क्षेत्र व जिला पंचायत
चुनावों के नतीज़े के बाद सदस्य और ब्लॉक प्रमुख के पद खरीदने की रस्साकशी शुरू हो
चुकी है. बोलियां लगाने और थैलियां खुलने का मौसम है. अब हैरत नहीं होती कि आम जन
के हाथों में सत्ता पहुंचाने की यह संवैधानिक व्यवस्था काले धन का कैसा नंग-नाच बन
गई है. सत्ता बल, धन बल और
बाहुबल का कैसा खेल हुआ, है कोई हिसाब? राजनीतिक
दल हिसाब इस बात का अवश्य लगा रहे हैं कि जहां दलीय राजनीति नहीं होनी थी वहां
उन्हें कितना दलीय नफा-नुकसान हुआ. जहां रामलोटन और घुरई को अपने क्षेत्र के विकास
के लिए निर्भय चुनाव लड़ना था वहां मंत्रियों के परिवार वालों ने सारे घोड़े खोल कर अमर्यादित
चुनाव लड़ा. हार-जीत से अब उनकी प्रतिष्ठा का हिसाब हो रहा
है.
राजनीतिक सत्ता का चरित्र
अब उद्दण्ड और निरंकुश ही होता है. पंचायतें हों या नगर निगम या विधान सभा और संसद
से निकली सत्ताएं. विनम्रता, लोकतांत्रिक
व्यवहार एवं जन-सम्मान अब वहां से गायब हो चुके हैं.
साइकल और मुख्यमंत्री के
तस्वीर वाली झण्डी लगी गाड़ियों में सवार लोगों ने जब उत्पात मचाना शुरू किया तो लग
गया था कि सपा की सरकार आ गई है. चुंगी कर्मचारियों की धुनाई, तोड़फोड़,
जमीनों पर कब्जे और अफसरों की पिटाई पर कोई अंकुश पहले लगा था न अब.
जनता ने इसकी आदत डाल ली है.
पिछले कोई डेढ़ साल से प्रदेश के भाजपाइयों को केंद्र की
सत्ता का नशा है. सपा में अनुशासन की बात नहीं की जाती, भाजपा
में की जाती है. व्यवहार में फर्क मगर कहीं नहीं है. नियमों को तोड़ना सबको भाता
है. सत्ता में अपनी पार्टी हो तो क्या कहने. भाजपा के हिन्दुत्ववादी संगठन आजकल
इसी लिए निरंकुश हो गए हैं. कमल वाली झण्डियां फहराती गाड़ियां विधान सभा मार्ग पर
ऐसे खड़ी की जाती हैं जैसे वह उनकी निजी पार्किंग हो. बीते मंगल को उनकी वजह से यह
मुख्य मार्ग करीब पांच घण्टे जाम रहा. पार्टी दफ्तर में बड़े-बड़े पदाधिकारी थे.
दूसरी पार्टी से भाजपा में आए नेताओं का गर्वीला स्वागत हो रहा था. बाहर जो गदर
मचा रहा उसकी चिंता किसी को नहीं थी. नेताओं की गाड़ियों को उनके गनर रास्ता बनवा
कर निकलवा दे रहे थे. जाम में फंसे बाकी लोगों की फिक्र करने वाला कोई न था.
ट्रैफिक पुलिस भी सदा की भांति रुतबे वालों की सेवा में तत्पर.
बहन जी के डर के बावजूद बसपा नेताओं की दबंगई के किस्से कम नहीं
थे. चंद खास नेताओं की निरंकुशता वे बर्दाश्त कर लेती थीं मगर कई नेताओं पर
उन्होंने सख्त कारवाई भी की. आम लोगों में इसकी चर्चा अब भी होती है. खैर,
प्रदेश में कांग्रेसियों की सत्ता देखे चौथाई शताब्दि गुजर गई. इस बीच उद्दण्डता
के मानक भी बदल गए. कभी वे प्रदेश की सत्ता में आए तो उनका नया रूप अगली पीढ़ियां
देखेंगी.
नगर निगम के निर्वाचित पार्षदों को लगता है कि यदि उनके
ड्राइवर ने गाड़ी दफ्तर से लगी भूमिगत पार्किंग में खड़ी कर दी तो उनकी नाक ही कट
जाएगी. गाड़ियां सड़क पर उलटी-सीधी खड़ी करने से खूब शान बढ़ती है. पार्षदी की सत्ता
उनके पास भी है ही. वे कैसे नियम मान लें. नियम-कानूनों का मखौल उड़ाने की ट्रैनिंग
जो हो रही!
गांवों-कस्बों की सड़कें और खड़ंजे पिछले दिनों जिस तरह महंगी
गाड़ियों से रौंदे गए, नकदी और शराब बंटी, लाठी-गोली चलीं और
अब ब्लॉक प्रमुखी खरीदने के लिए थैलियां खुलने लगी हैं, उससे
साफ है कि अब इन पंचायतों में क्या-क्या नहीं होगा. चहुं ओर सत्ता की धमक ही धमक!
(नभाटा, लखनऊ में 06 नवम्बर 2015 को प्रकाशित)
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