चलिए, आज आपको अपने बचपन और किशोरावस्था की स्मृतियां में घुमा लाता हूँ. ये यादें उन होली
बैठकों की हैं जो पहाड़ के सुदूर गावों ही की तरह लखनऊ के कई मुहल्लों में
जमती-झमकती थीं और अब स्मृतियों ही में बची हैं.
-“हरदा, आज इतवार हो गया पूस का” कहते हुए गौर्दा आ धमकते. हम रोटी खा कर बैठे ही होते. खाना पकाते समय बाबू मिट्टी के एक छोटे कुण्डे में
कोयले रखते जाते. वही तापते हुए मैं पढ़ता और बाबू हुक्का गुड़गुड़ाते.
-“आओ गौरी दत्त, मैं अभी याद ही कर रहा था कि तुम आते
होगे. लो हुक्का पीओ.” गौर्दा हुक्के की एक–दो फूक लगा कर उठ जाते- “चलता हूँ, अभी विश्वम्भर दत्त जी को भी बुलाना है. आप आओ.” गौर्दा माने गौरी दत्त सनवाल, जो अब वृद्धावस्था में पंतनगर
(खुर्रमनगर) में रहते हैं.
लखनऊ
की कैण्ट रोड पर सिंचाई भवन के पीछे की कैनाल कॉलोनी के सर्वेण्ट क्वार्टर
पहाड़ियों से भरे थे, ज़्यादातर कुमाऊंनी. वहां सारे
तीज-त्योहार पहाड़ी गांवों की तरह ही मनाए जाते थे. घुघुती त्यार, फुलदेई, सब, और होली तो गज़ब ही झकझोर होती थी. कुमाऊं में पूस के पहले इतवार से होली गाने की परम्परा है. सो, कैनाल कॉलोनी में भी उसी रात से
होली गाना शुरू कर दिया जाता था.
गौर्दा की कोठरी में बिछे गद्दों
पर ओढ़-आढ़ कर बैठे चार-पांच होल्यार होली गायन की शुरुआत करते. बाबू बहुत मंद्र
स्वर में होली लगाते- ‘तुम संतन के हितकारी हरी, तुम..., गज और ग्राह लड़े जल भीतर, लड़त-लड़त गज हारो हरी......, गज के प्राण बचायो हरी....तुम संतन के ...’
दिन भर दौड़-भाग की नौकरी से थके वे
चंद होल्यार उस रात परम्परा की शुरुआत कर ज़ल्दी उठ जाते. वसंत पंचमी से गौर्दा की
कोठरी भरने लगती और उसमें युवकों की भागीदारी भी होने लगती. होली गायन आधी रात तक
चलता. मनोरथ जी होली लगाते- ‘शिव के मन माहिं बसे काशी..., आधी काशी में बामण बनिया, आधी काशी में संन्यासी..’ युवकों को सावधान किया जाता- ‘एक बोल रे, एक बोल’ या ‘अब दो बोल, हाँ!’
शिवरात्रि से होली की यह बैठक
कोठरी से बाहर खुले और बड़े अहाते में आ जाती. चंदा किया जाता, दरियां बिछती, चाय और आलू के गुटकों का इंतज़ाम
होता. हम बच्चे उबले आलू छीलते, चाय के गिलास बटोरते-धोते और होली में भाग लगाना भी सीखते- ‘हो रही जै-जै कार जग में, जनम भयो यदुनंदन को...’ और ‘शिव जी चले गोकुल नगरी...’ आहा, क्या होली थी! शिव जी भिक्षुक का रूप
धर कर गोकुल जा रहे हैं. हाथ में चिमटा, और कांधे में झोली लटकाए घर-घर भिक्षा मांग रहे हैं. यशोदा माई के दरवाजे पर
भिक्षा की पुकार लगा रहे हैं. यशोदा माई मोतियों भरा थाल ले आई हैं लेकिन भिक्षुक
को यह भिक्षा नहीं चाहिए. तो क्या चाहिए उसे? ‘दरश कन्हैया को मांगे हरी, शिव जी चले गोकुल नगरी...’ युवकों की टोली सम पर उत्साह से
चीखती- ‘तक्का होई धो, धोई हो!’
