बदलते परिदृश्य पर एक सरसरी नजर
नवीन जोशी
सन 1977 में जब हमने लखनऊ के ‘स्वतंत्र भारत’ से पत्रकारिता की शुरुआत की तब सम्वाददाताओं
को दफ्तर की तरफ से छोटी-सी नोट बुक और कलम मिला करते थे. इसी नोट बुक में वे
प्रेस कॉन्फ्रेस और अन्य खबरें नोट किया करते थे. एक दिन हमारे एक वरिष्ठ
सम्वाददाता किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस से बढ़िया नोट बुक और कलम लेकर आए जो सम्बद्ध
पार्टी ने पत्रकारों को बांटे थे. ‘स्वतंत्र भारत’ के हम युवा पत्रकारों की टीम ने उस दिन इस पर आपत्ति जताई थी. हमने बहस
की थी कि किसी भी रिपोर्टर के लिए प्रेस वार्ता करने वाले पक्ष से नोट बुक और पेन
लेना नैतिक रूप से गलत है. अखबार इसके लिए अपनी नोट बुक और पेन देता है. प्रेस कॉन्फ्रेंस
में चाय-नाश्ता, सिगरेट, वगैरह पेश
करना आम बात थी लेकिन कई पत्रकार इसे ठीक नहीं समझते थे और ग्रहण नहीं करते थे.
सिगरेट की डिब्बी और काजू जेब में रख ले जाने वाले रिपोर्टर भी होते ही थे जिनका
मजाक बनाया जाता था.
आपातकाल के बाद का वह दौर अखबारों (तब भारत में न्यूज चैनल, इंटरनेट नहीं थे) के विस्तार का भी था. मालिकों-सम्पादकों-पत्रकारों की
पुरानी पीढ़ी के जाने और नई के उभरने का भी यही समय था. इसी तरह राजनीति और प्रशासन
में नई पीढ़ी कब्जा जमा रही थी (याद कीजिए, संजय गांधी और
उनकी टीम के तेवर) आजादी के समय से चले आ रहे जीवन मूल्य,
नैतिकता, ईमानदारी, सामाजिक सरोकार, वगैरह बदल रहे थे. उनकी नई परिभाषा गढ़ी जा रही थी. प्रेस वार्ता में
पेन-पैड ही नहीं, महंगे गिफ्ट बांटे जाने लगे थे और
पत्रकारों में उन्हें लपकने की होड़ मचनी शुरू हो गई थी. रात को दारू-मुर्गा
पार्टियां आम हो गई थीं. विधान सभा सत्र के दौरान अपने भाषण छपवाने के लिए
मंत्री-विधायक चुनिंदा पत्रकारों को खाने-पीने की दावतें देने लगे थे. मुझे याद है
सन 1983 में लखनऊ के सस्ते गल्ले के (कण्ट्रोल) दुकानदारों ने अपनी समस्याओं के
बारे में प्रेस वार्ता की तो दो-दो किलो चीनी के थैले पत्रकारों को बांटे थे (उन
दिनों खुले बाजार में चीनी ज्यादा महंगी थी) तब प्रसिद्ध फोटो-पत्रकार सत्यपाल
प्रेमी रिपोर्टरों से तंज में कहा करते थे कि कल सुअर पालकों की प्रेस वार्ता है, गिफ्ट में चार-चार पिल्ले दिए जाएंगे. जरूर आना!
मतलब यह कि 1980 के दशक से पत्रकारिता में शुचिता और
नैतिकता के मूल्य तेजी से गायब होने लगे थे. धोती-कुर्ता धारी बूढ़े सम्पादकों का
स्थान लेने वाले टाई-सूट में सुसज्जित युवा सम्पादकों में कई सरकार और निजी
क्षेत्र से मालिकों के हित साधने में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगे थे. पहले इस काम के
लिए संस्थानों में कुछ खास रिपोर्टर रखे जाते थे. सम्पादकों का काम मुख्यत:
लेखन-सम्पादन और अखबार का स्तर बनाए रखना होता था. मगर अब भूमिकाएं बदल रही थीं.
