“उत्तरायण” में एक –दो बार उन्हें देखा होगा जब कभी वे कुमाऊंनी वार्ता बांचने आतीं लेकिन ठीक से मुलाकात की याद “आंखर” बनने के बाद की है जब हम कुमाऊंनी नाटकों की रिहर्सल की जगह के लिए मारे-मारे फिरते थे. “मोटर रोड” की रिहर्सल होनी थी और जाड़े के दिन थे. मुरली नगर हरदा (हरीश चंद्र पंत) की छत पर अभ्यास शुरू किया तो ओस और ठंड से आधी टीम बीमार होने लगी. अब क्या हो?
एक-दो दिन के असमंजस के बाद नाटक में परुलि की भूमिका कर रही गुड्डी उर्फ लता ने कहा- रिहर्सल हमारे घर में होगी. नज़रबाग के लाल मकान के एक हिस्से का निचला तल्ला. कमरे कई पर परिवार उससे ज़्यादा बड़ा. बैठक के सोफे-सैटी आदि इधर-उधर खिसका कर रिहर्सल का हल्ला-गुल्ला शुरु हुआ. बैठक से लगे दरवाज़ों में लटके पर्दों के पीछे से पात्र एण्ट्री लेते. शास्त्री जी, योगाचार्य, बड़े नियम-धरम, संध्या-पूजा और अनुशासन वाले पं विद्यासागर जोशी तथा पढ़ने वाले विभिन्न-वय बच्चों से भरे उस घर में शाम को नाट्य दल की धमाचौकड़ी से क्या हाल होता होगा, कल्पना की जा सकती है. लेकिन यह अम्मा जी ही थीं जो बेटी के आग्रह पर न केवल घर में रिहर्सल करने की इज़ाज़त दे सकती थीं, बल्कि कहीं अंदर रसोई में खाना पकाते हुए नाटक के सम्वाद दोहरातीं या कभी-कभी किसी के गलत कुमांऊनी उच्चारण को हंसते हुए दुरुस्त करा दिया करती थीं.
अपनी बोली में नाटक करने, आलेख तैयार करने और पत्रिका निकालने का वह अज़ब ज़ुनूनी दौर था. 1980 में “आंखर” ने हिमांशु जोशी के उपन्यास ‘कगार की आग’ के कुमाऊंनी नाट्य रूपांतरण का मंचन किया. प्रदर्शन के 2-3 दिन बाद की बात होगी. मैं अपने ही में खोया नज़रबाग की गलियों से होता हुआ शंकरपुरी जा रहा था. अचानक किसी ने टोका- “ओहो, थोकदार ज्यू, कतु है रई तुमार दुकान में मुस?” चौंक कर देखा, सामने अम्मा जी खड़ी मुस्करा रही थीं- “भौत बढिया करौ तुम लोगनैल नाटक...” तब मैं समझा वे “कगारै आग” की तारीफ कर रही थीं जिसमें मैंने थोकदार की भूमिका की थी और दुकान में चूहों के आतंक का मनोरंजक संवाद जोड़ा था.
गोरा, गोल, चमकदार चेहरा और माथे पर इंगूर की खूब चौड़ी बिंदी. मुझे उनकी वह छवि हमेशा याद रहेगी. और हां, हाथ में बिनाई. उनके अभ्यस्त हाथों में बिनाई हमेशा ही रहती थी और कमाल यह कि वे रास्ते चलते पसंद आने पर किसी के भी स्वेटर की डिजायन पलक झपकते आंखों में उतार लेती जो शीघ्र ही परिवार में किसी के स्वेटर में दिखाई दे जाता. बाद में अम्मा जी से स्वेटर बिनवाने की हम में होड़ ही लग जाती थी. हम माने उनके दामाद!
हां, नाटकों में नहीं, नाटकों के दरम्यान साक्षात जीवन में मुझे उनका दामाद बनने का गौरव हासिल हुआ.
-“अरे, नज़रबाग हेमा का दामाद हुआ ये!”.
-“लाल मकान वाली हेमा?... अच्छा, गुड्डी का दूल्हा होगा ये!” कई बरस यह भी रहा मेरा परिचय. ध्यान दीजिए कि इसमें पं विद्या सागर जोशी का नाम नहीं है. ज्ञानी और योगी जोशी जी अपनी लगभग एकांतिक दुनिया में रमे रहे. परिवार, संस्कार और रिश्ते बनाए हेमा ने. निभाया भी उन्होंने ही और खूब. इसलिए लड़के-लड़कियां भी हेमा के हुए और बहुएं और दामाद भी!