एकादशी को सुबह कपड़ों में रंग के
छींटे डाले जाते और रात की महफिल अबीर-गुलाल से लाल और जोश से जवान हो उठती. बाबू
अपनी पसन्दीदा होली से बैठक की शुरुआत करते- ‘एकादशी चीर, अबीर-गुलाल, द्वादशी रंग रचो है...’ इस दिन पहाड़ के गांवों में चीर बांधी जाती है और रंग खेलना शुरू हो जाता है.
लखनऊ के उस मुहल्ले में चीर नहीं बांधी जाती थी लेकिन अबीर-गुलाल खूब चलने लगता.
चीर बांधने से जुड़ी बहुत सी होलियां मैंने बाद में सुनी लेकिन बाबू की गाई यह होली
और कहीं नहीं सुनने को मिली. अफसोस कि आगे के बोल अब याद नहीं. कुमाऊंनी होली के
अब तक देखे संग्रहों में भी यह होली नहीं मिली. खैर.
एकादशी से पुन्यूं तक कैनाल कॉलोनी
का वह अहाता भर उठता. घोड़ा अस्पताल, पुराना डाकखाना, दारुल-शफा, हैवलक रोड, जाने किस-किस मुहल्ले से होल्यार जुटने लगते. अनुशासित बुज़ुर्ग होल्यारों पर
छलकते जोश वाले युवकों की टोली भारी पड़ने लगती. एक कोने में सिमटे बुज़ुर्ग होली
लगाते- ‘हर फूलों से मथुरा छाय रही...’ तो युवकों का कोना अधैर्य दिखाता- ‘इस ब्योपारी को नींद बहुत है...’ लगाओ न! बुज़ुर्ग मुस्कराते और डांट भी लगाते- ‘अरे अभी से बिछौना बिछाओगे तो छलड़ी तक क्या करोगे, रे?’ सयानों की होली चलती रहती और ज़्यादा बेचैन युवक धीरे
से उठकर अहाते के बाहर मैदान में आ जाते. शराब का चलन उन दिनों उतना नहीं था लेकिन
अत्तर की चिलम या बीड़ी खूब चलती थी. होली के लिए पहाड़ी गांवों से वह काली बट्टी
बड़े जतन से लाई और सुरक्षित रखी जाती थी. अत्तर की फूक के बाद युवकों की टोली
मैदान में झोड़ा गाने-नाचने लगती- ‘देवानी लौंडा द्वारहाटौ को, त्वीले धारो बोला..’ हुड़ुका बजता, कई बार एक साथ तीन-चार हुड़ुके. झोड़ा गाने-नाचने वाले
इतने हो जाते कि घेरे के भीतर घेरा बनता. अहाते में जब सयाने मंद्र स्वरों में गा
रहे होते- ‘श्याम मुरारी के दर्शन को जब विप्र सुदामा गए हो लला...’ तब अहाते से सटे मैदान में हुड़कों की तालों के साथ झोड़ा तार सप्तक में गूंजने
लगता- ‘खोलि दे माता खोल भवानी, धरम किवाड़ा...’ थोड़ी देर बाद गौर्दा मनाने आते- ‘चलो रे, होली मत बिगाड़ो... चलो-चलो.’
युवकों की टोली दबे विद्रोह के साथ
भीतर आकर होली की बैठक में शामिल हो जाती और जैसे उनको मनाने के लिए ही धर्म सिंह
होली लगाते- ‘मन मारी, तन मारी, दिल को गुसैयां, कैसे रहूंगी मन मारी..., हाथ में गड़ुवा, कान में धोती, नाणा चली, हां-हां नाणा चली, हो-हो नाणा चली, दिल को गुसैंया, कैसे रहूंगी मन मारी.’ यह युवकों की पसंदीदा होलियों में एक थी जिसमें
उन्हें शब्दों के थोड़ा हेर-फेर से अश्लील इशारे करने और गाने का मौका मिल जाता था.
