नवीन जोशी
बीते सितम्बर में ऐसा क्या हुआ कि यू पी के युवा
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की त्योरियां चढ़ गईं? वह अखिलेश जो
पिछले साढ़े चार साल से पिता मुलायम की सार्वजनिक फटकार को ‘पिता
की डांट’ कह कर विनम्रता से सुन लेते थे, जो अपने चाचा और काबीना मंत्री शिवपाल के हस्तक्षेपों को चुपचाप अनदेखा कर
देते थे, क्यों सीना तान कर खड़े हो गए?
मुख्यमंत्री के रूप में अपने अधिकारों का प्रयोग करने साहस दिखाते हुए उन्होंने
गायत्री प्रसाद प्रजापति और राज किशोर सिंह को मंत्रिपरिषद से बर्खास्त कर दिया,
यह जानते हुए भी कि गायत्री प्रजापति पिता मुलायम और चाचा शिवपाल के
करीबी एवं बहुत खास है. उन्होंने मुख्य सचिव दीपक सिंघल को
भी हटा दिया, जिन्हें महीने भर पहले ही उन्होंने शिवपाल के
कहने पर यह कुर्सी सौंपी थी. और, जैसे इतना ही काफी न हो,
खुद शिवपाल के महत्वपूर्ण विभाग छीन लिए. अखिलेश अच्छी तरह जानते
रहे होंगे कि उनके इन कदमों की कैसी प्रतिक्रिया होगी, जो कि
फौरन हुई भी.
आखिर अखिलेश ने ये कदम क्यों उठाए? आज समाजवादी पार्टी टूट की कगार पर है, यादव परिवार
और पार्टी में साफ-साफ दो पाले खिंच गए हैं, पहली बार मुलायम
के वर्चस्व को चुनौती मिली है और आसन्न चुनावों में पार्टी को कलह का नुकसान होने
की पूरी संभावना है. मान-मनौवल के मुलायम के लगातार प्रयासों के बावजूद अखिलेश ने
अपने विद्रोही सुर बरकरार रखे हैं. यहां तक कि उन्होंने उन्हीं तारीखों में रथ-यात्रा
पर अकेले निकलने का ऐलान कर दिया है जिन दिनों सपा अपनी स्थापना की रजत जयंती मना
रही होगी. अखिलेश की इस बगावत के कुछ खास कारण हैं और उनकी जड़ें सन 2012 तक फैली हैं, जब चाचा शिवपाल के विरोध के बावजूद पिता मुलायम ने उन्हें मुख्यमंत्री बना
दिया था.
पहला, सरकार चलाने की आजादी न मिलना:
मुख्यमंत्री बना दिए जाने के बावजूद अखिलेश सरकार चलाने के लिए स्वतंत्र नहीं रहे.
मंत्रियों के चयन से ले कर विभागों के वितरण तक में उनकी राय का महत्व नहीं था.
शुरू-शुरू में अनुभव की कमी के कारण पिता और चाचा के हस्तक्षेप को स्वाभाविक माना
गया. लेकिन समय बीतने के बावजूद यही होता रहा. शिवपाल ने धीरे-धीरे ज्यादातर
महत्वपूर्ण विभाग खुद ले लिए. सरकार के निर्णयों पर भी मुलायम और चाचाओं की छाप
रहती. अफसरों की तैनाती और तबादलों की सूची अखिलेश के जारी करने के बावजूद रोक दी
जाती या बिना बताए बदलवा दी जाती. प्रदेश में ‘साढ़े तीन मुख्यमंत्री’
होने का विपक्ष का आरोप यूं ही नहीं लगता रहा. मुख्यमंत्री की
प्रमुख सचिव वास्तव में मुलायम की निजी सचिव के तौर पर काम करती हैं. वक्त के साथ
यह कुण्ठा अखिलेश के भीतर जमा होती रही.
दूसरा, नकारात्मक छवि और आसन्न चुनाव: युवा अखिलेश अपनी सरकार ही की नहीं, समाजवादी पार्टी की छवि भी साफ-सुथरी बनाना चाहते थे. मुख्यमंत्री बनने कै
बाद निजी बातचीत में अखिलेश ने इस लेखक से कहा था कि यह मेरे राजनीतिक करिअर की
शुरुआत है. मुझे अच्छे नतीजे दिखाने होंगे और सरकार के साथ-साथ पार्टी की पुरानी
छवि भी सुधारनी होगी. तभी मैं लम्बी पारी खेल सकूंगा. लेकिन उन्होंने पाया कि उनके
हाथ बंधे है.
चुनाव के करीब जब शिवपाल की पहल पर माफिया मुख्तार अंसारी
की पार्टी का सपा में विलय का फैसला लिया गया तो अखिलेश ने अपने हाथ खोलने का
निर्णय किया. उनके विरोध का शुरू में सम्मान हुआ. उसी के बाद अखिलेश ने तय किया कि
संगीन आरोपों से घिरे मंत्रियों की छुट्टी कर सरकार की छवि सुधारने का यही सही समय
है. गायत्री प्रजापति और राजकिशोर जैसे मंत्रियों की बर्खास्तगी इसी का नतीजा थी, जिसमें मुलायम की सहमति भी उन्होंने ले ली थी. लेकिन स्वतंत्र मुख्यमंत्री
के रूप में अखिलेश शिवपाल को मंजूर नहीं हुए, जिनकी खुद की
छवि अच्छी नहीं है. शिवपाल ने विरोध किया तो मुलायम ने बेटे की बजाय भाई का साथ
दिया.
पार्टी की सफाई तो दूर, अपनी ही सरकार
की धुलाई-पुछाई नहीं करने दिए जाने से अखिलेश का नाराज होना स्वाभाविक है, जबकि प्रचारित यही किया जा रहा था कि अगला चुनाव युवा मुख्यमंत्री की
साफ-सुथरी छवि के आधार पर लड़ा जाएगा.
तीसरा, वादाखिलाफी: कलह के पहले दौर में मुलायम ने सुलह करा दी थी.
शिवपाल और अखिलेश को अपने सामने बैठा कर मुलायम ने जो फार्मूला तय किया था, उसमें शिवपाल कै विभागों और मंत्री के रूप में गायत्री की वापसी के साथ प्रदेश अध्यक्ष के रूप
में अखिलेश की बहाली शामिल थी. अखिलेश का ‘मान’ बनाए रखने के लिए टिकट वितरण में उन्हें बराबर
अधिकार देने की बात थी. यह बताते हुए अखिलेश ने उसी दोपहर एक चैनल के कार्यक्रम
में यह भी घोषणा की थी कि नेता जी और हमने तय किया है कि परिवार के बीच कोई ‘बाहरी’ अब नहीं आएगा, ‘बाहरी’ को बाहर कर दिया जाएगा. तब सभी ने यही समझा था कि अमर सिंह पर कार्रवाई
होगी.
हुआ ठीक उलटा. अखिलेश को प्रदेश सपा अध्यक्ष का पद वापस
नहीं दिया गया. टिकट वितरण का अधिकार देने के लिए संसदीय बोर्ड में बड़ा पद देने की
बात भी हवा में रह गई और आश्चर्यजनक रूप से अमर सिंह को पार्टी का राष्ट्रीय
महामंत्री बनाने का ऐलान खुद मुलायम ने अपने हाथ से लिख कर किया. अखिलेश के लिए यह
वादाखिलाफी थी, अपमान की हद तक.
चौथा, जले पर नमक: ‘सुलह’ के बाद प्रदेश सपा अध्यक्ष की हैसियत से शिवपाल
ने सबसे पहले अखिलेश के समर्थकों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए उन्हें पार्टी
से निकाल दिया. यह कार्रवाई एकतरफा थी. अखिलेश के खिलाफ नारे लगाने वाले शिवपाल
समर्थकों से पूछ-ताछ तक नहीं की गई. टिकट वितरण में अखिलेश को अधिकार देने की बात
का मखौल उड़ाते हुए उनके समर्थकों का पूर्व में घोषित टिकट भी शिवपाल ने काट दिया.
यह अखिलेश के लिए बहुत अपमानजनक था. फिर, जले पर नमक छिडकने
की तरह मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल के सपा में विलय को ‘पहले ही हुआ’ मान लेने की घोषणा कर दी गई. मुलायम
लगातार शिवपाल के साथ खड़े दिखे.
विद्रोही तेवर बरकार रखने के सिवा अखिलेश के पास कोई चारा
नहीं बचा.
अब अगर कोई यह कहे कि आसन्न चुनावों में सम्भावित हार की
जिम्मेदारी से बेटे अखिलेश को बचाने के लिए यह मुलायम का रचा नाटक है या इसी कारण
खुद अखिलेश अपनी स्वच्छ छवि बनाए रखने के लिए अलग राह चुन रहे हैं, तो हंसा ही जा सकता है. (प्रभात खबर, 23 अक्टूबर, 2016)
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