स्वतंत्रता के पश्चात कई
दशकों तक राजनीति, प्रशासन, विज्ञान,
टेक्नॉलजी, आदि विभिन्न क्षेत्रों में छाई रही प्रतिभाएं सरकारी स्कूलों की देन थीं। आज भी
उच्च सरकारी पदों से लेकर विभिन्न शीर्ष पदों पर बैठे व्यक्तियों में सरकारी
स्कूलों का नाम रोशन करने वाले मिल जाते हैं। वहां न केवल ऐसे अध्यापक होते थे जो
अपने विद्यार्थियों की प्रतिभा को तराशते-निखारते थे, बल्कि जीवन के कई मूल्यवान मूल्य भी उनमें भर देते थे। अपने
समाज और समय को देखने की खरी दृष्टि उनमें विकसित होती थी।
पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक में सरकारी स्कूलों ने
अपनी चमक खोनी शुरू की और निजीकरण का दौर आते-आते वे बुरी तरह पिछड़ने लगे। न वहां
समर्पित अध्यापकों की कमी थी (उनकी संख्या अवश्य कम होती जा रही थी) और न उनकी
खण्डहर इमारत की प्रतिभा-चमक धूमिल पड़ी थी लेकिन मध्य वर्ग के आर्थिक उन्नयन और
बढ़ते पाश्चात्य प्रभाव ने उनके विद्यार्थियों-अभिभावकों में हीनता बोध भरना शुरू
कर दिया था। यह वही समय था जब ‘अंग्रेजी स्कूलों’ की
बाढ़ आ रही थी और गली मुहल्लों में भी ‘कांवेण्ट’ एवं ‘मॉण्टेसरी’ स्कूल खुलते
जा रहे थे। उनकी ‘टाई’ वाली भौंडी
ड्रेस सरकारी स्कूलों के साधन विहीन छात्रों में कुण्ठा भर रही थी। सरकारी स्कूलों
में पढ़ना अपराध-बोध बन रहा था। सरकार की शिक्षा नीति सिर्फ कागजों में करामात कर
रही थी। नए हालात के लिए उसे तैयार नहीं किया गया।
अब वह ऐसा वक्त आ गया है कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को
विद्यार्थी मिल नहीं रहे। ‘मिड डे मील’ योजना
गरीबी के कारण स्कूलों से वंचित रहे बच्चों को स्कूल लाने के लिए बनी थी लेकिन
ग्रामीण इलाकों के अधिकसंख्य स्कूलों में जो कुछेक बच्चे अब भी आ रहे हैं, उसका बड़ा कारण दोपहर के इसी भोजन का आकर्षण है। दो जून रोटी के लिए जूझ
रहे परिवारों के लिए वह पढ़ाई से बड़ा है।
यह मानते हुए कि अंग्रेजी पढ़ने के लिए ही बच्चे निजी
विद्यालयों का रुख कर रहे हैं, सरकार ने कुछ वर्ष पहले अपने कई प्राथमिक
विद्यालयों को ‘इंगलिश मीडियम’ घोषित
कर दिया। फिर भी बच्चे नहीं बढ़े तो उन्हें बंद करने का निर्णय किया गया। दूसरी तरफ
निजी विद्यालयों में प्रवेश के लिए मारामारी मची है। ऐसा नहीं है कि निजी विद्यालय
बहुत अच्छी शिक्षा देते हैं। उन्हें शिक्षा की महंगी दुकानें कहना उपयुक्त होगा
लेकिन दौड़ उसी तरफ मची हुई है। सरकारें बेहतर विकल्प दे नहीं पाईं।
कोई दस वर्ष पहले एक कानून बनाकर हमें शिक्षा का अधिकार दिया गया था। यह अच्छा फैसला था लेकिन इस पर सरकारों ने विचार ही नहीं किया कि वह कैसी शिक्षा होगी और किस तरह दी जाएगी। वह शिक्षा कैसा नागरिक गढ़ेगी और क्या अमीर-गरीब विद्यार्थी के लिए अलग-अलग होगी? ‘अ’ से अमीर और ‘ग’ से गरीब जिस शिक्षा-व्यवस्था की आत्मा बन गया हो, वहां नव-उदारीकरण के इस दौर में सरकारों का रहा-बचा जन-कल्याणकारी स्वरूप भी बिला ही जाना है।
(सिटी तमाशा, नभाटा, 27 मार्च, 2021)
No comments:
Post a Comment