Tuesday, January 15, 2019

आइए, लाइट चुराएँ, थूकें, कचरा डालें


विधान सभा के सामने से गुजरिए या लोहिया पथ से, इन दिनों रंग-बिरंगी रोशनियों की जगमग ध्यान खींचती है. सड़क के बीच और किनारे बिजली के खम्भों पर लिपटी एलईडी झालरें सुंदर लगती हैं. पहले इंवेस्टर समिट से शुरू हुआ यह सिलसिला दीपावली में कुछ और बढ़ा. अब इसे स्वच्छता अभियान से जोड़ कर विस्तारित कर दिया गया है. गणतंत्र दिवस के अवसर पर ये तिरंगी रोशनियाँ और बढ़ेंगी.

रोशनी से जगमग सड़कें रात में  खूबसूरत नजारा पेश करती हैं. शहर के कुछ हिस्सों में ही सही, देख कर अच्छा लगता है. अच्छा यह भी लगता है कि आजकल सफाई कर्मचारी सुबह से शाम तक झाड़ू-बुहारू करते दिख जाते हैं. उनके निरीक्षक भी अक्सर दौरा करते मिलते हैं. स्वच्छता अभियान में यह मुस्तैदी आयी है. सरकार की प्राथमिकता के कारण ही यह सम्भव हो पा रहा है.

यह जानना भी सुखद है कि नगर निगम के अधिकारी शहर को सजाने के इस अभियान में नागरिकों से भी आर्थिक सहयोग की अपील कर रहे हैं. कम से कम बजट में काम कराने की कोशिश हो रही है. कला महाविद्यालय के वर्तमान और  पूर्व छात्रों से दीवार-पेण्टिंग में सहयोग लिया जा रहा है. नगर आयुक्त समेत निगम के अधिकारी-कर्मचारी व्यक्तिगत सहयोग से इसके लिए एक कोष बना रहे हैं. सरकारी बजट की लूट के जमाने में ऐसे प्रयासों की सराहना की जानी चाहिए.

इस स्तम्भ में एकाधिक बार यह कहा जा चुका है कि कोई भी शहर नागरिकों की व्यक्तिगत रुचि और सहयोग के बिना साफ-सुथरा नहीं रह सकता. 43-44वें संविधान संशोधन में निकायों को व्यापक अधिकार और संसाधन दिये जाने के बावजूद स्थानीय निकाय गरीब और संसाधन विहीन हैं. संविधान के अनुसार लखनऊ विकास प्राधिकारण, जल-संस्थान, आदि कई विभागों को नगर निगम के अधीन होना चाहिए था किंतु राजनेताओं और अफसरों के गठजोड़ ने संविधान के प्रावधानों को बहुत सीमित करके लागू किया है. इस कारण नगर निकाय गरीब बने हुए हैं. रोजाना निकलने वाला कूड़ा उठाने की क्षमता भी उनके पास नहीं है. खैर.

सरकार और नगर निगम चाहे जितना जोर लगा दें, नागरिक नहीं चाहेंगे तो शहर कभी साफ-सुथरा-सुंदर बन ही नहीं सकता. यहाँ नागरिक ऐसे हैं कि अपनी तरफ से सहयोग करना तो दूर मौका मिले तो खम्भों पर लगी एलईडी लाइटें चुरा ले जाएँ. अपना मुहल्ला हो या बाजार-सड़क में कूड़ा फैलाने में उनका सानी नहीं. किसी भी बाजार का देर रात या तड़के जायजा ले लीजिए, नागरिकों की जूठन से वे पटे मिलेंगे. पत्तल-दोना, पॉलीथीन, गुटका, हर तरह का कचरा रोज इतनी बड़ी मात्रा में फैला दिखता है कि हैरत होती है. आखिर हम नागरिकों को इसे फैलाने में थोड़ा भी संकोच क्यों नहीं होता होगा. कोई क्यों नहीं सोचता होगा कि हम कर क्या रहे हैं.

क्या अपने घर में भी हम ऐसे ही गंदगी फैलाते हैं? शहर को घर क्यों नहीं समझा जा सकता. अभी उस दिन देखा कि लोहिया पथ फ्लाई ओवर के नीचे उसके गंदे पिलरों में सफेदी की जा रही है. सफेद चमकदार पिलर अच्छे लग रहे थे. उसी शाम को यह देख कर बहुत दुख हुआ कि सभी पिलर पान-गुटके की पीक से फिर भद्दे हो गये हैं. पैदल, वाहन सवार सभी, नयी और पुरानी पीढ़ी के लोग मुँह में भरी पीक सफेद पिलरों पर बेझिझक मारते जा रहे थे. इसमें गरीब मजदूरों से लेकर बड़ी गाड़ियों वाले सभी शामिल थे. जैसे कि साफ पिलर उनकी आंखों को चुभ रहे हों. अगर हमारी पीक से साफ जगह गंदी हो रही हो तो महँगे सूट पहनने का क्या अर्थ?

कब सझेंएंगे कि अपने शहर से प्यार करना भी कोई चीज होती है.   

(सिटी तमाशा, नभाटा, 12 जनवरी, 2019) 


  
 


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