छठ पर्व बीत गया है लेकिन दफ्तरों, स्कूलों, बाजारों में उपस्थिति बहुत कम है। शहरों के चौराहों पर लगने वाली ‘मजदूरों की मण्डी’ में काम पाने के लिए भागा-दौड़ी और चिल्लपों लगभग नहीं है। इमारतों का निर्माण कार्य बहुत धीमा हो गया है। ठेले-खोंचे, रिक्शा-टेम्पो सड़कों पर कम हो गए हैं। शहरों की धड़कन मंद है। छठ की छुट्टी लम्बी चलती है। ‘मुलुक’ या ‘घर’ गई जनता कुछ दिनों बाद ही शहरों की तरफ लौटेगी। तभी शहर धीरे-धीरे अपनी धड़कन वापस पाएंगे।
होली के बाद भी ऐसा ही माहौल रहता है। छठ और होली के पश्चात इस रिक्तता से ही लगता है कि शहरों में गांव कितना गहरा समाया हुआ है। होली और छठ से कुछ दिन पहले से ट्रेनों-बसें खचाखच भर जाती हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार की तरफ जाने वाली गाड़ियों में तिल धरने की जगह नहीं होती। बसों और ट्रेनों की छत तक जनता ठुंसी रहती है। ‘घर’ जाने वाली इस ललक को कोई नहीं रोक सकता। उन्हें किसी भी तरह होली और छठ पर गांव जाना होता है। बहुत सारे लोग तो साल में एक ही पर्व पर गांव-गिराम जा पाते हैं। इस यात्रा के लिए वे पूरे वर्ष बचत करते हैं, प्रतीक्षा में रहते हैं। यही ललक उन्हें कठिन शहरी जीवन में उत्साह से भरे रहती है।
कोरोना के पहले दौर की देशबन्दी में तपती सड़कों पर बच्चों को कांधे और पीठ में बैठाए नंगे पांव हर दिशा से ‘घर’ लौटती अंतहीन कतारों को देखकर शहरियों को पहली बार लगा होगा कि शहरों की बनावट में उनके अलावा भी लोग हैं। जिन्हें अंग्रेजी जुबान की नकल में ‘प्रवासी मजदूर’ कहकर पुकारा गया, वह यही जनता है जो शहरों में जीवन यापन का रास्ता तलाशने आती है और शहरी मध्य वर्ग की गाड़ी भी खींचती है। पहले उनकी गिनती ही नहीं होती थी हालांकि उनके छुट्टी जाने पर शहरियों के माथे पर बल पड़ते रहते थे- ‘चार दिन की छुट्टी जाते हैं तो लौटने का नाम ही नहीं लेते!’
पर्व-त्योहार, विशेष रूप से होली और छठ की मौलिक उमंग तो इसी जनता में देखी जाती है। जिस निश्छल उन्मुक्तता से वे ढोलक-डफ-मंजीरा बजाते हुए रंग खेलते और फाग गाते हैं, उसकी कोई तुलना शहरियों में बड़े ऐहतियात से लगाए जाने वाले अबीर के टीके या गल-भेंटी से नहीं हो सकती। जिस परम श्रद्धा से नहाय-खाय एवं खरना के बाद जल में खड़े होकर अस्ताचलगामी तथा उदित होते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, उसकी अनुभूति अद्भुत वाली तरंगें दूर तक जाती हैं। ठेकुआ का प्रसाद यूं ही दूर-दूर तक नहीं पहुंचता। उसमें जो सहज और आत्मीय आस्था भाव है वह अरबों रुपयों के मंदिर निर्माणों और आस्था की बड़बोली उद्घोषणाओं को खोखला साबित करने के लिए पर्याप्त है।
शहरों में बसे इन गांवों ने ही पर्वों-त्योहारों-उत्सवों की भारतीय पहचान बचाए रखी है जिसे सिर चढ़े बाजार और स्वार्थी व विभाजक राजनीति ने नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
चुनाव में वोट देने के लिए भी वे ‘देस’ का रुख करते हैं। चुनाव भी तो पर्व है। लोक सभा और विधान सभा चुनावों में जाना सम्भव न भी हो तो ‘परधानी’ का वोट देने तो उन्हें जाना ही होता है। कोरोना काल में दृष्टिगोचर हुए इस विशाल भारत का संज्ञान अब चुनाव आयोग ने भी लिया है। दूर की कौड़ी ही है अभी लेकिन खबर है कि आयोग ‘प्रवासी मजदूरों’ (यह नाम कैसा लगता है?) के लिए रिमोट वोटिंग मशीनों की तैनाती पर विचार कर रहा है ताकि वे जहां हैं वहीं से मतदान कर सकें। अभी तक तो इस ‘भारत’ का को ‘डेटा’ ही सरकार के पास नहीं था। अब शायद कुछ आंकड़े जुटाने की कवायद भी होगी।
(सिटी तमाशा, नभाटा, 13 नवम्बर, 2021)
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