Tuesday, February 20, 2018

2018 में 2019 का नजारा


सन 2019 के लोक सभा चुनावों का देश को बड़ा इंतज़ार है. भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के सहारे 2014 की तुलना में सत्ता बचाने में कितनी कामयाब होगी? राहुल की अध्यक्षता में कांग्रेस अपने सबसे खराब चुनाव-परिणाम को सुधार सकेगी? विपक्षी दल अंतत: भाजपा-विरोधी मोर्चा बना कर भाजपा को सत्ता से दूर रख पाएंगे? क्षेत्रीय दलों की राजनीति का क्या भविष्य होगा? ऐसे कई सवाल मुंह बाये हैं.

इनमें से कुछ का जवाब या कम से कम उसका बड़ा संकेत 2018 में मिल जाने वाला है. इस पूरे वर्ष हम कम से कम आठ राज्य विधान सभाओं के चुनाव देखेंगे. जिन राज्य विधान सभाओं के चुनाव नतीजे अगले वर्ष के लोक सभा चुनाव का पूर्वालोकन कराएंगे, उनमें कुछ में भाजपा और कांग्रेस की सीधी टक्कर होगी तो कुछ में क्षेत्रीय दलों की अपनी जनता पर पकड़ का इम्तहान होगा. जातीय-धार्मिक समीकरणों का खुला चुनावी खेल भी दिखाई देगा. मध्यवर्गीय जातियों से लेकर जनजातियों तक का राष्ट्रीय-प्रान्तीय रुख सामने आयेगा. एक तरह से इस वर्ष होने वाले विधान सभा चुनाव पूरे देश के चुनावी परिदृश्य का नमूना होंगे.

त्रिपुरा में मतदान हो चुका है. होली के अगले दिन उसके नतीजे आएंगे. मेघालय, नगालैण्ड और कर्नाटक के चुनाव  जल्दी ही होने हैं. फिर वर्ष के उत्तरार्ध में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के चुनाव होंगे.

त्रिपुरा की साठ में से बीस सीटें आदिवासियों के लिए सुरक्षित हैं और वे लम्बे समय से वामपंथियों, विशेषकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (माकपा) के साथ हैं. इस बार भाजपा ने उन्हें अपने पाले में लाने के लिए बहुत परिश्रम किया है. आरएसएस और भाजपा के कार्यकर्ता करीब एक साल से आदिवासियों के बीच रहे और उन्हें राज्य में बदलाव के लिए भाजपा के पक्ष में करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी. क्या इस बार भाजपा इस वाम-गढ़ (पिछले चुनाव में 60 में 49 सीटें वाम मोर्चे ने जीती थीं) को भेद पायेगी? ऐसा हुआ तो बंगाल में भी भाजपा की उम्मीदें परवान चढ़ेंगी, जहां फिलहाल ममता बनर्जी की पकड़ काफी मजबूत दिखती है.

मेघालय और नगालैंड में 27 फरवरी को मतदान होना है. मेघालय उन कुछ राज्यों में है जहां अभी कांग्रेस सत्ता में है. 2013 के चुनाव में उसे 60 में 29 सीटें मिली थीं. राज्य की करीब 75 प्रतिशत जनता ईसाई है. इसलिए कांग्रेस और भाजपा दोनों में चर्च का समर्थन पाने की होड़ लगी हैं. दक्षिण भारत से कई कांग्रेसी ईसाई नेता राज्य में डेरा डाले हैं तो भाजपा ने केंद्रीय पर्यटन मंत्री एल्फोंस को कमान सौंपी हुई है. भाजपा की जमीनी फौज पूरी कोशिश में है कि पूर्वोत्तर भारत के इस राज्य में भी केसरिया फहराया जाए.

नगालैण्ड की निरंतर उठापटक वाली राजनीति में क्षेत्रीय दलों के सहारे भाजपा अपनी पकड़ मजबूत करने में लगी है. अभी नगालैंड पीपुल्स पार्टी के नेतृत्त्व वाली सरकार में भाजपा साझीदार है लेकिन इस बार उसने नेशनल डेमोक्रिटिक प्रोग्रेसिव पार्टी से गठबंधन किया है. नगा पार्टियों भाजपा की तरफ इस उम्मीद में हैं कि 2015 में मोदी सरकार ने जिस नगा समझौते का ऐलान किया था, वह 2019 के आम चुनाव से पहले फलीभूत हो जायेगा. इस समझौते का श्रेय लेने के लिए क्षेत्रीय दल भाजपा से रिश्ता बनाये रखना चाहते हैं. इस कारण कांग्रेस हाशिये पर लगती है. पिछली बार भी उसके सिर्फ आठ विधायक थे. जनजाति बहुल मिजोरम में दिसम्बर तक चुनाव होंगे, जहां भाजपा अब तक मजबूत कांग्रेस को अपदस्थ करने की रणनीति बना रही है.

