सोमवार को देश के दस राज्यों में
चार लोक सभा और दस विधान सभा सीटों के उप-चुनाव के लिए मतदान समाप्त होते-होते
ट्विटर पर दिग्गज राजनैतिक विश्लेषकों से लेकर नामी लेखकों-पत्रकारों की तीखी
टिप्पणियां चुनाव आयोग पर बरसने लगीं.
किसी ने इस संवैधानिक संस्था का मजाक बनाया तो कोई उसे ज्यादा जिम्मेदार और
जवाबदेह होने की सलाह देने लगा. विपक्षी राजनैतिक दल तो दिन भर साजिश के आरोप
लगाते ही रहे.
हुआ यह कि लगभग सभी राज्यों में कई
मतदान केंद्रों से दिन भर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) के गड़बड़ होने की
शिकायतें आती रही थीं. कहीं ईवीएम ने काम नहीं किया तो कहीं ईवीएम के साथ लगी वह
मशीन (वीवीपीएटी) ठप हो गयी जिसमें छपी पर्ची से मतदाता अपना वोट सही जगह पड़ने की
पुष्टि करता है. कहीं-कहीं इन मशीनों को बदलने में डेढ़-दो घण्टे भी लगे. मतदाता
लाइन लगाये इंतजार करते रहे. विपक्षी दलों से लेकर सत्तारूढ़ भाजपा तक ने चुनाव
आयोग से शिकायत की.
शाम को आयोग की ओर से बयान आया कि
राजनैतिक दल शिकायत को बढ़ा-चढ़ा कर बता रहे हैं. कहीं-कहीं ईवीएम और वीवीपीएटी
मशीनें खराब हुई जिन्हें बदल दिया गया. पर्याप्त संख्या में वैकल्पिक मशीनें रखी
रहती हैं. भीषण गर्मी, मतदान कर्मियों की अनुभवहीनता और लापरवाही को आयोग ने
मशीनें खराब होने का कारण बताया. ट्विटर पर आयोग को इसी बयान के कारण हमले झेलने
पड़े.
यह सचमुच हास्यास्पद बयान था.
हमारे देश में अब तक ज्यादार चुनाव मार्च से जून तक होते रहे हैं, जो भीषण गर्मी के महीने होते हैं.
2019 का आम चुनाव भी, समय से पहले नहीं हुआ तो अप्रैल-मई में ही होगा. क्या गर्मी
वास्तव में मशीनों के खराब होने का कारण है? मतदान कर्मियों की अनुभवहीनता के
लिए भी स्वयं आयोग ही जिम्मेदार ठहरता है. ईवीएम से चुनाव कराते काफी समय बीत चुका
और वीवीपीएटी मशीनें भी नयी नहीं रहीं. बहरहाल, 2019 के आम चुनाव से पहले के ये
महत्त्वपूर्ण उप-चुनाव विपक्षी एकता बनाम भाजपा की चर्चा की बजाय चुनाव आयोग तथा
ईवीएम का विवाद बन कर रह गये.
हारे हुए प्रत्याशी और दल अक्सर
ईवीएम में गड़बड़ी की शिकायत करते हैं. 2009 के आम चुनाव में पराजय के बाद भाजपा ने
ईवीएम की बजाय बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग की थी. कई और दलों ने भी उसके
स्वर में स्वर मिलाया था. 2014 में भाजपा के भारी बहुमत से जीतने के बाद से
कांग्रेस समेत कई क्षेत्रीय दल भाजपा और आयोग पर ईवीएम से छेड़छाड़ के आरोप लगाते
रहे हैं. यहां तक कहा गया कि ईवीएम को इस तरह तैयार किया गया है कि कोई भी बटन
दबाने पर वोट भाजपा के ही खाते में जाता है. इस पर चुनाव आयोग ने राजनैतिक दलों को
चुनौती दी थी कि वे ईवीएम से छेड़-छाड़ करके दिखाएं.
ईवीएम से किसी तरह की छेड़-छाड़ के
कोई सबूत आज तक नहीं मिले हैं. आखिर है तो टेक्नॉलॉजी ही, इसलिए माना जाता है कि कहीं दो-एक
मशीनों में छेड़छाड़ सम्भव हो सकती है. विशेषज्ञ मानते हैं कि बड़े पैमाने पर ऐसा कर
पाना लगभग असम्भव है. चूंकि मशीनें हैं, इसलिए वे कभी अचानक काम करना बंद कर सकती हैं. उन्हें
संचालित करने वाले इंसान हैं, इसलिए कहीं-कहीं उनसे भी गड़बड़ी हो जा सकती है. इसके लिए वैकल्पिक व्यवस्था की
जाती है. ज्यादा गड़बड़ी होने पर पुनर्मतदान की व्यवस्था है ही. इसलिए कोई कारण नहीं
होना चाहिए कि ईवीएम और आयोग को निशाने पर रखा जाए.
