Friday, January 18, 2019

आप किन मुद्दों पर बहस कर रहे आजकल?



सोशल साइटें हों या महफिलें या दो-चार व्यक्तियों की आपसी चर्चा, राजनीति हमारे यहाँ सदाबहार विषय रहता है. फेसबुक, ट्विटर, आदि में सबसे ज्यादा बहस राजनीति पर होती है, पाले खिंचते हैं, झगड़े और गाली-गलौज तक. भाजपा-संघ के हालिया उभार के बाद सोशल मीडिया राजनैतिक प्रचार और वितण्डेबाजी का सबसे बड़ा अड्डा बना दिया गया. अब सभी दल इसे बड़े और खास औजार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. जैसे-जैसे आम चुनाव समीप आ रहे हैं, राजनैतिक दाँव-पेचों पर गर्मा-गर्म बहस बढ़ रही है.

समाजवादी-पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का चुनावी गठबंधन इन दिनों खूब जेरे-बहस है. भाजपा-विरोधियों की बाँछें खिली हुई हैं. उनकी बात में वजन आ गया है. उनके अनुसार दलितों-पिछड़ों का यह मेल भाजपा को चारों खाने चित कर देगा. उससे बड़ी बात यह कि मुसलमान मतदाताओं के सामने किधर जाएँ की दुविधा खत्म हो गयी है. अव वे सपा-बसपा को एकमुश्त वोट देंगे क्योंकि भाजपा को वही हरा सकते हैं.

भाजपा समर्थकों में चिंता जरूर है लेकिन उनके पास इन तर्कों की काट भी मौजूद है. वे कह रहे हैं कि समाजवादी पार्टी को चाचा ने बहुत कमजोर कर दिया है. यादवों के वोट भी बँट जाने वाले हैं. कई पिछड़ी जातियाँ मायावती को वोट नहीं ही देंगी. वे पिछली बार की तरह भाजपा के साथ रहेंगी. मुसलमान महिलाओं के वोट भाजपा को मिलेंगे. तीन तलाक विरोधी भाजपा की मुहिम के कारण वे बहुत खुश हैं. कांग्रेस ने लड़ाई तिकोनी बना दी है. इसका सीधा फायदा भाजपा को होगा.

कांग्रेस का पक्ष लेने वालों की संख्या कम अवश्य है लेकिन तीन राज्यों में उसके सत्तारोहण के बाद उनके हौसले बुलंद हैं. वे कहते हैं कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में भी अब अच्छा करेगी. भाजपा से नाराज सवर्णों का बड़ा वर्ग कांग्रेस ही का साथ देगा. सपा-बसपा से उसका गठबंधन हो जाता तो यह वर्ग वापस भाजपा के साथ चला जाता क्योंकि दलितो-पिछड़ों को वोट वे दे नहीं सकते थे. मुसलमानों का एक वर्ग भी अब कांग्रेस सार्थक हो गया है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का वही मुकाबला कर सकती है.

गरीब सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण की भाजपाई तुरुप चाल चर्चा की आग में घी का काम करती है. इस पर राजनैतिक निष्ठाओं की दीवारें ढहती दिखती हैं. अधिकसंख्य सवर्ण जातीय आरक्षण की निंदा करने वाले हैं. वे मान रहे हैं कि यह ऐतिहासिक न्याय हुआ है हालाँकि इसे मोदी सरकार की चुनावी चाल भी मानते हैं और शंकित हैं कि सुप्रीम कोर्ट इसे रद्द न कर दे. इन चर्चाओं में आरक्षण के मूल विचार को शायद ही जगह मिलती हो. संविधान में जातीय आरक्षण क्यों दिया गया है, इसके कारणों का उल्लेख करने वाले डपट दिये जा रहे हैं.

अचानक ही इन चर्चाओं में गो-संरक्षण के नाम पर हो रही हिंसा का मुद्दा गायब हो गया है. छुट्टा जानवरों से किसानों के सामने खड़ी हो गयी बड़ी मुसीबत के जिक्र नेपथ्य में जाते दिख रहे हैं. बढ़ती बेरोजगारी और सरकार की वादाखिलाफी पर भी बात दबती जा रही है. कुछ समय पहले तक राफेल विमान सौदे पर जो आरोप-प्रत्यारोप बहसों और सोशल साइटों में छाये रहते थे, वे भी बहुत कम दिखाई-सुनाई दे रहे हैं. गाँवों की बदहाली, किसानों की दुर्दशा, शहरों की अराजकता, बेतरतीब विकास, नेताओं-अफसरों की लूट-खसोट,  शिक्षा-स्वास्थ्य सुविधाओं का संकट, भूख-गरीबी, आदि-आदि हमारी बहसों से बाहर हो गये हैं. 

चुनाव सिर पर हैं और जनता अपने सबसे जरूरी मुद्दे भूलती जा रही है. वह खुद भूल रही है या उसे भरमाया जा रहा है? चुनाव के समय जिन मुद्दों पर सबसे ज्यादा चर्चा और सवाल होने चाहिए, वे धीरे-धीरे गायब क्यों-कैसे हो रहे हैं? इस पर भी कोई बात हो.           
   
(सिटी तमाशा, 19 जनवरी, 2019) 

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