आजकल हर चीज और काम-धाम को ‘स्मार्ट’ बनाने का चलन है। फोन भी ‘स्मार्ट’ हैं, शहर भी और पुलिस भी। शहर कितने ‘स्मार्ट’ हुए हैं, इसका अनुभव प्रतिदिन होता ही होगा। पुलिस कितनी ‘स्मार्ट’ हुई है, यह पिछले हफ्ते एक सर्वेक्षण में सामने आया है। देश भर में हुए इस ‘स्मार्ट पुलिसिंग सर्वे’ में उत्तर प्रदेश पुलिस का नम्बर नीचे से दूसरा है। वह चाहे तो संतोष कर सकती है कि सबसे नीचे का स्थान बिहार राज्य की पुलिस को मिला है।
सर्वेक्षण के इस परिणाम पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पिछले ही महीने दिल्ली उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश पुलिस
को कड़ी फटकार लगाते हुए टिप्पणी की थी कि “यह अवैध काम यहां दिल्ली में नहीं
चलेगा.... आपकी यू पी में शायद चलता हो।’’ अपनी मर्जी से ब्याह करने वाले एक वयस्क युवक के पिता और भाई को दिल्ली से
पकड़कर शामली में उनकी गिरफ्तारी दिखाने के मामले में अदालत ने यह तीखी टिप्पणी की
थी।
संयोग ही है कि जब इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट आई, उस
समय लखनऊ में देश भर के पुलिस महानिदेशकों का सम्मेलन चल रहा था, जिसमें प्रधानमंत्री एवं केंद्रीय गृहमंत्री समेत विभिन्न पुलिस महकमों के
शीर्षस्थ अधिकारी उपस्थित थे। पुलिस को ‘स्मार्ट’ बनाने की पहल प्रधानमंत्री के स्तर से हुई थी। पता नहीं, इस सम्मेलन में जुटे नेताओं और अधिकारियों ने इस रिपोर्ट पर ध्यान दिया एवं
उस पर चर्चा की अथवा नहीं, लेकिन उस विशेष अवसर पर यह
रिपोर्ट एक कड़वा सच तो बता ही गई।
इस सर्वेक्षण में देश भर के एक लाख इकसठ हजार लोगों से
पुलिस के बारे में दस श्रेणियों में सवाल किए गए। ये सवाल पुलिस की सक्षमता, संवेदनशीलता,
उपलब्धता, रवैया, तकनीक-योग्यता,
ईमानदारी, विश्वसनीयता, साख,
आदि के बारे में थे। जनता को अपने अनुभव के आधार पर नम्बर देने थे।
बिहार पुलिस को पांच श्रेणियों में सबसे कम नम्बर मिले। उत्तर प्रदेश पुलिस को ‘मददगार और दोस्ताना पुलिस’, ‘ईमानदार और निष्पक्ष
पुलिस’ तथा ‘पुलिस दायित्वशीलता’
श्रेणियों में सबसे कम अंक मिले। अर्थात सर्वेक्षण बताता है कि ‘जनता की मित्र’, ‘ईमानदार’ और ‘जवाबदेह’ होने में प्रदेश पुलिस देश भर में सबसे
पीछे है।
उत्तर प्रदेश पुलिस से थोड़ा ‘स्मार्ट’ छत्तीसगढ़ की पुलिस पाई गई। उसके ऊपर झारखण्ड और पंजाब का नाम है। सबसे ‘स्मार्ट’ का दर्ज़ा आंध्र प्रदेश की पुलिस को मिला।
उसके बाद तेलंगाना, असम, केरल और
सिक्किम पुलिस का नम्बर आया है।
यह सर्वेक्षण इण्डियन पुलिस फाउण्डेशन ने किया है, जिसके
अध्यक्ष प्रख्यात पुलिस अधिकारी और उत्तर प्रदेश पुलिस के महानिदेशक रहे प्रकाश
सिंह हैं। पुलिस व्यवस्था में सुधार लाने के लिए वे लगातार सक्रिय रहे हैं। उनकी ही
पीआईएल पर कोई पंद्रह वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने उनके सुझाए पुलिस सुधार लागू
करने के निर्देश दिए थे। वे निर्देश तब से धूल खा रहे हैं। इन वर्षों में कई
सरकारें आईं-गईं। किसी ने भी इन सुधारों को लागू करना तो दूर, उनकी तरफ झांकना भी आवश्यक नहीं समझा।
सुप्रीम कोर्ट के सुझाए पुलिस सुधारों में सबसे प्रमुख उसे
राजनैतिक ‘संरक्षण’ से मुक्त करना है यानी पुलिस
सरकार या नेताओं के हाथ की कठपुतली नहीं होनी चाहिए। कटु सत्य यह कि प्रत्येक
सरकार को चाहिए यही होता है। पुलिस ही नहीं, सीबीआई समेत
विभिन्न जांच एजेंसियों को सभी सरकारें अपने हित में और विरोधियों के विरुद्ध
इस्तेमाल करती आई हैं। इसलिए पुलिस निरंकुश होती गई और सरकारों-नेताओं का संरक्षण
उसे मिलता रहा। इस प्रक्रिया में पुलिस कानून की रक्षक और जनता की मददगार रह ही
नहीं गई।
बिहार और उत्तर प्रदेश में सम्भवत: यह सर्वाधिक हुआ।
सर्वेक्षण यही तो बता रहा है।
(सिटी तमाशा, नभाटा, 27 नवम्बर, 2021)
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