निर्वाचन आयोग की बहुत बड़ी
जिम्मेदारी है कि वह निष्पक्ष और स्वतंत्र मतदान सुनिश्चित कराये. मतदान केंद्रों
पर कब्जे, मतपेटियों की लूट तथा फर्जी एवं खून-खराबे वाले मतदान के
दौर से हम बहुत आगे निकल आये हैं. टी एन शेषन ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहते आम
मतदाता के बीच आयोग की जो साख स्थापित की और जिसे उनके बाद के कई आयुक्तों ने
बरकरार रखा, उसे बनाने-बढ़ाने में ईवीएम का योगदान निर्विवाद रहा है. हमारे
जैसे विशाल देश में बैलेट पेपर की ओर वापस जाना कतई बुद्धिमानी नहीं होगी. ईवीएम
की विश्वसनीयता के लिए उनकी तकनीकी श्रेष्ठता और मतदान कर्मियों के बेहतर
प्रशिक्षण पर ध्यान देना होगा.
निर्वाचन तंत्र की साख बनी रहे, यह सुनिश्चित करना वर्तमान
निर्वाचन आयुक्तों की जिम्मेदारी है. उन्हें सतर्क रहना चाहिए कि उनके किसी बयान
या निर्णय से इस संवैधानिक संस्था की विश्वसनीयता पर आंच न आये. दुर्भाग्य से पिछले कुछ समय में
ऐसे वाकये हुए हैं जिनसे आयोग की तरफ उंगलियां उठी हैं. बाढ़-राहत के नाम पर गुजरात
विधान सभा चुनावों की तारीख की घोषणा को टालना, कर्नाटक विधान सभा चुनाव की तारीख
का लीक हो जाना, जैसे कुछ प्रकरण आयोग की प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं रहे.
विपक्षी दलों की इस प्रवृत्ति की
भी निंदा की जानी चाहिए कि वे बिना सोचे-समझे फौरन सत्तापक्ष के लाभार्थ ईवीएम से छेड़-छाड़
का आरोप लगाने लगते हैं. ऐसा करके न केवल वे चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा को धूमिल
करते हैं, वरन् जनता के मन में ईवीएम के प्रति अनावश्यक संदेह पैदा
करते हैं. ईवीएम के साथ वीवीपीएटी मशीनें इसी सन्देह को दूर करने के लिए लगायी जा
रही हैं. 2013 में एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने इन मशीनों को लगाने का निर्देश
दिया था ताकि मतदाता आश्वस्त हो सके कि उसका वोट उसी के पक्ष में गया है जिसे उसने
चुना है.
आने वाला आम चुनाव इस दृष्टि से और
भी महत्त्वपूर्ण है कि भारी बहुमत से केंद्र में और बीस से ज्यादा राज्यों की
सत्ता में विराजमान भाजपा के खिलाफ विपक्ष एकजुट होने की कोशिशों में लगा है.
उत्तर प्रदेश के उप-चुनावों के बाद कर्नाटक के नाटक ने विपक्षी एकता की सम्भावना
बढ़ा दी है. मुकाबले के लिए भाजपा और भी जोर-शोर से तैयार हो रही है. जाहिर है कि
संग्राम घनघोर होगा. आरोप-प्रत्यारोपों में निजी और अनपेक्षित हमले अभी से शुरू हो
चुके हैं. चुनावी युद्ध में मर्यादा का सीमोल्लंघन हमारे यहां होता रहता है. पूरी
आशंका है कि इस बार कुछ और सीमाएं ध्वस्त होंगी. पहले से ही घायल हमारे लोकतंत्र
की कड़ी परीक्षा तय है.
ऐसे में अत्यावश्यक है कि
संवैधानिक प्रक्रियाओं की विश्वसनीयता यथा सम्भव बनी रहे. कर्नाटक के ताजा मामले
में सुप्रीम कोर्ट का निर्देश हमारे विश्वास की रक्षा करने वाला साबित हुआ. चुनाव
आयोग से भी ऐसे ही राहत के झौंकों की प्रत्याशा है. मतदान तंत्र की चुस्ती, चौकसी और आश्वस्ति दायक भूमिका अनिवार्य
है. ईवीएम की गड़बड़ियां न्यूनतम हों, शिकायतों पर त्वरित विश्वास बहाली वाली कार्रवाई हो , न्याय हो ही नहीं, होता हुआ
भी दिखे, यह चुनाव आयोग ही को सुनिश्चित
करना होगा.
(प्रभात खबर, 30 मई, 2018)
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