वैसे, ये चौपद होलियां थीं, जिन्हें गाना और लौटना आसान नहीं
होता था. लेकिन वहां चौपद होलियां गाने के उस्ताद हुआ करते थे. मेरी स्मृति में आज
भी कई ऐसी होलियां गूजती हैं- ‘धनुष-बाण प्रभु जी के हाथ में, चौकस है तो लछिमन भाई, लंका की तैयारी’, ‘आवन कहि गए, अजहुं न आए, ऊधो श्याम मुरारी...’, ‘बूंद जो बरसे गुलाब की, चादर मोरी भीजै रे, रे रतनारे नैना....’ आदि-आदि.
ऐसा नहीं था कि युवकों ही को होली
की मस्ती चढ़ती थी. सयाने इसमें चार हाथ आगे रहते. बस, वे दिनों का लिहाज़ करते थे. द्वादशी-त्रयोदशी से बूढ़े
जवान होने लगते और चतुर्दशी-पूर्णिमा को उनकी जवानी और उन्मुक्तता सीमाएं तोड़ने
लगती थी. फिर वे कोई लिहाज़ नहीं करते थे. युवकों-बच्चों के ही सामने वे इशारे
कर-कर के, डोल-डोल कर के गाने लगते- ‘अरे, हां रे, गोरी नैना तुम्हारे रसा भरे, चल कहो तो यहीं रम जाएं, गोरी...’ और ‘तेरे नैन रसीले यार बालम, प्रीत लगा ले नैनन की...’ और ‘अरे, हां रे, जिठानी तुम्हरो देवर हमसे ना
बोले...’ और ‘बाजूबंद भुली ऐ छै पलंगै में...’ और ‘चल उड़ि जा भंवर तोको मारूंगी...’ और ‘तू तो करि ले अपनो ब्याह देवर, हमरो भरोसो झन करियो...’ और ‘अरे हां, रे गोरी, चादर दाग कहां लागो...’ और भी जाने कितनी होलियां जिनमें
गोरी की स्यूनी-डंडिया से लेकर अंगुली-बिछिया तक हर अंग और उसके वस्त्र व
जेवर-विशेष का वर्णन पूरी उन्मुक्तता या कहिए कि उछृंखलता के साथ होता था. कुछ
होलियों में तो स्त्री-पुरुष के अंतरंग शारीरिक सबंधों का आंखों देखा हाल तक होता-
‘जब रसिया पलंगा पर आए, चड़कत है दुश्मन खटिया, शहर सितो जागो रसिया..’ भरी महफिल में इन्हें गाने में
युवक भले संकोच कर जाते या मुंह छुपा कर हंसते मगर बुज़ुर्ग न केवल रस ले-ले कर
गाते बल्कि स्वर को सप्तम तक पहुंचा कर अश्लील इशारे करने में भी संकोच न करते.
होलियों की विलम्बित तालों की
एकरसता से ऊब कर बीच-बीच में कुछ गायक ‘बंजारे’ लगाते जिनकी लय-ताल अपेक्षाकृत द्रुत व चपल होती- ‘गई-गई रे असुर तेरी नारि मंदोदरि, सिया मिलन गई बागै में’ और ‘अरे, कह दीजो रघुनाथ भरत से कह दीजो...’ इन बंजारों में नृत्य की लय भी
होती और कुछ लोग खड़े होकर हाव-भाव के साथ झूमते हुए भी गाते. घोड़ा अस्पताल कॉलोनी
के नर सिंह बंजारे गीत गाने मे उस्ताद थे. वे ढोलक भी अच्छी बजाते थे.
इन महफिलों में कुछ होल्यार होली ‘लगाने वाले’ होते यानि वे ‘लीड’ गायक होते. कुछ उसे ‘उठाने वाले’ होते यानी वे उसी लय-ताल पर होली के बोल लौटाते. ये सुर-ताल के अच्छे जानकार
होते. बाकी भाग लगाते. गाने वालों की दो टोलियां बन जाती. ‘लगाने’ करने वाले की एक टोली और ‘लौटाने’ वाले की दूसरी टोली. ढोलक बजाने वाले की खास जगह होती. वह अक्सर बीच में
बैठता. महफिल बड़ी हो जाने पर दो ढोलकिए भी होते. मंजीरे और लोटे तो कई बजते. मुझे
कैनाल कॉलोनी की उन होलियों के एक ढोलक वादक की बहुत अच्छी याद है. उनका नाम
नरोत्तम था, नरोत्तम बहुगुणा. वे होली गाते नहीं थे, सिर्फ ढोलक बजाते थे, ऐसी ढोलक कि होल्यारों को मजा आ जाता. नरोत्तम जी की
ढोलक होली जमा देती थी. वे आंख बंद करके बहुत आनंद से बजाते. अक्सर ढोलक के ऊपर
दोहरे हो जाते. ऐसा लगता जैसे सो रहे हों. सिर्फ उनके हाथ हरकत करते और बिल्कुल
झुकी गरदन ताल के साथ हिलती जाती. अक्सर होली गायन पूरा हो जाने के बाद भी उनका
ढोलक वादन चलता रहता और जब वे जोर बजाना बंद करते तो महफिल से कई स्वर उठते- “वाह, नरोत्तम, वाह!”
