- ‘मैगी है, अंकल?’ हाथ में थामा नोट आगे बढ़ाए
हुए एक बच्चा दुकानदार से पूछ रहा था. उसके चेहरे की उत्सुकता और व्याकुलता साफ
पढ़ी जा सकती थी जो तुरन्त ही भारी निराशा में बदल गई जब दुकानदार ने तनिक
मुस्कराते हुए ‘न’ में गरदन हिला दी.
- ‘ऑनलाइन मिल रही है बेटा’. काउण्टर पर खड़े दूसरे
ग्राहक ने बच्चे को बताया. लेकिन उसके पास सुनने का धैर्य नहीं था. वह तेज कदमों
से किसी दूसरी दुकान की तरफ भागा चला गया. ‘दिन भर छोटे-बड़े बच्चे और मम्मियां मैगी ढूंढने
आने लगे हैं’- दुकानदार कह रहा था.
चंद हफ्तों के लिए मैगी
क्या बंद हुई, बच्चों का मुंह लटक गया. मां का दूध सूख जाने पर भी उतनी व्याकुलता नहीं होती
जितनी मैगी पर रोक लग जाने से हुई. अब धीरे-धीरे मैगी बाजार में वापस आ रही है तो
छोटे बच्चों से लेकर युवा तक आनंदित हैं और मैगी पार्टी की तस्वीरें सोशल साइट्स
पर सगर्व पोस्ट कर रहे हैं.
हमारी पीढ़ी की पीढ़ी का
स्वाद बाजार के जादूगरों ने कैसे हर लिया है! भारतीय खाने की विविधता और पौष्टिकता
की सर्वत्र चर्चा होती है लेकिन हमारी थालियों पर कैसा हमला हुआ है कि सारे स्वाद
ही छिन गए. उस दुकान पर छिड़ी मैगी-चर्चा में एक महिला बता रही थी कि ‘टेबल पर पराठा-पूरी या
दाल-भात-रोटी रखो तो बच्चे कहने लगते हैं कि ‘कुछ अच्छा’ खिलाओ. कुछ अच्छा माने मैगी, पास्ता, केएफसी... मैं तो मैगी में
ही सब्जियां मिला देती हूं. क्या करूं, कुछ तो अच्छा बच्चों के पेट में जाए.’ आज यह हर घर की समस्या है.
क्या त्रासदी है कि स्वदेशी
का राग अलापने और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खिलाफ झण्डा उठाने वाले बाबा रामदेव
अपनी कम्पनी के नूडल्स लेकर बाजार में आ गए हैं. जल्दबाजी इतनी कि इसके लिए
उन्होंने भारतीय खाद्य सुरक्षा और नियामक प्राधिकरण से आवश्यक लाइसेंस भी नहीं
लिया. मैगी पर रोक लगने के बाद उन्हें मुनाफे का अच्छा मौका दिखा होगा. मैकरोनी, स्पाघेटी और वर्मिसेली वे
पहले से बेच ही रहे हैं. इसमें कैसा स्वदेशी आंदोलन है? देसी स्वाद तो धीरे-धीरे
मारे जा रहे हैं, उस पर हमला बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का हो या तथाकथित भारतीय आश्रमों का.
मैगी हो पिज्जा या केएफसी
या ढेरों दूसरे विदेशी व्यंजन उन्हें खाने में कोई हर्ज नहीं. बल्कि, दुनिया भर के स्वाद जरूर लेने
चाहिए. आज पूरी दुनिया मुट्ठी में है तो जितनी हो सके भाषाएं सीखिए, पहनावे धारण कीजिए और
खान-पान बरतिए. कोई डण्डा नहीं चला रहा कि बाटी-चोखा, आलू-पूरी, डोसा-पोहा, वगैरह ही गले से नीचे
धकेलते रहिए या धोती-कुर्ता-लुंगी-साड़ी ही धारण कीजिए. लेकिन यह जरूर देखिए कि
अपने स्वाद, पहनावे और भाषा-बोलियों के साथ कैसा सलूक हम कर रहे हैं. जी हां, खान-पान और भाषा-बोलियों
का परस्पर अंतरंग सम्बंध है. हम अपने स्वाद ही नहीं भूल रहे, भाषाओं को भी साथ ही मार
रहे हैं. स्वाद छिनता है तो अपनी बोली-भाषा-लोकगीत-संगीत सब जाता रहता है.
यह सांस्कृतिक हमला बड़े
शहरों से सीधे गांवों तक पहुंच गया है. गांवों के मेलों-हाटों-उत्सवों-ब्याह-काजों
में सबसे ज्यादा मांग ‘चाऊमीन’ वगैरह की हो रही है. सांस्कृतिक संध्याओं में लोक गीतों की
बजाय फिल्मी धुनों पर ‘लोक-नृत्य’ होते हैं. लोक संगीत और भाषा-बोली का हाल वैसा ही हो गया
है जैसा किसी ढाबे में प्याज-लहसुन का छौंका लगाकर पकाई गई मैगी का होता है.
नवरात्र में कन्या पूजन के
दिन अगर बच्चियों के सामने नूडल्स परोसे जाएं क्योंकि ‘पूरी-हलवा-चना अब कोई खाता
नहीं’ तो हमें कुछ सोचना चाहिए या नहीं?
(नभाटा, लखनऊ, में 27 नवम्बर को प्रकाशित)
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