देश में बढ़ती धार्मिक
असहिष्णुता और नतीजे में दादरी के बिसाहड़ा गांव में गोमांस के नाम पर उकसाई भीड़
द्वारा अखलाक की हत्या के कोई दस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चुप्पी
तोड़ी. वह भी तब जब राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने एकाधिक बार अपने भाषणों में देश को
अपने मूलभूत लोकतांत्रिक, सभ्य और बहुलतावादी सामाजिक मूल्यों की याद दिलाई.
राष्ट्रपति का सम्बोधन अपनी गरिमा के बावजूद गम्भीर चिंता जाहिर कर रहा था. उसके
अगले दिन नरेंद्र मोदी ने जो कहा उसे उनकी चुप्पी तोड़ना माना गया लेकिन उन्होंने
कहा क्या, इस पर गौर करना जरूरी है. प्रधानमंत्री ने कहा कि हिंदू और मुसलमान तय कर लें
कि उन्हें एक-दूसरे से लड़ना है या मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ. यह दार्शनिक किस्म
का बयान वे पहले भी देते रहे हैं लेकिन इससे आगे उन्होंने माना कि दादरी काण्ड
दुर्भाग्यपूर्ण है. फिर पूछा कि इसमें केन्द्र सरकार क्या कर सकती है?
केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ
सिंह से लेकर मोदी सरकार के कई वरिष्ठ मंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित
शाह लगातार यह कहते रहे हैं कि दादरी का जघन्य काण्ड हो या साहित्य अकादमी
पुरस्कार विजेता कन्नड़ लेखक कलबुर्गी अथवा तर्कवादियों नरेंद्र दाभोलकर और पानसरे
की हत्याएं कानून व्यवस्था का मामला हैं और कानून-व्यवस्था बनाए रखना राज्य
सरकारों की जिम्मेदारी है.
मामला सिर्फ कानून व्यवस्था
का होता तो राष्ट्रपति का चिंतित बयान आता न उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की तकलीफ
मुखर होती. दादरी में जिस साजिश के तहत अफवाह फैला कर अखलाक की हत्या करवाई गई, उससे व्यथित होकर दूसरे ही
दिन एक कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति ने कहा था कि राष्ट्र का दायित्व है कि वह
प्रत्येक नागरिक के लिए, उसकी आस्था और धार्मिक मान्यताएं कुछ भी हों, जीने का अधिकार सुनिश्चित
करे. इस महत्वपूर्ण बयान का, जो वस्तुत: भारतीय संविधान के मूल सिद्धांतों पर आधारित है, इशारा साफ था. यह संकेत था
कि संविधान प्रदत्त जीने के अधिकार को देश में धर्म और आस्था के नाम पर चुनौती दी
जा रही है और सत्ता का दायित्व है कि वह इसे रोके.
यह अकारण नहीं कि इसी दौरान
देश भर के साहित्यकारों-कलाकारों-संस्कृतिकर्मियों-इतिहासकारों-फिल्मकारों-विज्ञानियों को लग रहा
है कि देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी खतरे में है, असहिष्णुता लगातार बढ़ रही है तथा तर्क एवं
विचारों से जवाब देने की बजाय विरोधी स्वरों को कुचला जा रहा है. दो महीने में भीतर
देश के विभिन्न राज्यों से 40 से ज्यादा लेखकों ने अकादमी सम्मान समेत विविध
राष्ट्रीय पुरस्कार वापस किए, प्रमुख विज्ञानी पी एम भार्गव ने पद्मभूषण लौटाया, पंजाबी लेखिका दलीप कौर
टिवाणा ने पद्मश्री लौटाई, पद्मश्री लौताने वालों में बिल्कुल ताजा नाम हिमालयविद एवं इतिहसकार शेखर पाठक का है, कोंकणी रंगकर्मी माया ने संगीत नाटक अकादमी सम्मान वापस
किया, मलयाली कवि के सच्चिदानंद ने साहित्य अकादमी की कार्यकारिणी से इस्तीफा दे
दिया, दर्जनों फिल्मकारों ने राष्ट्रीय स्तर के सम्मान वापस किए और एक सौ से ज्यादा
इतिहासकारों ने प्रतिरोध में अपनी आवाज मिलाई है. साहित्य अकादमी की कार्यकारिणी
ने भी अक्टूबर के अंत में अपनी लम्बी चुप्पी तोड़ते हुए कलबुर्गी की हत्या की निंदा
कर दी. मामला चूंकि सिर्फ साहित्य अकादमी की चुप्पी के विरोध तक सीमित नहीं था, इसलिए रचनाधर्मियों का
विरोध जारी है.
