नवीन जोशी
समाजवादी पार्टी के “गृह-युद्ध” के “मुलायम-समाधान” से आज
की चुनावी राजनीति के कुछ सबक सामने आए हैं. चुनाव सामने हैं और एक माहिर खिलाड़ी
ने ये कदम उठाए हैं, इसलिए मानना चाहिए कि सबक महत्वपूर्ण हैं.
एक- मुख्यमंत्री की बेहतर छवि से चुनाव नहीं
जीता जाता. वर्ना मुलायम अखिलेश को सबसे
लाचार और “जी, पिता जी” वाला कमजोर बेटा क्यों बनाते. युवा
अखिलेश सपा के चेहरे को अपनी तरह साफ-सुथरा बनाना चाहते हैं. मुख्यमंत्री के रूप
में साढ़े चार साल के कार्यकाल में उन पर कोई व्यक्तिगत दाग नहीं लगा, यह उनके विरोधी भी मानते हैं. लेकिन चुनावी अखाड़े के पहलवान पिताश्री ने
इसे ठीक नहीं माना. आरोपों की कमाई जरूरी है.
दो- चुनावी राजनीति और जोड़-तोड़ के लिए अमर सिंह अनिवार्य
हैं. तभी तो उन्हें अखिलेश तथा राम गोपाल के भारी विरोध और सार्वजनिक आलोचना के
बावजूद सपा का राष्ट्रीय महासचिव बनाया
गया. शिवपाल भी अत्यंत उपयुक्त हैं. सरकार में बहुत महत्वपूर्ण हैसियत रखने वाले “चाचा”
अब पार्टी के प्रदेश अध्य्क्ष भी हो गए हैं. उनकी छवि और कार्यशैली की चर्चा अक्सर
होती रहती है. उनके इर्द-गिर्द भांति-भांति के लोगों का जमावड़ा रहता है. प्रदेश अध्यक्ष नहीं रहते हुए भी संगठन पर उनकी
जबर्दस्त पकड़ थी. वे अब जब चाहें मुख्तार अंसारी और उन जैसे अन्य को पार्टी में
शामिल करा सकते हैं. रास्ता निष्कंटक है.
तीन – मंत्रियों के खुल्लम-खुल्ला भ्रष्टाचार के कोई मायने
नहीं है. शिकायतें, सबूत और जाचें अपनी जगह पड़ी रहें. गायत्री
प्रजापति के मामले ने यह डंके की चोट पर बता दिया है. मुख्यमंत्री ने भले उन्हें
भ्रष्ट मानते हुए मंत्रिमण्डल से हटाया लेकिन मुलायम और शिवपाल ने उनमें कुछ ऐसा
खास देखा है जो सरकार और पार्टी के लिए बहुत जरूरी है. यह खूबी सारे धतकरम छुपा
लेती है. एक सुपाठ यह भी कि गायत्री प्रजापति और राज किशोर सिंह होने में बड़ा
अन्तर है. राजकिशोर जैसों को अभी और मेहनत करनी होगी.
चार- समाजवाद को लोहिया के नाम से जोड़ने की गलती नहीं करनी
चाहिए. अमर सिंह यूं ही अपने को “मुलायमवादी” नहीं कहते. वे आज की चुनावी राजनीति
के सिद्धांतकार हैं. सोशल साइटों पर कुछ दिलजलों ने गायत्री प्रजापति की फोटो
लगाकर टिप्पणी की थी- “समाजवाद का नया चेहरा.” उनके किए यह तीखा व्यंग्य था पर बात
सच्ची और गम्भीर है. समाजवाद बदल गया है. अब तक सपा में अच्छे समाजवादी रहे आए
राजेंद्र चौधरी से चुपचाप पूछ लीजिए, शायद बता दें.
पांच- अंतिम यह कि सपा अखिलेश के चहरे को आगे कर चुनाव लड़ने
की बात भले अब भी करे, लेकिन अखिलेश का कोई चेहरा ही नहीं बचा. इस
युवा चेहरे पर कई चेहरे चस्पा हो गए हैं. मुलायम का चेहरा, शिवपाल
का चेहरा, अमर सिंह का मुखड़ा और गायत्री का भी. अखिलेश में
जनता यही चेहरे देखेगी और सपा को वोट देगी. अखिलेश का अपना चेहरा फिलहाल मिसफिट है,
जब तक कि वे पिता और चाचा का चेहरा नहीं पा लेते. विफल हुए तो विकल्प
चाचा हैं ही.
राजनीति का यह पुनर्पाठ फिलहाल सपा से निकला है लेकिन समय
तथा स्थितियों के अनुसार सभी दलों पर लागू होता है. (नभाटा, 25 सितम्बर, 2016)
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