नवीन जोशी
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और पार्टी के अन्य नेताओं की
मौजूदगी में मंच से अगर “जय श्री राम” की बजाय महात्मा बुद्ध, डॉ अम्बेदकर और सम्राट अशोक की जय-जय कार हो तथा मायावती को दलित-विरोधी
साबित किया जाए तो समझना चाहिए कि दलित जातियों के समर्थन के लिए भाजपा कितनी
बेकरार है. यह नजारा 14 अक्टूबर को कानपुर
में ‘धम्म चेतना यात्रा’ के समापन अवसर
का है. बौद्ध भिक्षुओं की अगुवाई में गृह मंत्री राज नाथ सिंह ने यह यात्रा बीती
24 अप्रैल को सारनाथ से शुरू कराई थी. 174 दिन की इस यात्रा में मुख्यत: भाजपा का
दलित हितैषी चेहरा प्रचारित किया गया.
अमित शाह और उनकी टीम को लगता है कि यूपी की सत्ता हासिल
करने के लिए दलितों का समर्थन पाना होगा. कम से कम, दलितों के एक
वर्ग को बसपा से दूर करना जरूरी है. इसका कारण भी है. यादव-मुस्लिम समर्थन
समाजवादी पार्टी को मजबूत करता है तो व्यापक दलित समर्थन बहुजन समाज पार्टी को बड़ी
ताकत है. एक लम्बे समय से ये दोनों पार्टियां अपने इसी आधार के बूते यूपी की सत्ता
में आती रही हैं.
वर्तमान में कुछ सत्ता विरोधी रुझान, कुछ मुस्लिम नाराजगी और ताजा आंतरिक कलह सपा के खिलाफ जाता लगता है. इसका
लाभ बसपा को न मिल जाए, इसके लिए भाजपा की रणनीति है कि बसपा
के दलित आधार को कमजोर किया जाए. बसपा कमजोर नहीं हुई और कहीं मुसलमान भी उसकी तरफ
झुक गए तो भाजपा के लिए निश्चय ही बड़ी मुश्किल हो जाएगी.
इसलिए भाजपा दो मोर्चों पर काम कर रही है. पहला, बसपा में तोड़-फोड़ मचा कर उसके ज्यादा से ज्यादा नेताओं को भाजपा में लाना
और दूसरा, दलितों को रिझाने के लिए कई तरह के अभियान और
कार्यक्रम चलाना.
बसपा के कई नेताओं को भाजपा अपने पाले में खींच लाने में
सफल रही है. खासकर, कांशीराम के समय से बसपा की रीढ़ रहे दलित
नेता जुगल किशोर और पिछड़े नेता स्वामी प्रसाद मौर्य के आने को भाजपा बड़ी उपलब्धि मानती
है. प्रमुख पासी नेता आर के चौधरी पर भी भाजपा ने खूब डोरे डाले लेकिन चौधरी ने
बसपा से बाहर आकर स्वतंत्र रहना बेहतर समझा. बसपा के बागियों से भाजपा को लाभ हो
या नहीं, बसपा में
मायावती के खिलाफ बगावत और भगदड़ का संदेश जरूर फैल गया.
अपनी दलित हितैषी छवि बनाने और दलित समाज तक उसे पहुंचाने
के लिए भाजपा बहुत प्रयत्नशील है. 2014 में केन्द्र की सत्ता में आने के बाद से ही
वह अम्बेदकर के महिमा मण्डन में लग गई थी. लोक सभा चुनाव में यूपी की सभी 17
सुरक्षित सीटें जीतने से भाजपा का यह मानना स्वाभाविक ही था कि दलित वर्ग के वोट
भी उसे अच्छी संख्या में मिले हैं. वह अपने इन नए वोटरों को आगे भी जोड़े रखना
चाहती है.
बिहार विधान सभा चुनाव में उसने दलित वोटरों को रिझाने के
लिए काफी मशक्कत की थी. बिहार के कई दलित नेताओं को पार्टी में शामिल करने के
अलावा पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम माझी से गठबंधन किया था. लेकिन आर एस एस प्रमुख
मोहन भागवत ने आरक्षण खत्म करने वाला बयान देकर उसके दलित प्रेम की हवा निकाल दी थी.
फिर कोई सफाई भाजपा के काम नहीं आई.
उसके बाद हैदराबाद में शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या
और उस पर भाजपा मंत्रियों के बयानों ने भाजपा के दलित हितैषी अभियान को बड़ा धक्का
पहुंचाया. इससे उबरने के लिए उसने यू पी में दलितों के बीच सघन कार्यक्रम शुरू किए. भाजपा और आर एस एस दोनों इस अभियान
में शामिल हैं.
22 जनवरी, 2016 को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लखनऊ
आए तो डॉ भीम राव अम्बेदकर महासभा के कार्यालय जाना उनके दौरे का महत्वपूर्ण
कार्यक्रम था. वहां उन्होंने अंबेदकर के अस्थिकलश पर फूल चढ़ा
कर शीश नवाया. उसी दौरान वाराणसी के संत रविदास मंदिर में प्रधानमंत्री ने पूजा की और प्रसाद ग्रहण किया.
यह सब दलित समाज को स्पष्ट संदेश देने के लिए ही था.
इस वर्ष के प्रारम्भ में ही आर एस एस के अवध प्रांत की लखनऊ
में हुई समन्वय बैठक में सह-सरकार्यवाह ने
स्वयंसेवकों से अपील की थी कि वे दलितों के बीच ‘सेवा कार्य’ करें. इसके तहत एक दलित परिवार को गोद
लेना और उनके साथ भोजन ग्रहण करना शामिल है. इस ‘सेवा कार्य’
में बड़े भाजपा नेता भी शामिल हुए. खुद अमित शाह ने प्रधानमंत्री के
चुनाव क्षेत्र वाराणसी में एक दलित परिवार के घर खाना खाया जिसका व्यापक प्रचार
किया गया था.
भाजपा के उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति मोर्चा ने गणतंत्र
दिवस से एक अभियान शुरू किया जिसका शीर्षक था “डॉ अम्बेदकर सबके हैं.” एक महीने तक
पूरे प्रदेश में चले इस अभियान में दलित बस्तियों में जाकर अम्बेदकर के योगदान को
याद किया गया. यह भी बताया गया कि नरेंद्र मोदी सरकार समाज के वंचित लोगों के लिए
क्या-क्या कर रही है.
लेकिन इस पूरे दौर में भाजपा केअपने ही फुटकर संगठन उसे
दलित-उत्पीड़क साबित करने पर तुले रहे. रोहित वेमुला की आत्महत्या का मुद्दा तो
गर्म था ही, तथाकथित गोरक्षकों ने गोरक्षा के नाम पर जगह-जगह दलितों और
मुसलमानों का जिस तरह उत्पीड़न किया, वह भाजपा के दलित हितैषी
अभियान पर भारी पड़ा है. प्रधानमंत्री द्वारा ‘फर्जी’ गोरक्षकों की प्रताड़ना के बाद मामला कुछ शांत हुआ लगता है लेकिन भाजपा और
संघ के बेकाबू संगठनों ने इस अभियान के अंतर्विरोध खूब उजागर कर दिए. भाजपा को जो नुकसान वे पहुंचा गए, उसकी भरपाई मुश्किल ही लगती है. ( बीबीसी.कॉम)
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