अम्मा जी निपुण गृहस्थिन थीं और गज़ब की सामाजिक. चीनी मिट्टी के बड़े-बड़े मर्तबानों में भरे तरह-तरह के अचार, कभी भी उपयोग में आ सकने वाली चीज़ों का अद्भुत पिटारा, सीमित आय में बड़े परिवार को शान से पालने की द्रौपदी के अक्षय-पात्र जैसी चमत्कारिक क्षमता, लखनऊ भर में फैले बिरादरों-मित्रों से रिश्तों का समानुपातिक निर्वाह, रत्याली-होली-कीर्तन-आदि महफिलों में प्राण फूकने से लेकर काम-काज वाले घरों में शकुनाखर गाने, ऐपण डालने और स्वादिष्ट सिंगल पकाने तक, अम्मा जी हवा में टंगी रस्सी पर चलने वाली किसी नटनी के-से कौशल से ही सब साधा करती थीं. पं विद्या सागर जोशी जी के लिए एक निश्चित समय पर विधि-विधान से पकाए आहार की थाली सजाना अगर उनके लिए पावन कर्तव्य और पत्नी-धर्म था तो रत्याली या होली की बैठक में ढोलक बजाना, गाते-गाते किसी ननद या भाभी पर आशु छंद जोड़ना, और तरह-तरह के स्वांग करके महिलाओं की महफिल को लोटपोट कर देना भी उनके लिए कम महत्वपूर्ण सांस्कृतिक ज़िम्मेदारी नहीं थी. औरतें कहतीं- हेमा के बिना तो महफिल में जान ही नहीं आती. ताज़्ज़ुब होता है कि इतना सब कैसे निबाह लेती थीं वे.
अम्मा जी लखनऊ के पहाड़ियों के लिए समृद्ध सांस्कृतिक कोश भी थीं. उन्हें हर संस्कार के परम्परागत गीत, उनकी मौलिक धुनें, कुमाऊं (मूलत: अल्मोड़ा, दन्या के दीवानों के खानदान का रक्त उनकी रगों में बहता था)) के समस्त पर्व, रीति-रिवाज और विधि-विधान रटे हुए थे. और परम आश्चर्य की बात यह कि वे कुमाऊं में कभी रहीं ही नहीं, जहां यह सब सीखतीं. उनका जन्म नज़रबाग के उसी लाल मकान में हुआ था जहां उन्होंने अपनी आठ सन्तानों को जन्म दिया. शादी हुई उर्ग (पिथौरागढ़) के जोशियों के यहां जहां वे रंग्वाली पिछौड़े के लम्बे घूंघट पर मुकुट बांधे सिर्फ एक बार तभी गई थीं. बाकी का गवाह रहा नज़रबाग का वह लाल मकान जो उनकी पहचान का अभिन्न हिस्सा बना.
कहां से घोटा होगा उन्होंने कुमाऊं का सारा सांस्कृतिक कोश? दरअसल, उनकी गुरु थीं उनकी इजा. बित्ते भर की इजा में, जिसे सब नानी कहते थे, कुमाऊं का समस्त धार्मिक-सांस्कृतिक-जातीय भण्डार भरा हुआ था. कुमाऊं के किसी भी गांव का नाम लेने भर से वे उसके निवासियों का वंश-पुराण और रिश्तों की बेल बांच देतीं थी. नामकर्ण नानी का भी हुआ होगा (03 फरवरी, 2015 को अम्मा जी के पोते की शादी-पूर्व पूजा में पण्डित जी ने खोद-खोद कर नानी का नाम पता लगाया, बसंती देवी) लेकिन उनका नाम लोप हो चुका था. वे नानी थीं या इजा, बस. लेकिन उनकी दूसरे नम्बर की बेटी ने उनका ज्ञान कोश हासिल करने के साथ अपना नाम भी ग्रहण किया-
हेमलता यानी नज़रबाग लाल मकान वाली हेमा.
अब नज़रबाग का लाल मकान बचा है न उसकी नाम धारी हेमा.
दर असल, लाल मकान क्या छूटा, कई दुनियावी चीज़ों से अम्मा जी की पकड़ छूटनी शुरू हो गई थी. मुकदमेबाजी के एक अप्रिय प्रसंग के बाद जिस दिन अचानक वह मकान खाली करना पड़ा पीढ़ियों से संचित कई चीजें अम्मा जी की गृहस्थी से बाहर हो गईं. उस रोज़ परिवार के अभिन्न से भी अभिन्न अंग दद्दा और सदा सहायक पूरन मामा ने महानगर की सचिवालय कॉलोनी के जिस एक बेडरूम वाले फ्लैट का जुगाड़ किया उसमें वह बड़ा परिवार तो जैसे-तैसे सिर छुपा सकता था लेकिन उसमें अम्मा जी के पुराने संदूकों की जगह बनती थी न बड़े खानदानी बर्तनों की और अचार के वे विशाल मर्तबान फ्लैट की सीढ़ियों में सुरक्षित रह सकते थे क्या? अत्यंत व्यावहारिक अम्मा जी ने ऐसी कई बहुत प्रिय चीज़ों को अपने जीवन से बिना शिकवा किए बाहर हो जाने दिया लेकिन जब गले में उपजी एक गांठ के विकराल रूप धरने से विद्या सागर जी अचानक इस असार संसार को विदा कह गए तो अम्मा जी की भीतरी-बाहरी दुनिया में हालाडोला आ गया.
