Sunday, September 18, 2016

इस कलह के जिम्मेदार खुद मुलायम हैंं


नवीन जोशी
परिवारवारिकराजनीतिक दलों में विरासत की जंग नई बात नहीं है. कांग्रेस इसका अपवाद रही क्योंकि उसमें एक से ज्यादा दावेदार कभी हुए नहीं. नेहरू के बाद इंदिरा उनकी अकेली वारिस थीं. संजय और राहुल गांधी में ठन सकती थी लेकिन बड़े भाई राजीव को राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी और उनकी बेगम सोनिया को इससे चिढ़ थी. संजय की अकाल मृत्यु नहीं हुई होती तो राजीव-सोनिया-राहुल-प्रियंका को आज इस रूप में कौन जानता. उनकी अगली पीढ़ी में राहुल और वरुण में विरासत का युद्ध हो सकता था लेकिन उनकी राहें (पार्टियां) पहले ही जुदा हो गईं थीं. चरण सिंह और बीजू पटनायक की पार्टियां भी एकमात्र उत्तराधिकारी के कारण बची रहीं. दक्षिण भारत की घोर पारिवारिक पार्टियों का अंदरूनी सत्ता संग्राम बहुत जाना-पहचाना है. एम जी आर के बाद उनकी राजनीतिक विरासत का युद्ध उनकी पत्नी (जानकी) और फिल्मों की नायिका (जयललिता) में छिड़ा. करुणानिधि के बेटों-बेटियों-पोतों का राजनीतिक युद्ध अब तक चला आ रहा है. बाल ठाकरे की शिव सेना की विरासत के लिए उनके बेटे और भतीजे में रार मची. अपना दलमें सोने लाल पटेल की विरासत के लिए मां-बेटी में जंग चल रही है. 
सो, अगर समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह की राजनीतिक विरासत के लिए मार मची है तो इस पर आश्चर्य कतई नहीं होना चाहिए. आश्चर्य इस बात पर किया जाना चाहिए कि राजनीतिक अखाड़े के उस्ताद मुलायम ने अपनी विरासत का मामला समय रहते बेहतर ढंग से हल करने में चूक क्यों की. उनका परिवार बड़ा है. कई भाई-भतीजे-बहुएं राजनीति में सक्रिय हैं. उन्हें अच्छी तरह पता रहा होगा कि इस बड़े राजनीतिक परिवार में उनका अगला वारिस बनने की महत्वाकांक्षा किस-किस में पल रही है. उन्हें अपनी जगह किसी एक को स्थापित करने से पहले मुकम्मल तैयारी करनी चाहिए थी ताकि युद्ध की स्थिति नहीं आए. उनके इस संकट को उन्हीं का पैदा किया हुआ मानना चाहिए.
मुलायम से अच्छी तरह और कौन जानता था कि उनके छोटे भाई और शुरू से पार्टी तथा परिवार में उनके अभिन्न सहयोगी शिवपाल अपने को उनका पहला उत्तराधिकारी मानते आए हैं. मुलायम अगर इस जगह अपने बेटे अखिलेश को देखना चाहते थे तो उन्हें शिवपाल को धीरे-धीरे इसके लिए तैयार कर लेना चाहिए था. सन 2012 के विधान सभा चुनाव में उन्होंने अखिलेश को प्रमुखता जरूर दी लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश नहीं किया. बहुमत पा जाने के बाद उन्होंने अखिलेश का नाम मुख्यमंत्री के रूप में अचानक ही पेश कर दिया. शिवपाल इसके लिए कतई तैयार नहीं थे. झगड़ा वहीं से शुरू हो गया था. बीते साढ़े चार साल में इसकी परिणति कई रूपों में देखी गई. मुलायम कभी अखिलेश की और कभी उनके मंत्रियों की सार्वजनिक आलोचना कर शिवपाल को खुश रखने में लगे रहे. इससे अखिलेश अजीबोगरीब स्थिति में पड़े और उनके भीतर आक्रोश जमा होता गया. नतीजा सामने है.
चुनाव करीब हैं. इसलिए यह झगड़ा किसी तरह शांत हो जाएगा. नेता जी की बात पर अभी सुलह हो जाएगी लेकिन चिंगारी भीतर-भीतर सुलगती रहेगी और अवसर पाते ही भड़क उठेगी.  (नभाटा, 18 सितम्बर 2016)



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