लेकिन जो शोचनीय स्थितियां आज यानी 2016 में हैं उनकी तुलना
में बीसवीं सदी के अंत तक भी हालात बहुत अच्छे थे. पत्रकारिता के मूल्यों और
प्रतिबद्ध सम्पादकों-पत्रकारों की जगह भी बनी हुई थी. संस्थान से लेकर सरकार तक वे
सम्मान की नजर से देखे जाते थे. अखबारों को भी अच्छा लिखने, और अच्छी छवि वाले पत्रकारों की जरूरत रहती थी. उनके लिए कहा जाता था- ‘अरे, वे उस तरह के सम्पादक नहीं हैं.’ आज जो ‘उस तरह के नहीं हैं’
उनका मीडिया में टिक पाना मुश्किल हो गया है. अपवाद अवश्य हैं लेकिन वे भारी दवाब
में रहते हैं. खरी-खरी और बेबाक लिखने वाले पत्रकार-सम्पादक संस्थान विरोधी माने
जाते हैं. उनसे सबसे पहली अपेक्षा यह की जाती है कि वह संस्थान के मुनाफे की चिंता
करेंगे. सत्य को उद्घाटित करने या कोई भण्डाफोड़ करने की बजाय उसे संस्थान हित में
भुनाएंगे और उसे पत्रकारिता का खूबसूरत मुखौटा पहनाएंगे. सम्पादकों को आज
मुख्यमंत्रियों/मंत्रियों/ वरिष्ठ अफसरों का करीबी होना पड़ता है. उनकी योग्यता इससे
आंकी जाती है कि उनके कितने नेताओं से कैसे सम्बंध हैं,
मुख्यमंत्री से सीधे और तुरन्त मिल सकते हैं या नहीं, उनसे
संस्थान का कोई प्रस्ताव तुरंत स्वीकृत करवा सकते हैं या नहीं. महंगे गिफ्ट, पंचतारा होटलों की दावतें, विदेश यात्राएं, जैसे प्रलोभन पत्रकारों के लिए अब आम हैं और इसे कोई नैतिकता से जोड़ता भी
नहीं. परिभाषाएं पूरी तरह बदल गई हैं.
बहरहाल, 1977 में हम युवा थे. उत्साह, जोश और सपनों से भरे हुए. दूसरी आजादी के नारे हवा में थे और जे पी (जय
प्रकाश नारायण) का नेतृत्व बहुत उम्मीदें जगा रहा था जिन्होंने मोरारजी देसाई के
नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार को गांधीजी की समाधि पर खड़ा कर के राजनीति और
प्रशासन में सार्थक बदलाव लाने की शपथ दिलवाई थी. देश में जगह-जगह अपनी जीवन
स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए आंदोलन चल रहे थे और उनमें युवाओं की जबर्दस्त
भागीदारी थी. पत्रकारिता हमें इस बदलाव को देखने, जांचने और
उसकी समीक्षा करते हुए उसमें शामिल होने का बेहतरीन माध्यम लगती थी. इसीलिए मैं एम
ए करके पहाड़ में मास्टरी करने का सपना भूल कर पूरी तरह पत्रकारिता में रम गया था. उम्मीदें
बहुत जल्दी-जल्दी टूट भी रही थीं, इसलिए पत्रकारिता और भी
जरूरी लगती थी.
उत्तराखण्ड में चिपको (वन ) आंदोलन पूरे जोर पर था. जिस जोश
और गुस्से के साथ महिलाएं और युवा विशेष रूप से उस आंदोलन में शामिल थे, उसमें हम पूरे पहाड़ की व्यवस्था के बदल जाने की उम्मीदें देखते थे और
अखबारों में इसी आशय के लेख लिखा करते थे. अगस्त, 1977 से
“नैनीताल समाचार’ का प्रकाशन हमें लखनऊ में भी नए उत्साह और ऊर्जा
से भर गया था. मैंने ‘नै स’ के
दूसरे अंक से ही ‘प्रवासी पहाड़ी की डायरी’ लिखना शुरू किया. समाचार के अंकों का बेसब्री से इंतजार रहता था और अंक
मिलते ही सुझावों और तीखी प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो जाता था.
