ गढ़वाली घरैतिन को वे बदल नहीं सकते थे लेकिन बच्चों को, खासकर तीनों बेटियों को उन्होंने बहुत आज़ादी दी और चेतना सम्पन्न बनाया. रमा गवाह है जो अब रमा अरुण त्रिवेदी के नाम से आकाशवाणी और दूरदर्शन के लिए महत्वपूर्ण काम करने के अलावा रंगमंच और सार्वजनिक जीवन में भी खूब सक्रिय है.
आकाशवाणी से रिटायर होने के बाद जरधारी जी का इरादा देहरादून वाले पुश्तैनी घर में जा बसने और खूब पढ़ने-लिखने का था. इसीलिए इतने वर्ष लखनऊ में नौकरी करने के बावज़ूद उन्होंने यहां अपना मकान बनाने की नहीं सोची मगर नियति ने कुछ और ही रच रखा था. एक दिन सहकारिता विभाग के सभागार में किसी कार्यक्रम में उनसे भेंट हुई. वहां डा एम सी पंत भी मौज़ूद थे. जरधारी जी ने डा पंत से कहा- मेरे गले में कुछ अटकता-सा है आजकल. दिखाना चाहता हूं. डा पंत तब मेडिकल कॉलेज में ही थे. उन्होंने जरधारी जी से मेडिकल कॉलेज आने को कहा.
गले में अटकता-सा वह कुछ क्रूर कैंसर निकला. कुछ दिन लखनऊ पी जी आई में इलाज कराने के बाद वे बेटे के पास दिल्ली चले गए. एम्स में इलाज़ के दौरान ही उनका किस्सा खत्म हो गया. सब कुछ इतनी ज़ल्दी हुआ कि हमें उनके निधन की खबर कई दिन बाद मिली.
कलफ़ लगे, इस्तरी किए झक सफेद खादी के कपड़ों वाले जरधारी जी अक्सर सामने आ खड़े होते हैं, आजकल पटना के मेरे एकांत में कुछ ज़्यादा ही, जैसे कह रहे हों कि- “नवीन, माधो सिंह भण्डारी पर तुम्हारा लेख अच्छा है लेकिन मलेथा की गूल कविता का हिंदी अनुवाद और चुस्त होना चाहिए था.”
-‘जी, जरधारी जी, कोशिश करुंगा.’ मैं कहता हूँ और वे मंद-मन्द मुस्कराते दिखते हैं.(क्रमश:)
फिर एक दिन सहसा रहस्य का पर्दा गिर गया. रघुवीर सहाय के सम्पादन में निकलने वाले ”दिनमान” और उसकी प्रखर पत्रकारिता का मैं दीवाना था और हर सप्ताह कॉफी हाउस के फुटपाथ पर लगने वाली दुकान से बिना नागा दिनमान खरीद कर चाटा करता था. उस रोज़ दिनमान के नए अंक में जीत जरधारी के नाम से एक टिप्पणी छपी थी- सम्भवत: डा दीवान सिंह भाकूनी को डा. शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार मिलने पर. यह टिप्पणी देखकर दो बातें साफ हो गईं थीं. एक तो यह कि उनका सही नाम जीत जरधारी है और दूसरा यह कि वे खूब पढ़ने वाले ही नहीं, अच्छा लिखने वाले भी हैं. ‘दिनमान’ में छपना उन दिनों प्रतिष्ठा और स्तर का प्रमाण पत्र था. अगली मुलाकात में मैंने जरधारी जी से कहा कि मैंने ‘दिनमान’ में आपकी टिप्पणी पढ़ी है.
-“अच्छा, दिनमान पढ़ते हो?” उन्होंने खुश हो कर पूछा- “क्या करते हो?’ मैं तब इण्टर की पढ़ाई कर रहा था और यदा-कदा पत्र-पत्रिकाओं में लिखने लगा था. उस दिन से हमारी बातचीत का सिलसिला शुरु हुआ. अपने बारे में वे कभी कोई बात नहीं करते थे लेकिन धीरे-धीरे मुझे पता चलता रहा कि 1940 के दशक में टिहरी राजशाही के खिलाफ चले प्रजा मण्डल आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था. यह आंदोलन राजशाही, उसके द्वारा पोषित भद्र लोक और इनके द्वारा आम जन के शोषण, बेगार, आदि के खिलाफ था. इसी आंदोलन में गिरफ्तार श्रीदेव सुमन जेल में ऐतिहासिक भूख हड़ताल के बाद शहीद हुए थे. जरधारी जी ने भी इसी आंदोलन में कुछ दिन जेल काटी थी. मूलत: वे पत्रकार थे और देहरादून, टिहरी, नरेद्र नगर, हरिद्वार, वगैरह से उन्होंने कई अखबारों के लिए लिखा. पत्रकारिता के कारण ही, और अपने साफ-शफ्फाक़ उच्चारण के लिए भी, वे 1962 में आकाशवाणी से शुरू हुए “उत्तरायण” कार्यक्रम के उद्घोषक के रूप में चुने गए.
