Saturday, February 24, 2018

जनता को लगे तो कि वह भी शामिल है



कौन नहीं चाहेगा कि अपने राज्य में अरबों-खरबों रु का निवेश हो, उद्योग-धंधे लगें, फलें-फूलें और युवाओं को यहीं बेहतर रोजगार मिले. आशा करनी चाहिए कि यूपी इनवेस्टर्स समिट में लाखों करोड़ रु के जिन निवेश-आशय-पत्रों पर हस्ताक्षर हुए हैं, उनमें से अधिकसंख्य पर वास्तव में अमल होगा. ऐसे निवेशक सम्मेलनों और हस्ताक्षरित इच्छा-पत्रों का अब तक का हमारा अनुभव अच्छा नहीं रहा है. पिछली कुछ सरकारों ने मुम्बई से लखनऊ तक, यहां तक कि विदेशों में भी प्रदेश में निवेश के लिए जो सम्मेलन किये, वे अमल में आये ही नहीं. दावा किया जा रहा है कि इस बार ऐसा नहीं होगा, यह सरकार औरों से अलग है. कामना है कि ऐसा ही हो.

निवेशकों का जोरदार स्वागत करना आवश्यक था लेकिन आम गरीब जनता को सड़कों-फुटपाथों से भी दूर कर देना, सम्मेलन स्थल के इर्द-गिर्द बड़े इलाके में स्कूल-कॉलेजों-दफ्तरों को बंद करना क्यों जरूरी हुआ? आखिर निवेश की यह सारी कवायद जनता के हित में नहीं है क्या? अरबों-खरबों के निवेश से विकास के जो सपने दिखाये जा रहे हैं, वह अंतत: जनता के हिस्से ही आनी चाहिए. इसलिए समिट के दायरे में उसकी सामान्य उपस्थिति अस्वीकार्य नहीं होनी चाहिए थी.

इतने बड़े समिट में जहां राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, तमाम केंद्रीय मंत्री और देश-विदेश के उद्यमी आ-जा रहे हों, सुरक्षा-व्यवस्था महत्त्वपूर्ण हो जाती है. निर्बाध यातायात आवश्यक हो जाता है. बाकी समय शहर की जिंदगी का जरूरी हिस्सा बना रहने वाला अतिक्रमण हटाना भी तब जरूरी लगता है. लेकिन ऐसा क्यों जरूरी हुआ कि खास सड़कों पर बसें, टेम्पो-टैक्सियां नहीं चलने दिये गये, ठेला-खोंचा लेकर रोजाना की रोटी कमाने वाले निकल ही नहीं पाये? लोग किसी प्रकार की निर्माण सामग्री नहीं ढो पाये और इलाके के अस्पताल तक जाना भी मुश्किल हो गया.

साफ-सुथरा, सजा-धजा शहर सचमुच कितना अच्छा लगता है. वैसी सजावट छोड़ दीजिए, सामान्य साफ-सफाई और सहज यातायात रोजाना क्यों नहीं हो सकते? जो जितना गरीब इलाका वह उतना ज्यादा गंदा रहता है. सफाई और सजावट वीआईपी इलाकों में ही की जाती है. बेहतरी का कोई अहसास सामान्य जन को क्यों नहीं कराया जाता? समिट के दौरान ही शहर सुंदर क्यों हो? वैसी मुस्तैदी बाकी दिन भी क्यों नहीं हो सकती? जनता के मन में यह सवाल उठ रहे हैं तो गलत है?

जिस उत्साह तथा  गौरव-बोध से सरकारी विभागों ने शहर को सजाया, वैसा आनन्द और गर्व जनता क्यों महसूस नहीं करती? ताजा रंगे डिवाइडरों, पोस्टरों पर पान की पीक के धब्बे गवाह हैं कि जनता को उनसे कोई मोह नहीं. यदि उसे लगता कि उस आयोजन में उसकी भी भागीदारी है, वह भी इस समिट के केंद्र में है तो उसका लगाव होता. वह उन प्रतीकों की रक्षा करती.

हम अपने घर की दीवारों पर नहीं थूकते. मेट्रो से लेकर समिट के पोस्टरों को बिना संकोच गंदा कर डालते हैं. सड़क के पौधे और सजावटी बल्ब चुरा ले जाते हैं. सिर्फ इसलिए क्योंकि शहर से हमारा लगाव नहीं बना. उसे हमने अपने घर जैसा नहीं समझा. यह लगाव पैदा करने में हमारा तंत्र हमेशा चूक जाता है. कोई भी सरकार हो, जनता को ऐसे आयोजनों से जोड़ा नहीं जाता. उलटे, सरकारी रवैये से वह अलगाव ही महसूस करती है.  यह अलगाव समाप्त करना प्राथमिकता में होना चाहिए.

 (सिटी तमाशा, 24 फरवरी, 2018)



1 comment:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

एक हकीकत बयान करता हुआ ख़ूबसूरत लेख। बिल्कुल सही कहा, हमारे काम ऐसे होने चाहिए जिससे आमजन भी जुड़ा महसूस कर सके। क्यों नहीं जैसी सड़के, साफ़-सफाई और अच्छा माहौल हम खास लोगों के लिये चाहते हैं, आम लोगों को भी उपलब्ध कराते ? क्यों नहीं हम अपने राज्य में वे काम करते जिससे आम आदमी लाभान्वित हो और उसमें अपना भी योगदान करना चाहे? गेस्ट को आप लुभावना स्वागत अवश्य दें, पर आम आदमी को उसका एक अंश तो दें ।