‘स्वतंत्र भारत’ में हम
नौकरी करते थे. सम्पादक के रूप में अशोक जी इतने प्रभावशाली थे कि हमें उनके अलावा
और किसी से कोई मतलब नहीं होता था. तो भी, यह अहसास रहता था
कि हमारा एक मालिक है. ‘नै स’ के
हम खुद मालिकनुमा थे और मालिक-सम्पादक नामधारी राजीव से कुछ भी कह-सुन सकते थे, और झगड़ा कर सकते थे. ‘स्वतंत्र भारत’ में हमें सिखाया जाता था कि ‘चिकोटी काटो, बकोटा नहीं’ लेकिन ‘नै स’ में शब्दों की तलवारें भांज सकते थे, किसी की भी
चीर-फाड़ ही नहीं, ऐसी-तैसी करने को भी आजाद महसूस करते थे.
प्रदेश में तब जनता पार्टी की सरकार थी और उसके वन मंत्री श्री चंद को ‘श्री चंठ’ बना कर क्या कुछ नहीं लिखा! कुछेक बार जोश
और गुस्से में नादानियां भी कीं. अपुष्ट और आधी-अधूरी जानकारियों के आधार कुछ भी
लिख डाला. ‘समाचार’ की जागरूक टीम से
पलट कर डांट भी पड़ी.
‘नै स’ के दफ्तर
में, जो तब बहुत जीवंत और खुला वैचारिक अड्डा था, हर खबर, टिप्पणी और घटनाक्रम पर लम्बी बहस चला करती
थी. हर चीज की चीर-फाड़ होती थी. अपने निराले ही अंदाज में ‘मेरी
भी सुन ली जाए, भले मानी न जाए’ कहने
वाले गिर्दा, आम तौर शांत लेकिन कभी-कभी भड़क जाने वाले
व्यावहारिक भगत दा, अध्ययन और घुमक्कड़ी से सदा अद्यतन शेखर
दा, सबकी सुनने को मजबूर-जैसे सम्पादक राजीव, बीच-बीच में गर्म छौंक लगा जाने वाले हरीश दाढ़ी, (इस केंन्द्रीय टीम में लोग जुड़ते और जाते भी रहे) और भी नैनीताल आवत-जावत
संगी साथियों की मण्डली एक-एक अंक की प्लानिंग में इतना डूबी रहती कि अंक ही संकट
में पड़ जाता. अथक विचार-मंथन से किसी तरह अंक पास हुआ भी तो ट्रेडिल मशीन की छपाई
में असम्भव को सम्भव बनाने में अक्षर जुड़ान-छपान वाली टीम के पसीने छूट जाते. मगर
जब अखबार छप कर आता तो लगता कि कुछ ऐसा काम हुआ है जो शायद और कहीं नहीं हो पा रहा, कि हां, पत्रकारिता का यही तो दायित्व है. एक
संतोष-सा भर जाता. फिर भी एक असंतोष बना रहता और वह बेचैनी अगले अंक की प्रसव पीड़ा
जैसी होती.
आज 39 साल पीछे मुड कर देखने पर भी लगता है कि हां, ‘नै स’ ने जिम्मेदार
पत्रकारिता की भूमिका बखूबी निभाई. प्रारम्भिक वर्षों में तो उसके तेवर कई बार
दुस्साहस की हद तक और रोंगटे खड़े करने वाले रहे. तवाघाट और कर्मीं जैसे भूस्खलन
हों, या उत्तरकाशी से ऊपर अलकनंदा में झील बनने और फिर उसके
टूटने से मची तबाही हो, पंतनगर का गोली काण्ड हो या अल्मोड़ा
मैग्नेसाइट की हड़ताल, शैले हॉल में वनों की नीलामी रोकने का
आंदोलन रहा हो या उसके बाद लगभग पूरे उत्तराखण्ड में पुलिसिया दमन, ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन
की पहाड़ व्यापी कवरेज हो अथवा तराई के विस्थापितों के दुख-दर्दों की रपटें, ‘नै स’ की टीम ने जान
खतरे में डाल कर, यथासम्भव शीघ्र घटना स्थल पर पहुंच कर जो आंखों
देखी रिपोर्टिंग की और जिस अंदाज में उन्हें पेश किया, वैसा
हमारे समय की पत्रकारिता में दुर्लभ ही कहा जाएगा. इन रपटों को पत्रकारों की नई
पीढ़ी को अवश्य देखना चाहिए. जनमुखी पत्रकारिता का अगर कोई
पाठ्यक्रम बने तो इन्हें उसका हिस्सा भी अनिवार्य रूप से होना चाहिए. उन रपटों में
पत्रकारिता के स्थापित मानकों का उल्लंघन भी कई बार हुआ होगा लेकिन यह विश्लेषण का
विषय होगा कि ऐसा क्यों हुआ और ऐसा होने से रिपोर्ट को जो तेवर मिले, जनहित में वे कितने जरूरी थे. ‘नै स’ की इस तेवरदार पत्रकारिता का बीच के वर्षों में भले लोप हो गया हो, लेकिन वह धारा मौजूद थी और उत्तराखण्ड आंदोलन में वह सर्वथा नए रूप और
साहस के साथ प्रकट हुई. उस दौर का ‘उत्तराखण्ड बुलेटिन’ और गिर्दा का ‘उत्तराखण्ड काव्य’ सहमी-डरी जनता को सूचना, समाचार विश्लेषण और हिम्मत
देने वाली वाचिक पत्रकारिता के नायाब नमूने हैं.
