Friday, March 09, 2018

अगर मौसम का राग-रंग देखने की फुर्सत हो



रंग खेल चुकने के बाद के उदास दिनों में, तेज होती हवा के साथ जहां-तहां पीले पत्ते गिराते मौसम में खिल-खिल हंसता सेमल का पेड़ सामने आ खड़ा होता है. उसने अपनी सारी हंसी-खुशी और उमंगशाखाओं के अनगिन पुष्पों में बिखेर दी है, जैसे यह कहते हुए कि भला ये भी उदास होने के दिन हैं!

सेमल का उलाहना एकाएक अद्भुत आनंद और उत्साह जगा देता है. कंक्रीट के इस जंगल में भी जहां देखिए प्रकृति नाना विधि उत्सव मचाये हुए है. आम-वृक्ष तो शहर में बहुतायत में दिख जाते हैं, जिनकी डालें सुनहरे बौरों के अतिरेक से इतरा रही हैं. सहजन के सफेद फूल झर-झर कर अपने पीछे नाजुक पतली फलियों को फलो-फलो, जल्दी फलो की आशिष दे रहे हैं. चिड़ियाघर, राजभवन, गौतम पल्ली के आस-पास जहां अब भी अच्छी हरियाली है, चिलबिल के पेड़ों पर धानी गुच्छे बन्दनवार की तरह झुक आये हैं. मई-जून की लू में जब सूखे चिलबिल झर कर दूर-दूर उड़ेंगे तो उन्हें बटोर कर खाने का बचपन का आनंद तरसाएगा. आज के शहरी बच्चे तो क्या जानेंगे लेकिन गांवों के बाल-गोपाल अब भी चिलबिल बीनने दौड़ते जरूर होंगे.

लोहिया पथ की उत्तरी ढाल पर उगी जंगली बेरियां के दिन जा रहे हैं लेकिन वहीं सिंगड़ी की कंटीली झाड़ों के सिरों पर प्रकृति अपनी जलेबी को आकार देने में लगी है. मई में लग्घी लेकर जंगल जलेबी तोड़ने के दिन भी ललचाएंगे. कैंट की तरफ अब भी बच रहे इमली के विशाल पेड़ों पर आकार लेतीं फलियां अभी से जीभ में चटकारा भर दे रही हैं. कभी गर्मी की छुट्टियां इमली तोड़ने, चिलबिल बीनने और सिगड़ी के लिए भटकने में बीततीं थीं.

प्रकृति बिना आहट राग-रंग में मगन है. नीम की कोमल धानी पत्तियों के बीच निमकौरियों के गर्भाधान का उत्सव हो रहा होगा. गुलमोहर और अमलतास की जड़ों से लेकर शाखें तक दिन-रात व्यस्त होंगी क्रमश: लाल और पीले गुच्छों के प्रजनन की तैयारी में. शहतूत का चुपचाप खड़ा पेड़ आजकल भीतर-भीतर नई रचना के चरम सुख में निमग्न है.

होली के दूसरे ही दिन ठेले पर लैला की पसलियों जैसी जो ककड़ियां दिखीं, वह अचानक नहीं आईं. नदी किनारे रेतीली जमीन पर फैली नामालूम-सी लतर ने उनके जन्म का कम कष्ट नहीं सहा. वहीं कड़वे मुंह वाला लेकिन जीवन-रस से सराबोर खीरा भी जन्म ले रहा होगा. कुछ दिन बाद अपने तरावटी स्वाद में वह आपकी जिह्वा से कहेगा- पॉलीहाउस वाले बारह-मासा मेरे बिरादर से कहना कि बेमौसम उग कर तूने क्या-क्या खोया, पता भी है!

इस बार कुछ जल्दी, होली के ठीक पहले दिन कोयल की कूक सुनाई दी थी. नन्हे सिर पर खूबसूरत कलगी लिये बुलबुल गमलों के पौधों में भी घोंसले की जगह तलाश रही है. फाख्ता के जोड़े पेड़ों की शाखों पर चोंच लड़ाने लगे हैं. मेरे आस-पास से गौरैया लगभग गायब हैं लेकिन जहां हैं, वहां वे मकानों की खिड़कियों, पुराने घरों के आलों, रोशनदानों को अपनी प्यारी चीं-चीं-चीं से गुलजार कर रही होगी.  

जितने सम्भव हों उतने रंगों में भांति-भांति के फूलों के इतराने का तो यह मौसम है ही. लेकिन इनके दिन जल्दी लदने वाले हैं. यह समाचार पाकर अपनी सुप्तावस्था से जाग रहा दुपहरिया तीखी धूप में और भी चटक होकर खिलने की तैयारी कर रहा है. लिली की कली भी अपने भाले से मिट्टी की परत भेदने को ताकत बटरती होगी.
हर समय की हाय-हाय से तनिक फुर्सत निकाल इस तरफ देखिये तो! 


(सिटी तमाशा, नभाटा, 10 मार्च 2018)

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