छलड़ी के दिन होल्यारों की टोली रंग
खेलते और गाते-बजाते कैनाल कॉलोनी से डायमण्ड डेरी, हैवलक रोड, घोड़ा अस्पताल और कभी-कभी दारुल शफा तक जाती. हर घर के सामने होली गाते और आशिष
देते- ‘गाऊं-खेलूं-देवूं अशीष, हो-हो होलक रे. इनरा नानातिना, नाती-पोथा जी रूं लाक्षे बरी (लाख
सौ बरीस) हो-हो-होलक रे...’ इनमें किसी के लड़के-लड़्की का ब्याह होने, किसी के घर संतान हो जाने जैसी आशिषें भी शामिल होती.
रिश्तों के हिसाब से मजाकिया आशिष भी दी जाती. इनमें ज़्यादातर घर ऐसे होते जिनकी “घरवाली”
पहाड़ के गांव में ही रहती थी. लेकिन यदि किसी बरस होली में किसी की घरवाली लखनऊ आ
जाती तो उस घर के आगे होली गाने, नाचने और आशिष देने की रंगत और ही हो जाती. उस देहरी पर “आज को वसंत” कुछ
ज़्यादा ही उल्लास से बुलाया जाता. खैर, उस शाम को कुछ ही होल्यार मिलते और गाते- ‘होली खेली-खाली मथुरा को चले, आज कन्हैया रंग भरे...’ और इस तरह होली का समापन हो जाता.
उसके बाद की शामें हमारे लिए सन्नाटा भरी और उदास होतीं.
ये स्मृतियां 1965 से 1980 के दौर
की हैं. बाद में ये बैठकें बिखर गईं. पुरानी पीढ़ी रिटायर होकर पहाड़ लौट जाती रही
और नई पीढ़ी का मिज़ाज़ बदलता रहा. प्रवास का स्वरूप बदला और जीवन शैली भी. लखनऊ में
बसा कुमाऊं का ‘लोक’ धीरे-धीरे लोप हो गया. जाहिर है
होली भी वैसी नहीं रह गई. शास्त्रीय (बैठी) होली की बैठकें तो आज भी यहां खूब जमती
हैं, लेकिन हमारे लखनऊ में अब लोक (खड़ी)
होली की बैठकें दुर्लभ ही हैं.
1 comment:
वाह ब्लॉगर महोदय! भले ही, दुर्भाग्य से, मैं आपकी पीढ़ी का न होने के नाते आप लोगों जितना आनन्द की इस समाधि का अनुभव नहीं कर पाया, फिर भी सत्तर के दशक के आखिरी कुछ सालों में जन्म लेने के कारण, लखनऊ के पहाड़ियों की संस्कृति का थोड़ा रसास्वादन अवश्य किया है। सामूहिकता और संस्कृति रूपी जिन मोतियों को आपने स्मृति रूपी माला में पिरोया है, उन्हीं में तो जीवन, और उसको जीने की प्रेरणा है। आप बहुत भाग्यशाली रहे हैं कि अपने जीवन की सर्वाधिक सुदृढ़ अवस्थाओं में से एक में, आपको न केवल इन क्षणों का रसास्वादन करने को मिला, बल्कि आपने सम्भवतः इन गतिविधियों में भाग भी लिया होगा। लेख के द्वारा इतनी सुन्दर स्मृतियों की झलक दिखाने के लिए धन्यवाद 🙏🙏।
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