‘नै स’ ने पहली बार
सम्पूर्ण उत्तराखण्ड को एक समाचार-इकाई के रूप में देखा. जब तथाकथित बड़े अखबार हर
जिले के अलग-अलग संस्करण निकाल कर एक जिले के पाठकों को दूसरे इलाके की खबरों से
वंचित कर रहे थे तब ‘नै स’ ने पूरे
उत्तराखण्ड की खबरें एक साथ परोसने का जरूरी काम किया और दूसरे अखबारों को भी राह
दिखाई. वह रूढ़ अर्थों में समाचार पत्र कभी नहीं रहा. जरूरी खबरों तथा
घटनाओं के अंदरूनी, गोपनीय पक्ष को उजागर करने के साथ ‘नै स’ उत्तराखण्ड के इतिहास, पुरातत्व, जल-जंगल-जमीन और खनिज की लूट, पलायन और प्रवास, विकास के नाम पर कच्चे पहाड़ के
विनाश, राजनीतिकों के दोहरे चरित्र,
प्रशासनिक तंत्र का अमानवीय चेहरा उजागर करने का काम करता रहा है. जरूरत पड़ने पर
न्यायालय को भी कटघरे में खड़ा करने का अत्यंत साहसिक काम उसने किया है, जिसकी भूमिका पर, चंद अपवादों को छोड़कर, मीडिया चुप ही रहता आया है.
ऐसे अनेक कारण हैं कि ‘नै स’ अपनी
सीमित प्रसार संख्या के बावजूद प्रभावशाली माना जाता है और महत्वपूर्ण हस्तक्षेप
करता है. इसीलिए जब-जब मुख्यत: आर्थिक संकट के कारण उसके बंद होने की नौबत आई या
कुछ समय के लिए उसे स्थगित किया गया, हर तरफ से उसे चलाए रखने की अपीलें हुईं और
मदद भी पहुंची. जिसने भी ‘नै स’
पढ़ा है, अंधेरे में एक रोशनी की वह उसे तरह जरूरी लगता है, क्योंकि आज की पत्रकारिता कतई भरोसेमंद नहीं रह गई. सच का मुंह स्वर्ण
पात्र से ढका है और आज पत्रकारिता सच का अन्वेषण भूल कर स्वर्ण पात्र की दीवानी हो
गई है.
इस सच के बावजूद कि ‘नै स’
हमारे समय का ‘रांख’ (छिलुकों का
मुट्ठा, जिसे जलाकर पहाड़ के लोग घने अंधेरे में भी रास्ता
पार करते आए हैं) या मशाल है, उसे इसी तरह बनाए और चलाए रखना
बहुत दिनों तक व्यावहारिक नहीं होगा जब तक कि उसे नई संकल्पवान टीम नहीं मिले.
संसाधन तो जैसे-तैसे जुट जाएंगे लेकिन विचार, तेवर और समर्पण
वाली टीम कहां से आएगी? पुरानी टीम के उम्र से भी चुकने का
समय आ रहा है. यह संकट सिर्फ ‘नैनीताल समाचार’ का नहीं ’पहाड़’ और दूसरी ऐसी
संस्थाओं/संगठनों के सामने भी है. उन्हें नए संवाहक चाहिए. तभी विचार, तेवर और जनमुखी पत्रकारिता की यह धारा प्रवहमान रह पाएगी.
(नैनीताल समाचार, 15 अगस्त-30 सितम्बर 2016)
http://www.nainitalsamachar.com/patrakarita-ke-andhere-mein-nainital-samachar-ka-hona/
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