इस वर्ष के पूर्वार्द्ध में सबसे रोचक चुनाव कर्नाटक में होने वाला है. कांग्रेस अपनी सरकार बचाने के लिए पूरा जोर लगा रही है तो भाजपा उससे सत्ता छीनने के लिए. नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी बराबर कर्नाटक का दौरा कर रहे हैं. राज्य की प्रभावशाली वोक्कालिंगा और लिंगायत जातियों का समर्थन हासिल करने की तिकड़में जारी हैं. जाति की राजनीति को धर्म की चासनी में लपेटा जा रहा है. राहुल गांधी का मंदिर जाना गुजरात की तरह यहां भी मुद्दा है. भाजपाई प्रचार कर रहे हैं कि राहुल मुर्गा खा कर मंदिर जाते हैं. मुख्यमंत्री सिद्धारमैया गड़रिया जाति के हैं. यह नरेंद्र मोदी की पिछड़ी जाति की काट के रूप में पेश किया जा रहा है. कांग्रेस कर्नाटक की सत्ता बचा पायी तो 2019 के लिए उसे बड़ी ताकत मिल जायेगी. हार हुई तो स्वाभाविक ही उसकी मुश्किलें बढ़ जाएंगी.

भाजपा शासित राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सत्ता बचाना भाजपा के लिए कठिन चुनौती है तो कांग्रेस के लिए 2019 की उम्मीद भी इन्हीं राज्यों से निकलनी है. छत्तीसगढ़ में रमन सिंह और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह का तीसरा कार्यकाल चल रहा है. सत्ता विरोधी रुझान जाहिर है कि वहां मौजूद हैं. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस (39) ने पिछली बार भी भाजपा (50) को अच्छी टक्कर दी थी. मध्य प्रदेश में जरूर कांग्रेस (57) और भाजपा (167) के बीच बहुत बड़ी दूरी रही थी.

राजस्थान और मध्य प्रदेश की सरकारों को किसानों के सत्ता विरोधी उग्र प्रदर्शनों का सामना तो करना ही पड़ा है, गोरक्षा के नाम पर साम्प्रदायिक हिंसा और वैमनस्यता फैलाने वाली राजनीति के लिए भी वे निशाने पर हैं. दलितों पर अत्याचार की घटनाओं के कारण भी ये सरकारें नाराजगी झेल रही हैं. मगर कांग्रेस के लिए मध्य प्रदेश का मोर्चा आसान नहीं लगता. लगातर 15 साल से सत्ता से बाहर रहने के कारण कांग्रेस संगठन बिखर गया है. कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया के होने के बावजूद पार्टी का ढांचा बहुत कमजोर है. कम समय में मजबूत संगठन खड़ा करना राहुल गांधी की परीक्षा होगी. छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस के पास कोई बड़ा और सुपरिचित चेहरा भी नहीं है.

2013 के चुनाव में राजस्थान में भाजपा (163) के मुकाबले कांग्रेस (21) बहुत पीछे रह गयी थी लेकिन आज वसुंधरा राजे की सरकार सबसे कमजोर पायदान पर नजर आती है. हाल में हुए तीन लोक सभा व विधान सभा  उपचुनाव कांग्रेस ने बड़े अन्तर से जीते. युवा सचिन पायलट और बुजुर्ग अशोक गहलौत की टीम वसुंधरा राजे के लिए कठिन चुनौती है. सच तो यह है कि कांग्रेस के लिए सत्ता में वापसी का सबसे अच्छा अवसर राजस्थान में ही उपलब्ध है. हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष बने राहुल गांधी इस अवसर का कैसे और कितना लाभ उठा पाएंगे? 2019 का उनका सेनापतित्त्व इस पर काफी हद तक निर्भर करेगा. प्रधानमंत्री मोदी की परीक्षा इस मायने में होगी की वे वसुंधरा राजे की नैया पार लगाने में कितना कामयाब होंगे?

इस तरह 2018 जाते-जाते हमें 2019 के संग्राम का नजारा दिखा चुका होगा.
     
(प्रभात खबर, 21 फरवरी 2108) 

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