विरोध का असल मुद्दा उदय
प्रकाश की उस टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है जो उन्होंने अकादमी सम्मान वापस करते
हुए की थी- ‘पिछले कुछ समय से
हमारे देश में लेखकों, कलाकारों, चिंतकों और
बौद्धिकों के प्रति जिस तरह का हिंसक, अपमानजनक, अवमाननापूर्ण व्यवहार लगातार हो रहा है, जिसकी ताजा
कड़ी प्रख्यात लेखक और विचारक तथा साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कन्नड़
साहित्यकार श्री कलबुर्गी की मतांध हिदुत्ववादी अपराधियों द्वारा की गई कायराना और
दहशतनाक हत्या है, उसने मेरे जैसे अकेले लेखक को भीतर से
हिला दिया है. अब यह चुप रहने का और मुंह सिल कर सुरक्षित कहीं छुप जाने का पल
नहीं है. वर्ना ये खतरे बढ़ते जाएंगे.’ अकादमी सम्मान लौटाते हुए ऐसी बातें गुजराती कवि अनिल जोशी
ने कहीं कि देश का वातावरण घृणामय हो गया है और लेखकों की आज़ादी और अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता छिन गई है. कुछ धार्मिक पहचानें साम्प्रदायिक ताकतों के कारण खतरे में
पड़ गई हैं. कोंकणी लेखक एन शिवदास ने कहा कि हम ‘सनातन संस्था’ जैसे संगठनों, जो धर्म के नाम पर लोगों को बरगला रहे हैं और
तर्कवादियों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार हैं, का लगातार विरोध करते रहे हैं और अब हम खुद पर खतरा महसूस कर रहे हैं. हमें धमकियां मिल रही हैं.
राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति
परोक्ष रूप से और लेखक-कलाकार-इतिहास्कार-विज्ञानी- आदि साफ-साफ और जोर-जोर से ऐसी
बातें कह रहे हैं तो मानना चाहिए कि देश में कहीं गम्भीर गड़बड़ी हो रही है.
प्रतिरोध के इन स्वरों को ‘कांग्रेसी’ या ‘वामपंथी’ या ‘नरेंद्र मोदी से घृणा करने वालों के बयान’ और ‘कृत्रिम समस्या पैदा कर कृत्रिम
विरोध’ कह कर अनदेखा नहीं किया जा सकता, जैसा कि
केंद्र सरकार के कई मंत्री और हिंदू संगठनों के लोग कर रहे हैं.
इस देश में आजादी के पहले से कुछ साम्प्रदायिक शक्तियां
सक्रिय रही हैं. विभाजन की भयानक मार-काट और महात्मा गांधी की हत्या ने इनके लिए
खाद-पानी का काम किया. तब से देश के विभिन्न भागों में यदा-कदा दंगे होते रहे
लेकिन देश की बहुलतावादी परम्परा पर साम्प्रदायिक तत्व कभी हावी नहीं हो पाए. 1990
के राम मंदिर आंदोलन, 1992 के बाबरी मस्जिद ध्वंस और उसके बाद देश भर में हुए दंगों
ने इन ताकतों को खेलने का भरपूर मौका दिया. इसी दौर में पाकिस्तान-पोषित आतंकवाद चरम पर पहुंचा और राजनीतिक दलों ने,
जिनमें भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिंदू परिषद एवं विभिन्न
हिंदू संगठनों के अलावा कांग्रेस और कतिपय मुस्लिम संगठन भी शामिल रहे, सत्ता की राजनीति के लिए हिंदू-मुस्लिम कार्ड खुल कर खेले, मंदिर आंदोलन के जवाब में लाए गए मण्डल आंदोलन ने जातीय ही नहीं, धार्मिक ध्रुवीकरण को भी खूब हवा दी. नतीज़ा यह हुआ कि नव उदारीकरण के दौर
में जब भारत को सबसे तेज़ बढ़ती अर्थव्यस्थाओं में शुमार किया जा रहा था, ‘इण्डिया शाइनिंग’ और ‘अतुल्य भारत’ के नारे हवा में उछल रहे थे, उसी काल में इस देश की गंगा-जमुनी तहजीब भीतर ही भीतर तार-तार की जा रही
थी.
