Wednesday, February 07, 2018

अबकी बारी, अधिकारी



“अजब रिवाज बन गया है. मुस्लिम मुहल्लों में जुलूस ले जाओ और पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाओ. क्यों भाई, वे पाकिस्तानी हैं क्या? चीन तो बड़ा दुश्मन है, तिरंगा लेकर चीन मुर्दाबाद क्यों नहीं?”

उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के डी एम राघवेंद्र विक्रम सिंह ने बीती 28 जनवरी को फेसबुक पर यह टिप्पणी लिखी. दो दिन पहले गणतंत्र दिवस पर पड़ोसी कासगंज में हिंदू जागरण मंच की तिरंगा यात्रा के एक मुस्लिम मुहल्ले से गुजरने के दौरान दंगा हो गया, जहां पहले से राष्ट्रीय ध्वज फहराने की तैयारी थी. बरेली के डी एम अपनी फेसबुक वॉल पर बता रहे थे कि ऐसा ही उनके जिले में भी हो चुका है.

इस पर श्री सिंह को प्रदेश सरकार ने लखनऊ तलब कर लिया. उन्होंने अपनी पोस्ट हटा ली और किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए माफी मांगी. प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद वर्मा ने कि वे राजनैतिक नेताओं की भाषा बोल रहे हैं. उनके खिलाफ कार्रवाई होगी. फिलहाल डी एम के खिलाफ जांच जारी है.

28 जनवरी को ही उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी, होम गार्ड के महानिदेशक सूर्य कुमार शुक्ला ने लखनऊ विश्वविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम के मंच पर अयोध्या में जल्द से जल्द राम मंदिर बनाने का संकल्प लिया. वीडियो वायरल होते ही वे इसकी सफाई देने में लग गये लेकिन किसी मंत्री ने नहीं कहा कि यह आईपीएस अधिकारी राजनैतिकों की भाषा बोल रहा है. न स्पष्टीकरण मांगा गया. मुख्यमंत्री योगी की ने सिर्फ नाराजगी व्यक्त की. 

इस पर 2016 के दो ऐसे ही किस्सों की याद आ गयी.  पहला किस्सा मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले के तत्कालीन कलेक्टर अजय गंगवार का है. उन्होंने फेसबुक पर एक पोस्ट को लाइककर दिया था जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना और पूर्व प्रधानमंत्री जवाहलाल नेहरू की प्रशंसा की गयी थी. उन्होंनेअपनी तरफ से यह भी जोड़ा था कि नेहरू को आखिर कौन सी गलती नहीं करनी चाहिए थी. क्या यह गलती थी कि उन्होंने 1947 में हमें हिंदू तालिबानी राष्ट्र बनने से बचा लिया?’ मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने फौरन श्री गंगवार का भोपाल तबादला कर उनसे स्पष्टीकरण मांग लिया था.

लगभग उसी दौरान भाजपा शासित छत्तीसगढ़ के आईएएस अधिकारीअलेक्स पॉल मेनन ने फेसबुक पर लिखा कि देश में फांसी पर लटकाये जाने वालों में 94 फीसदी दलित और मुस्लिम होते हैं. उन्होंने न्याय-व्यवस्था पर भी सवाल उठाया था. इस टिप्पणी के लिए मेनन को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया. इससे पहले भी एक बार जब मेनन ने हैदराबाद विश्वविद्यालय और जेनयू में छात्रों के आंदोलन पर कुछ पोस्ट शेयर की थीं तो भाजपा नेताओं ने राष्ट्रद्रोहियोंका समर्थन करने का आरोप लगाते हुए हंगामा मचाया. उनके दवाब में मेनन को वे पोस्ट हटानी पड़ी थीं. सरकार ने भी नाराजहुई थी.

इन दो वाकयों के तुरंत बाद जुलाई 2016 में मोदी सरकार ने अधिकारियों के लिए नये दिशा-निर्देश प्रस्तावित किये. इनके अनुसार अधिकारियों को सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने की इजाजत तो है लेकिन वे सरकार, उसके कार्यक्रमों एवं नीतियों के खिलाफ कुछ नहीं लिख सकते.

