Wednesday, March 03, 2021

हमारा वह अति-उत्साही और खिलंदड़ा दोस्त

1970 के दशक के अंतिम वर्ष और 1980 के दशक के शुरुआती वर्ष तत्कालीन लखनऊ के लोकप्रिय दैनिकों ‘पायनियर’ और ‘स्वतंत्र भारत’ के लिए युवा-प्रतिभाओं की रचनातमक ऊर्जा के वर्ष थे। दोनों अखबारों में युवा पत्रकारों की एक बड़ी पीढ़ी अपने संख्या बल में ही नहीं, पत्रकारिता के नए तेवरों के कारण भी छाई हुई थी। दिलीप अवस्थी उसी पीढ़ी का कुछ अति-उत्साही, कुछ महत्वाकांक्षी और कुछ खिलंदड़ा नाम था। 20, विधान सभा मार्ग (जहां आज पासपोर्ट दफ्तर वाला रतन स्क्वायर है) के दफ्तर में टाइपराइटर से लेकर सड़क पर बेनी की चाय कीदुकान तक, फुटपाथ पर लगने वाले बिरयानी-कबाब के ठेलों से लेकर चौक के टुण्डे कबाबी की दुकान तक, पुलिस थानों से एसएसपी के ऑफिस तक (वह क्राइम रिपोर्टिंग करता था) और जहां-जहां भी दौड़ सम्भव थी, वहां दिलीप की धमक, ठहाके और गाने सुनाई देते थे। किस्सागो भी वह था ही। कुछ खाए और गाए बिना दिलीप किसी जगह से उठता न था। उसके ये दोनों शौक बीमारी से लाचार होने तक बराबर बने रहे।

आज दिलीप के न रहने पर चंद यादें दिल में हूक की तरह उठती हैं। उन दिनों चम्बल के डकैत गिरोहों का बड़ा आतंक था। छविराम के गिरोह से पुलिस वाले भी खौफ खाते थे। अक्सर पुलिस टुकड़ियां डकैतों की घेराबंदी करने की कोशिश करतीं और मुठभेड़ होती। एक बार छविराम गिरोह को बड़ी पुलिस पार्टी ने घेर लिया। यह खबर लखनऊ पहुंचते ही पत्रकारों का दल घटनास्थल की ओर भागा। दिलीप जब वहां पहुंचा तो बीहड़ों में दोनों तरफ से गोलियां चल रही थीं। ऐन घटनास्थल पर जाना कतई सुरक्षित नहीं था लेकिन पत्रकारिता है ही जोखिम का पेशा और दिलीप दुस्साहसी भी था ही। दिलीप समेत चंद पत्रकार उस गोलीबारी के बीच फंस गए थे। सिर के ऊपर और अगल-बगल से सनसनाती निकलती गोलियों के बीच कुछ अन्य पत्रकारों के साथ दिलीप ने पूरे समय वहां रुककर रिपोर्टिंग की। वह बहुत बाद तक उस मुठभेड़ की सनसनी अपने निराले अंदाज़ में बयां करता था।

उसकी बेखौफ पत्रकारिता का एक किस्सा तब का है जब वह ‘इण्डिया टुडे’ का उत्तर प्रदेश सम्वाददाता था। खबर थी कि प्रदेश की कुछ जेलों से बड़े अपराधी हथियारों की खरीद-फरोख्त का धंधा चला रहे हैं। खबर के लिए प्रमाण चाहिए थे। सो, अपने एक भरोसेमंद सूत्र की मदद से दिलीप स्वयं हथियार का खरीदार बनकर फोटोग्राफर के साथ जेल में गया और एक बड़े अपराधी से हथियार खरीद की बातचीत कर आया। फोटो के साथ जब यह रिपोर्ट ‘इण्डिया टुडे’ में प्रकाशित हुई तो तहलका मचना ही था। तब तक ‘स्टिंग’ पत्रकारिता का चलन शुरू नहीं हुआ था। यह दिलीप का बड़ा ‘स्टिंग ऑपरेशन’ ही था। उसमें खतरा भी कम नहीं था। इस तरह के खतरे उठाकर दिलीप ने कुछ और भी खबरें की जो खूब चर्चित रहीं।

सन 1982 में हुई प्रमोद जोशी जी की शादी का किस्सा याद आ रहा है। लखनऊ से कठगोदाम गई बारात में लड़के ही लड़के थे। ‘नैनीताल एक्सप्रेस’ की उस बोगी में रात भर हंगामा हुआ। बीच-बीच में ट्रेन की खिड़की को तबला बनाकर दिलीप का गाना-बजाना चलता। सुबह बारात काठगोदाम पहुंची तो युवा बाराती घूमते हुए गौला नदी की तरफ चल दिए। अति-उत्साही और खिलंदड़े दिलीप का पैर एक चिकने पत्थर पर फिसला और वह धराशाई हो गया। उसका एक हाथ टूट गया था जिसमें प्लास्टर चढ़ाना पड़ा। रंग में भंग और दर्द के बावजूद दिलीप के चेहरे पर शिकन नहीं आई। वह प्लास्टर वाले हाथ को गले में लटकाए हुए हंसता-मुस्कराता और गाता हुआ बारात में शामिल हुआ। वापसी में भी ट्रेन के डिब्बे में उसके गाने गूंजते रहे थे। हां, खिड़की को तबले की तरह बजाने के लिए तब उसका एक ही हाथ दुरस्त था।

दिलीप ने खूब बिंदास ज़िंदगी जी और खूब लगकर पत्रकारिता की। अपने दोस्ताना व्यवहार और ज़िंदादिली से उसने बहुत अच्छे सूत्र विकसित किए थे। अच्छे खाने-पीने का उसे बहुत शौक था जिसके लिए उसने अपने मधुमेह रोग की बहुत चिंता नहीं की। मस्ती कहें या लापरवाही, यही उसे भारी पड़ी। गुर्दा बदले जाने के बाद भी वह अपने पत्रकारीय दायित्व पुराने जोश के साथ निभाता रहा लेकिन फिर शरीर को कई रोगों ने घेर लिया। तो भी, मिलने पर या फोन पर वह चहकता रहता था। बीमारी और अशक्तता का अनुमान भी वह दूसरों को नहीं लगने देता था।

सत्तर के दशक की हमारी उस युवा पीढ़ी का एक ज़िदादिल दोस्त ताहिर अब्बास कई वर्ष पहले चला गया था। अब दिलीप का जाना हम दोस्तों के लिए बड़ा आघात है। मृत्यु जीवन का ही हिस्सा है, दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति के इस दर्शन से दिल ही बहला सकते हैं।

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