सन 2012 के गुजरात विधान सभा चुनावों में जीत की तिकड़ी लगाने
के बाद नरेंद्र मोदी ने भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व की तरफ कदम बढ़ाए. तब तक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भाजपा के कायाकल्प की पटकथा तैयार कर चुका था. अटल बिहारी
वाजपेयी का ‘उदार’ युग’ बीत गया और लाल कृष्ण आडवाणी में
संघ को वह आक्रामकता नहीं दिखी जो निष्क्रियता एवं भ्रष्टाचार से ग्रस्त तथा क्रमश:
अलोकप्रिय हो रही यूपीए (वास्तव में कांग्रेस) सरकार को ध्वस्त करके भाजपा को
राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कर सके. 2002 में गुजरात में बकौल अटल ‘राज धर्म न निभाने वाले’ नरेंद्र मोदी में संघ को वह
प्रचण्ड हिंदू-तेज दिख गया था. अमित शाह में उनका कुशल सारथी तैयार था ही. 2014 के
लोक सभा चुनाव में संघ के हिंदुत्व-एजेण्डे का रथ मैदान में उतार दिया गया. चौतरफा
विकास, नए, तेज तर्रार नेतृत्व और
भ्रष्टाचार मुक्त सरकार के वादे ने खूबसूरत आवरण का काम किया. भाजपा प्रचण्ड बहुमत
से सत्ता में आ गई.
लोक सभा चुनाव प्रचार के दौरान ही आने वाले समय के संकेत
मिलने लगे थे. जब वरिष्ठ कन्नड़ साहित्यकार यू आर अनंतमूर्ति को पाकिस्तान चले जाने
का निर्देश दिया जाने लगा था. अनंतमूर्ति का अपराध यह कि उन्होंने यह कह दिया था
कि अगर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो मैं इस देश में नहीं रह पाऊंगा.
गिरिराज सिंह दहाड़ रहे थे कि जो भाजपा अथवा हिंदू विरोधी हैं वे पाकिस्तान जाकर बस
जाएं. बहुत सारे संघी प्रचारक, साध्वियां, भाजपा, विहिप, शिव सेना, इत्यादि के
नेता विचार विरोधियों को समुद्र में डुबा रहे थे या देश निकाला दे रहे थे या
देशद्रोही बता रहे थे. भाजपा की अप्रत्याशित विजय के बाद न केवल बदजुबानी बढ़ती गई, बल्कि विरोधियों पर शारीरिक हमले भी होने लगे. कन्नड़ साहित्यकार और
तर्कवादी एम एम कलबुर्गी की हत्या नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के एक साल
पूरा होते-होते हो गई. गिरिराज सिंह, वी के सिंह, महेश शर्मा जैसे केंद्रीय मंत्रियों, साक्षी महाराज
जैसे सांसदों और प्राची जैसी विहिप की साध्वियों की जहर उगलती जिह्वा (‘गोहत्या करने वालों का हश्र अखलाक जैसा ही किया जाएगा’) पर रोक लगाना तो दूर मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपी सांसद संजीव बालियान को
केंद्र में मंत्री बना दिया गया और संगीत सोम एवं सुरेश राणा को क्लीन चिट दे दी
गई. खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह यूपी विधान सभा उपचुनाव प्रचार में वैमनस्य और
घृणा फैलाने वाले भाषण देने लगे थे और अब बिहार में ऐन चुनावों के बीच वे क्या
जान-बूझ कर ही यह नहीं कर रहे कि भाजपा हारी तो पाकिस्तान में पटाखे दागे जाएंगे? यही नहीं, देश की इतिहास-संस्कृति-विज्ञान-कला-आदि
संस्थाओं में ऐसे लोग बैठा दिए गए जिनका उस क्षेत्र से ज्यादा रुझान हिंदूवादी रहा
है.
दादरी में जो हुआ वह साम्प्रदायिक घृणा के प्रचार ही का
नतीज़ा था. मंदिर से ऐलान करके कि अखलाक के घर गोमांस खाया जाता है और फ्रिज में भी
रखा है, भीड़ को उकसाया गया. अखलाक की हत्या कर दी, उसके
बेटे को इतना पीटा कि बमुश्किल उसकी जान बची. अफसोस तब बढ़ने लगा जब इतनी बर्बर
वारदात पर भी प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहे और उनके वरिष्ठ मंत्री इसे
कानून-व्यब्वस्था का मामला बता कर यूपी की सपा सरकार को जिम्मेदार ठहराते रहे.