मुझे लगता है कि हिन्दी के बहुत अच्छे कवियों में शामिल कुमार अम्बुज ने “एक स्त्री पर कीजिए विश्वास” शीर्षक कविता जैसे अम्मा जी को देख कर ही लिखी हो- “जब ढह रही हों आस्थाएं/ और भटक रहे हों रास्ते/ तब एक स्त्री पर कीजिए विश्वास/ वह बताएगी सबसे छुपा कर रखा एक अनुभव/ अपने अंधेरों से निकाल कर देगी वह एक कंदील.” इस स्त्री की तरह अम्मा जी ने तब सबको एक कंदील ही नहीं थमाई, अपने को भी सारी पहचानों के साथ उबार लिया. बड़े बेटे मनोज, जो हमारे मन्दा हैं, के सहारे उन्होंने बड़े परिवार की कश्ती खेनी शुरू की. उनके भीतर गज़ब का जीवट था और दुनियादारी की अद्भुत समझ.
सचिवालय कॉलोनी के एक बेडरूम के फ्लैट से बादशाहनगर कॉलोनी के दो बेडरूम वाले फ्लैट में आते-आते जिंदगी ने फिर एक पटरी पकड़ ली थी जो निश्चय ही पहले जैसी नहीं हो सकती थी. वे पछतावा करने और समय से व्यर्थ लड़ने की कोशिश करने वाली नहीं, बल्कि उससे गज़ब का सामंजस्य बैठाने वाली महिला थीं. लेकिन निर्मम समय अपनी कीमत वसूल रहा था. चिंताओं की भीतरी उमड़-घुमड़ तो वे कभी बाहर आने नहीं देती थीं लेकिन मधुमेह उन्हें दीमक की तरह चाट रहा था. अगले कुछ वर्षों में पहले बड़ी बेटी की मौत और फिर एक हादसे में बड़ी बहू की दर्दनाक मृत्यु ने उन्हें खोखला ही कर दिया. तो भी उनमें खुद को पुनर्जीवित करने और हार न मानने की बड़ी क्षमता थी. उनकी जगह कोई भी दूसरा कभी का बिस्तर पकड़ लेता लेकिन वे उन पैरों से भी जीवन की डगर नापते रहीं जिन्होंने साथ देने से इनकार कर दिया था. अस्पताल भी उनको इसलिए जीवित लौटा सका कि उनमें अदम्य जिजीविषा थी.
डाक्टर छोटे बेटे के साथ कुछ समय कश्मीर में गुज़ारने के बाद वे डाक्टर-द्वय बेटी-दामाद के साथ दिल्ली रहीं जिनकी सेवा-सुश्रुषा और अपनी जीवनी शक्ति से वे इतनी बेहतर और खुश हो गई थीं कि मेरे साथ लखनऊ लौटने को तभी तैयार थीं जब मैं ज़रूरी काम से दिन भर के लिए ही दिल्ली गया था. वह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात साबित हुई. अगले ही महीने बिल्कुल अचानक उनके प्राण-पखेरू उड़ गए. उस दिन मैं इतना अस्वस्थ था कि उनके अंतिम दर्शन के लिए भी दिल्ली नहीं जा सका.
लेकिन इससे भी ज़्यादा मलाल इस बात का है कि हम उनके समृद्ध सांस्कृतिक कोश को सम्भाल नहीं सके. उनके बिल्कुल ही अस्वस्थ होने से चन्द माह पहले लता के सुझाव पर हमने उनके स्वर में उन्हें कंठस्थ कुमाऊंनी लोक गीतों, होलियों आदि की रिकॉर्डिंग करने की योजना बनाई थी. हमारे घर में रिकॉर्डिंग होनी थी और अम्मा जी खुद सोत्साह इसके लिए तैयार थीं. मानव जीवन के विभिन्न चरणों के क्रम से संस्कार गीत, शकुनाखर एवं लोक गीत और फागुन की चढ़ती मस्ती के क्रम से होलियां गाई जानी थीं. लेकिन रिकॉर्डिंग वाले ने ऐन चौराहे पर स्थित हमारे घर में निरंतर आते शोर के कारण किसी दूसरी जगह का सुझाव दे दिया. हम शांत जगह तत्काल खोज नहीं पाए और वक़्त ने अम्माजी को इतना मौका नहीं दिया. नज़रबाग लाल मकान वाली हेमा दिल्ली के निगम बोध घाट पर खाक में मिल गईं. लाल मकान पहले ही ज़मींदोज़ हो चुका था.
लता के पास बची है अम्मा जी की पुरानी ढोलक जो वे उसे उपहार में दे गईं और साथ में कुछ पुर्चे-पर्चियां और एक छोटी डायरी जिनमें अम्मा जी ने गीत-होली-भजन आदि लिख रखे हैं, यत्र-तत्र अपनी संक्षिप्त टिप्पणियों के साथ. अब वे सिर्फ कागज़ी हर्फ हैं. उनमें मूल सुर-ताल हैं न अम्मा जी की बुलंद आवाज़. वह सारा खज़ाना उन ही के साथ चला गया.
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