Friday, May 25, 2018

सरकारी स्कूलों का इंग्लिश मीडियम होना



बेसिक शिक्षा विभाग बहुत खुश है कि कई प्राथमिक पाठशालाओं में अंग्रेजी में पढ़ाई शुरू करने के बाद उनकी हालत सुधरने लगी है. खस्ताहाल कहे जाने वाले सरकारी स्कूलों के इंग्लिश मीडियमहोते ही उनमें ज्यादा बच्चे भर्ती हो रहे हैं. दावा तो यहां तक है कि निजी इंगलिश मीडियमस्कूलों से नाम कटा कर मां-बाप, सॉरी पेरेण्ट्स, बच्चों को सरकारी इंग्लिश मीडियमस्कूलों में भर्ती कर रहे हैं. ऐसे स्कूलों के प्रिंसिपल पूरी बत्तीसी दिखा कर उल्लास से बताते हैं कि बच्चे अब सिट डाउन, स्टैण्ड-अपऔर कम इनसमझने-बोलने लगे हैं. जब किसी को प्यास लगती है तो वह बोलता/बोलती है- मे आई गो टु ड्रिंक वॉटर’. यही नहीं वहां पेरेण्ट-टीचर मीटिंगभी होने लगी है  और अब प्रार्थनानहीं प्रेयरहोती है.

स्वतंत्रता के 70 साल बाद सरकारी प्राथमिक पाठशालाओं को सुधारनेका तरीका उन्हें इंगलिश मीडियमबना देना ही समझ में आया है तो हमारी शिक्षा-व्यवस्था ही नहीं, सरकारों और समाज के मानसिक दीवालियेपन का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है. किसी ने यह नहीं सोचा कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर क्या है, अध्यापक कैसे हैं, पूरे अध्यापक तैनात हैं या नहीं, वे अध्यापक होने लायक हैं भी, बच्चे वहां सीखते क्या हैं और गरीब से गरीब मां-बाप भी अपने बच्चे इन स्कूलों में पढ़ाना नहीं चाहते तो उसका कारण इंग्लिश मीडियमन होना है या कुछ और?

आज भी देश में विभिन्न क्षेत्रों के शीर्ष पर तैनात लोगों में बहुतेरे ऐसे मिल जाएंगे जो सरकारी विद्यालयों में पढ़ कर निकले. ये विद्यालय इंग्लिश मीडियमनहीं थे, इससे उनके काबिल बनने में कोई कसर नहीं रही. उन्हें अच्छे, समर्पित अध्यापक मिले जो शिक्षा को सर्वोत्तम सेवा और दान मानते थे. एक-एक बच्चे को उसकी खूबियों और कमजोरियों के साथ समझ कर वे उसे कुम्हार के घड़े की तरह गढ़ते थे. वे समझते थे कि उनके हाथों तैयार हो रही पीढ़ी देश का भविष्य है. वे देश से सचमुच प्यार करते थे.

निजी स्कूल इसलिए लोकप्रिय नहीं हुए कि वे इंग्लिश मीडियमहैं. सरकारी स्कूलों की नाकामी ने उन्हें पनपने का मौका दिया. उन्होंने बेहतर शिक्षक रखे, एक अनुशासन अपनाया, पढ़ाई पर जोर दिया और इसे एक व्यवसाय की तरह विकसित किया. वहां से पास होने और ज्यादा से ज्यादा नम्बर लाने वाले बच्चों की फौज निकलने लगी तो यह साबित नहीं होता कि वे वास्तव में शिक्षितपीढ़ियां हैं और अपने देश व समाज को जानती-समझती हैं.

अंग्रेजी में प्रार्थना गाने और राइम’ (शिशु गीत) सीखने से बच्चे पढ़े-लिखेबेहतर नागरिक बन रहे हैं, यह समझ  मानसिक गुलामी का प्रतीक है. पढ़ाई का माध्यम क्या है, यह कतई महत्त्वपूर्ण नहीं है. महत्त्वपूर्ण है बच्चों को क्या पढ़ाया जा रहा है और कैसे. सरकार का ध्यान इस पर क्यों नहीं जाता? ‘हिंदी मीडियममें पढ़ रहे बच्चे हिंदी नहीं सीख पा रहे थे तो इंग्लिश मीडियममें बच्चे इंग्लिशकैसे सीख लेंगे? (हिंदी का तो खैर पूछना ही क्या) और क्या इंग्लिश सीखना ही पढ़ाई है?

सरकारी स्कूलों की ओर बच्चों और माता-पिताओं का रुझान बढ़ाना है तो उन्हें पहले अच्छा स्कूल बनाइए. पढ़ाई का माध्यम हिन्दी होने में दोष नहीं. वहां अंग्रेजी समेत सभी विषय ऐसे पढ़ाइए कि बच्चे वास्तव में सीखें और गुनें. पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी होने में भी दोष नहीं, बशर्ते कि उसमें अच्छी शिक्षा दी जा सके. और, सबसे पहले तो शिक्षा विभाग और शिक्षा मंत्रियों को अच्छी शिक्षा का अर्थ जानना चाहिए. 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 26 मई, 2018)

 


No comments: