Saturday, May 12, 2018

बोर्ड परीक्षा परिणामों का त्रासद पक्ष



यूपी बोर्ड के हाईस्कूल-इण्टर के परिणामों ने एक बार फिर साबित किया कि समाज के वंचित तबके की नई पीढ़ी में पढ़ने और आगे बढ़ने की ललक हिलोरें मार रही है, कि प्रतिभा का रिश्ता गरीबी-अमीरी से नहीं है. अभावों में जी रहे और किसी भी तरह परिवार को पाल रहे माता-पिताओं में अपने बच्चों को पढ़ाने की आकांक्षा तीव्र हुई है. घर-घर चौका-बर्तन करके, रिक्शा चला कर और मेहनत मजदूरी करके वे बच्चों को पढ़ा रहे हैं. इनमें से बहुत सारे बच्चे अव्वल नम्बरों से पास हो रहे हैं.

यह तथ्य मन में खुशी और उत्साह का संचार करता है लेकिन उससे दोगुनी तकलीफ यह जान कर होती है कि सरकारें दूर-दराज के गांवों-कस्बों तक शिक्षा की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध करा पाने में असमर्थ रही हैं. बहुत से सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल-कॉलेजों का बहुत बुरा हाल है. बोर्ड के परिणामों का उपर्युक्त सुखद पहलू तो प्रचारित होता है लेकिन इसके दुखद हिस्से पर कम ही रोशनी पड़ती है.

इस बार के यूपी बोर्ड के नतीजे यह भी बताते हैं कि प्रदेश के 150 स्कूल-कॉलेजों में एक भी विद्यार्थी पास नहीं हुआ. इनमें से 98 स्कूलों में हाईस्कूल के सारे विद्यार्थी फेल हो गये. इण्टर के सभी छात्र-छात्राओं के फेल होने के निराशाजनक नतीजे 52 कॉलेजों के हिस्से आये. इसके अलावा 167 स्कूल ऐसे हैं जहां 80 फीसदी बच्चे फेल हुए. इनमें सहायता प्राप्त और गैर-सहायता प्राप्त दोनों तरह के विद्यालय हैं.

समझा जा सकता है कि इन विद्यालयों में कैसी पढ़ाई होती होगी. यह आंकड़े उपलब्ध नहीं है कि इन स्कूलों में कितने अध्यापक हैं, हैं भी कि नहीं. ऐसे में पास होने की तमन्ना लेकर विद्यार्थी या उनके मां-बाप नकल-माफिया की शरण में जाते हैं तो क्या आश्चर्य? सभी सरकारें नकल रोकने के जतन करती हैं. वर्तमान भाजपा सरकार ने दावा किया कि उसने नकल-माफिया की रीढ़ तोड़ दी है. नकल न कर पाने के डर से कई लाख विद्यार्थी परीक्षा में नहीं बैठे. इन दावों में कुछ सच्चाई भी होगी लेकिन सवाल यह है कि इतनी बड़ी संख्या में विद्यार्थी नकल के भरोसे क्यों रहते हैं? नकल कराने वाला पात-पात तंत्र क्यों विकसित हुआ? क्या इसके पीछे ऐसे ही विद्यालय नहीं है जहां न काबिल शिक्षक हैं, न पढ़ाई होती है और न उन पर कोई नियंत्रण है? कई विद्यालयों का नाम नकल करा कर पास कराने के लिए जाना जाता है. वे खोले ही इसलिए जाते हैं

शिक्षा और चिकित्सा हमारी सरकारों की प्राथमिकता में अब भी नहीं हैं. इसी कारण दोनों क्षेत्रों में दलालों और माफिया का बोलबाला है या साधन-सम्पन्न वर्ग के लिए महंगे स्कूल और अस्पताल बन गये. अमीरों-गरीबों के बीच सम्पत्ति की खाई ही चौड़ी नहीं है, शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं का अंतर भी उतना ही बड़ा है.

शिक्षा का अधिकार अब संविधान-प्रदत्त है. जिंदा रहने का अधिकार हर तरह से मौलिक है. हमारे यहां इसे वास्तविकता में प्रदान करने की जिम्मेदारी सरकारों की है और वे इसमें विफल रही हैं. चुनाव के मुद्दे ये कभी नहीं बनते. सरकारों का प्रदर्शन भी इनसे नहीं आंका जाता. हर चुनाव में धर्म-जाति के मुद्दे उछाले जाते हैं. भावनाएं भड़काने वाले बयान दिये जाते हैं. जीवन के जो मूल मुदे हैं, जिन क्षेत्रों से देश वास्तव में तरक्की करता है, जिनसे जनता का जीवन सुंदर बनता है, वे भुला दिये गये हैं.

संविधान की मूल भावना और लोकतंत्र के साथ यह सबसे भद्दा खिलवाड़ है.
(सिटी तमाशा, नभाटा, 5 मई, 2018)



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