आकाशवाणी और दूरदर्शन पर सरकारी अधिकारी-कर्मचारी सरकार की नीतियों का विरोध नहीं कर सकते, यह पहले से उनकी सेवा नियमावली का हिस्सा था लेकिन सोशल मीडिया पर ऐसी पाबंदी पूर्व की सरकारों ने नहीं लगाई थी. ऐसा लगता है कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के दो वरिष्ठ अधिकारियों की फेसबुक पोस्ट की प्रतिक्रिया में मोदी सरकार ने यह कदम उठाया. नये निर्देशों में न केवल रेडियो, टेलीविजन और सोशल मीडिया का उल्लेख है, बल्कि संवाद के किसी भी माध्यमपर और अज्ञात नाम से भी सरकार की आलोचना की मनाही है.

सन 2012 में यूपीए सरकार ने भी सोशल मीडिया के बढ़ले चलन और प्रभाव को देखते हुए सरकारी विभागों और अधिकारियों के लिए कुछ दिशा निर्देश जारी किये थे. इसमें कहा गया था कि कोई भी गोपनीय सूचना और अपुष्ट तथ्य सोशल मीडिया पर न दिये जाएं. जब तक अधिकृत न हों, अदालत में विचाराधीन मामलों और प्रस्तावित कानूनों पर टिप्पणी न करें. अधिकारियों को व्यक्तिगत क्षमता से सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने की छूट देते हुए कहा गया था कि अपनी पहचान अवश्य स्पष्ट करें.

आईएएस अधिकारी सरकार का ही हिस्सा होते हैं. उनसे सरकार और उसके कार्यक्रमों की सार्वजनिक आलोचना की अपेक्षा नहीं की जाती. मगर क्या उनकी ऐसी निजी राय पर भी बंदिश लगाई जा सकती है, जिसका कोई संबंध सरकार की नीतियों-कार्यक्रमों से न हो?

जिलाधिकारी की जिम्मेदारी है कि वह शांति एवं कानून व्य्वस्था कायम रखे. तिरंगा यात्रा के बहाने अगर कुछ लोग मुस्लिम मुहल्लों में अशांति फैलाने की कोशिश करते हैं तो वह अपना क्षोभ भी व्यक्त नहीं कर सकता? रोक लगाने की बात पर कहा गया कि तिरंगा लेकर चलने की भी अनुमति लेनी होगी? यह अलग बात है कि जब कई जिलों में ऐसी साजिशें होने लगीं तो खुद उत्तर प्रदेश सरकार ने तिरंगा यात्रा पर रोक लगा दी.

बरेली के डीएम के बाद सहारनपुर जिले की उप-निदेशक (सांख्यिकी) रश्मि वरुण ने फेसबुक पर लिखा कि कासगंज हिंसा में एक की मौत के पीछे भगवाहाथ है. उनसे फौरन स्पष्टीकरण मांग लिया गया. रश्मि ने अपनी टिप्पणी हटा ली. माना कि भगवाशब्द का प्रयोग गलत था.  प्रदेश के कई आईएएसअधिकारियों की राय में बरेली डीएम की फेसबुक पोस्ट में कुछ गलत नहीं था. कुछ मानते हैं कि सरकारी सेवा में रहते उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था.

प्रश्न है कि क्या बरेली के डीएम या रश्मि वरुण की टिप्पणी सरकार और उसकी नीतियों की आलोचना है? सेवा नियमावली और दिशा-निर्देशों का उल्लंघन है? सवाल यह भी कि डी जी (होमगार्ड) का सार्वजनिक समारोह में राम मंदिर बनाने का संकल्प लेना सेवा नियमावली का उल्लंघन नहीं है? उनसे स्पष्टीकरण मांगना भी जरूरी नहीं समझा गया. क्या वे सरकारी नीतियों का समर्थन कर रहे हैं?

आईएएस-आईपीएस संवर्ग का बहुत राजनैतीकरण हो चुका है. अलग-अलग दलों के अपने पसंदीदा अधिकारी हैं. स्टील फ्रेमकहलाने वाली यह सेवा कबके झुक चुकी. तो भी कुछ अधिकारी होते हैं जो साहसिक फैसले लेते और अपने हिसाब से सही बात कहते हैं. सभी सरकारें उन्हें प्रताड़ित करती हैं. सोशल मीडिया के बहाने प्रताड़ना का यह नया दौर शुरू हुआ है. छतीसगढ़ के मेनन ने आदिवासियों के लिए काफी काम किया है. एक बार माओवादियों ने उनका अपहरण कर लिया था. लेकिन सोशल मीडिया की राष्ट्रवादी टीम ने उन्हें राष्ट्रद्रोही घोषित करने में देर नहीं लगाई. यही हाल शुक्ला और वरुण का हो रहा है, जबकि होमगार्ड के डीजी हीरोहैं.
(प्रभात खबर, 7 फरवरी, 2018)
    
  


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