राजनीतिक दलों से लेकर सामाजिक-साहित्यिक क्षेत्रों ने जब यह चेताया कि यह सब उस साम्प्रदायिक
बयानबाजी और उकसावे का नतीज़ा है जिस पर प्रधानमंत्री समेत पूरी केंद्र सरकार चुप
रहकर उसे बढ़ावा दे रही है तो आलोचकों पर हमले तेज हो गए. गोधरा (गुजरात) में
नवरात्र के दौरान बैनर टांगे गए कि अपनी बेटियों को ‘लव जिहाद’ से सुरक्षित रखने के लिए
गरबा में मुस्लिम लड़कों को नहीं आने दें. पूर्व पाकिस्तानी विदेश मंत्री खुर्शीद
महमूद कसूरी की पुस्तक का विमोचन कार्यक्रम रद्द न करने पर शिव सैनिकों ने
सुधीन्द्र कुलकर्णी के मुंह पर कालिख पोत दी. हाशिए पर धकेल दिए गए लाल कृष्ण
आडवाणी तक ने इस काण्ड की निंदा की लेकिन देश में बढ़ रही ऐसी असहिष्णुता पर वाकपटु प्रधानमंत्री चुप ही रहे.
राष्ट्रपति की टिप्पणी के बाद बोले भी तो क्या!
प्रधानमंत्री कतई भोले नहीं
कि न जानते हों कि विज्ञान सम्मत और तार्किक बातों से अपने समय में सार्थक
हस्तक्षेप करने वाले कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे को धमकियां क्यों दी
जाती रहीं और अंतत: उनकी हत्या क्यों की गईं. ये कौन लोग हैं और किन संगठनों से
सम्बद्ध हैं? देश में जगह-जगह सक्रिय हो गई ‘सनातन संस्था’ और बड़ी तादाद में ‘गोरक्षा समितियों’ को कहां से ताकत और संरक्षण मिल रहा है? हमलावरों और घृणा फैलाने
वाले संगठनों पर कारवाई क्यों नहीं हो रही? दादरी में गोहत्या की अफवाह अखलाक की हत्या तो
कराई गई लेकिन उसी इलाके में 50 साल से 800 से ज्यादा गायों को पालने-पोषने वाने
हबीब भाई के योगदान का प्रचार क्यों नहीं किया गया? साम्प्रदायिकता का जहर धीरे-धीरे फैलाया जा रहा
है और पिछले एक साल से यह सिलसिला तेज हुआ. फरवरी में सहारनपुर में गोहत्या के
आरोप में 24 वर्षीय जहांगीर की हत्या हुई थी और पीलीभीत में हैदर अली को मोटर
साइकिल में बांध कर सड़क पर घसीटा गया. बिहार के सीतामढ़ी, भागलपुर और समस्तीपुर
जिलों में साम्प्रदायिक उन्माद फैलाया गया.
इसलिए
देश भर से लेखकों-कलाकारों-इतिहासकारों-विज्ञानियों-आदि ने आवाज उठाई है कि इस देश
की बहुलतावादी परम्परा को नष्ट कर इसे हिंदू राष्ट्र बनाने की साजिशों पर रोक लगनी
चाहिए. यह व्यापक प्रतिरोध रंग ला रहा है और मोदी सरकार के सिपहसालार परेशान हुए
हैं. बदजुबान नेताओं को बुलाकर अमित शाह ने समझाया है लेकिन सबसे ज्यादा हैरत नरेंद्र
मोदी के रवैए पर है जिनकी भूमिका इस विविधता भरे देश के नहीं, भाजपा के प्रधानमंत्री
की दिखती है,
जैसा कि कई आलोचकों ने कहा है.
अत: मुद्दा महज
कानून व्यस्था का नहीं, देश की लोकतांत्रिक, प्रगतिशील, परस्पर सम्मान और सह-अस्तित्व की परम्परा का है
जो खतरे में दिखाई देती है और साफ संकेत हैं कि यह अभियान सत्ता-पोषित है. रिजर्व
बैंक के गवर्नर रघुराम राजन, इंफोसिस के नारायणमूर्ति और किरण मजूमदार शॉ जैसी हस्तियां
भी यही चिंता जाहिर करने लगी हैं. इसलिए विविध क्षेत्रों से बड़े
पैमाने पर पहली बार उठी यह पुरजोर आवाज धैर्य से सुनी जानी चाहिए.
(प्रतिपक्ष सम्वाद, नवम्बर, 2015 अंक)
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