खानदान के लिहाज़ से उनका नाम जीत सिंह नेगी होना था लेकिन, जैसा कि उनकी बेटी रमा बताती है, माता ने उन्हें गांव के नाम पर ‘जरधारी’ कहा क्योंकि इस सबसे बड़ी संतान का जन्म काफी समय बाद और बड़ी मान्यताओं के उपरांत हुआ था जो अपने पीछे चार और भाई लाया. बहरहाल, ‘दिनमान’ प्रसंग के बाद मेरी उनसे विविध विषयों पर बातें होने लगीं. पत्र-पत्रिकाओं में छपे मेरे लेख पढ़कर वे मुझे मेरी कमजोरियां बताने और सिखाने लगे. मेरे पत्रकार बन जाने के बाद उनसे मेरा रिश्ता प्रगाढ़ हुआ.
रंगमंच में उनकी बहुत दिलचस्पी थी, खास कर बाल रंगमंच में, जिसके लिए वे बहुत कुछ करना चाहते थे. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का लिखा बाल नाटक “लाख की नाक” का निर्देशन उन्होंने किया था. वे राज बिसारिया के साथ “टॉ” से और शशांक बहुगुणा के साथ “लक्रीस” से भी जुड़े रहे. 1974 में “शिखर संगम” के लिए दो गढ़वाली नाटकों का निर्देशन उन्होंने किया था- “एकीकरण” और “खाडू लापता”. मुझ युवा के लिए वह बहुत मज़ेदार अनुभव था. मैं “शिखर संगम” से घनिष्ठ रूप में जुड़ा था और “एकीकरण” के पूर्वाभ्यास के साथ ही कुमांऊनी नाटक “मी यो गेयूं, मी यो सटक्यूं” की रिहर्सल में भी जाया करता था, जिसका निर्देशन नंद कुमार उप्रेती जी कर रहे थे. क्या अद्भुत ‘कंट्रास्ट” मुझे देखने को मिला. एक तरफ जरधारी जी की रंगमंच की बारीक समझ और गम्भीरता थी और दूसरी तरफ नंद कुमार जी का निर्मल और मौलिक भदेसपन. उप्रेती जी पात्रों से अपने ही जैसा ठेठ कुमांऊनी उच्चारण और सबसे अपने ही ढंग का अभिनय चाहते थे. वे हर पात्र को खुद अभिनय करके दिखाते थे कि “यस कर यार”, जिससे सभी कलाकार हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते. उधर जरधारी जी थे जो सभी कलाकारों को पूरी आज़ादी और प्रयोग करने की स्वतंत्रता देते थे. परिवार के मामले में भी वह बहुत उदार थे. ठेठ गढ़वाली घरैतिन को वे बदल नहीं सकते थे लेकिन बच्चों को, खासकर तीनों बेटियों को उन्होंने बहुत आज़ादी दी और चेतना सम्पन्न बनाया. रमा गवाह है जो अब रमा अरुण त्रिवेदी के नाम से आकाशवाणी और दूरदर्शन के लिए महत्वपूर्ण काम करने के अलावा रंगमंच और सार्वजनिक जीवन में भी खूब सक्रिय है.
आकाशवाणी से रिटायर होने के बाद जरधारी जी का इरादा देहरादून वाले पुश्तैनी घर में जा बसने और खूब पढ़ने-लिखने का था. इसीलिए इतने वर्ष लखनऊ में नौकरी करने के बावज़ूद उन्होंने यहां अपना मकान बनाने की नहीं सोची मगर नियति ने कुछ और ही रच रखा था. एक दिन सहकारिता विभाग के सभागार में किसी कार्यक्रम में उनसे भेंट हुई. वहां डा एम सी पंत भी मौज़ूद थे. जरधारी जी ने डा पंत से कहा- मेरे गले में कुछ अटकता-सा है आजकल. दिखाना चाहता हूं. डा पंत तब मेडिकल कॉलेज में ही थे. उन्होंने जरधारी जी से मेडिकल कॉलेज आने को कहा.
गले में अटकता-सा वह कुछ क्रूर कैंसर निकला. कुछ दिन लखनऊ पी जी आई में इलाज कराने के बाद वे बेटे के पास दिल्ली चले गए. एम्स में इलाज़ के दौरान ही उनका किस्सा खत्म हो गया. सब कुछ इतनी ज़ल्दी हुआ कि हमें उनके निधन की खबर कई दिन बाद मिली.
कलफ़ लगे, इस्तरी किए झक सफेद खादी के कपड़ों वाले जरधारी जी अक्सर सामने आ खड़े होते हैं, आजकल पटना के मेरे एकांत में कुछ ज़्यादा ही, जैसे कह रहे हों कि- “नवीन, माधो सिंह भण्डारी पर तुम्हारा लेख अच्छा है लेकिन मलेथा की गूल कविता का हिंदी अनुवाद और चुस्त होना चाहिए था.”
-‘जी, जरधारी जी, कोशिश करुंगा.’ मैं कहता हूँ और वे मंद-मन्द मुस्कराते दिखते हैं.(क्रमश:)
No comments:
Post a Comment