देश में शिक्षा के हालात पर प्रति वर्ष जारी होने वाली प्रतिष्ठित ‘असर’ रिपोर्ट में यह देखना सुखद लग सकता है कि पिछले दो वर्षों में निजी स्कूलों में भर्ती होने वाले छात्रों की संख्या घटी जबकि सरकारी स्कूलों में काफी बढ़ी है। ऐसा कई राज्यों में दिखा है, उत्तर प्रदेश में भी और केरल में भी। कई साल बाद ऐसा हुआ है। अपने उत्तर प्रदेश में इस वर्ष सरकारी स्कूलों में 13.2 प्रतिशत अधिक बच्चों का प्रवेश हुआ। निजी विद्यालयों में भर्ती होने वाले बच्चों की संख्या में चार फीसदी से अधिक कमी आई।
‘असर’ रिपोर्ट के विस्तार में जाते ही इस लगभग
अजूबे फेरबदल का कारण समझ में आ जाता है। कोविड महामारी ने बहुत बड़ी संख्या में परिवारों
की आय में कमी कर दी। कितने ही रोजगार खत्म हुए, कम्पनियां बंद
हुईं और कितनी ही नौकरियां गईं। आमदनी में कटौती या बेरोजगारी से परेशान बहुतेरे अभिभावकों
ने अपने बच्चों की अंगुली पकड़कर सरकारी विद्यालयों का रुख किया। निजी स्कूलों में बच्चों
की संख्या घटकर दस साल पहले जितनी हो गई है।
सरकारी विद्यालयों में अचानक काफी बढ़ी हुई भर्तियों का यह कारण
त्रासद ही है। वर्ना तो सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या साल-दर-साल कम होती रही
है। कहीं-कहीं तो स्कूलों को बंद करने या दूसरे स्कूलों में उनका विलय करने की नौबत
आती है। गरीब से गरीब माता-पिता भी अपने ब्च्चों को निजी स्कूलों, जो ‘इंगलिश’ या ‘कॉन्वेण्ट’
कहलाते हैं, में ही भेजते हैं भले ही उन्हें कर्ज
लेना पड़े। निजी स्कूल महंगे से बहुत महंगे तक हैं। इसीलिए उन्हें शिक्षा की दुकानें
भी कहा जाता है। स्वाभाविक है कि महामारी के मारे लोगों ने महंगी दुकानों का रुख कम
किया।
‘असर’ रिपोर्ट के लिए ‘प्रथम’ नामक स्वयंसेवी संगठन प्रतिवर्ष देश भर के स्कूलों
के हालात, पढ़ाई और बच्चों के मानसिक-शैक्षिक विकास के स्तर का
सर्वेक्षण करता है। महामारी के दौर में हुए इस बार टेलीफोन से किए गए सर्वेक्षण ने
कुछ और त्रासद पहलुओं पर रोशनी डाली है। जैसे कि, ट्यूशन पढ़ने
वाले बच्चों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई है। ट्यूशन की यह बढ़ी हुई प्रवृत्ति मुख्य
रूप से ‘आर्थिक एवं शैक्षिक रूप से कमजोर’ परिवारों के बच्चों में पाई गई। यानी कि गरीब परिवारों ने जहां अपने बच्चों
को निजी की बजाय सरकारी स्कूलों में डाला, वहीं उन्हें ट्यूशन
पढ़ने भी भेजा। कह सकते हैं कि इन अभिभावकों को सरकारी स्कूलों की पढ़ाई पर पूरा भरोसा
नहीं है। लम्बे समय तक स्कूलों की बंदी के कारण भी ट्यूशन बढ़े।
रिपोर्ट के अनुसार महामारी के दौरान ‘ऑनलाइन’
पढ़ाई के लिए छब्बीस प्रतिशत से कुछ अधिक बच्चों के पास स्मार्ट फोन की
सुविधा नहीं थी। 2021 में ग्रामीण भारत के 67.6 फीसदी घरों में स्मार्ट फोन होने के
बावजूद इतने बच्चे ऑनलाइन पढ़ नहीं सके। यह प्रतिशत अलग-अलग राज्यों में थोड़ा हेर-फेर
के साथ इसी के आस-पास रहा। बहुत सारे घरों में सिर्फ एक स्मार्ट फोन था लेकिन वह बच्चों
को पढ़ने के लिए उपलब्ध नहीं हुआ। घर के बड़ों को उससे जरूरी काम रहे होंगे।
महामारी ने जहां तकनीक का विस्तार किया और उसकी उपयोगिता और
बढ़ती निर्भरता साबित की, वहीं समाज की गैर-बराबरी को और उजागर किया।
गरीबी की गहरी खाई के साथ तकनीक भी अलंघ्य दीवार बनकर खड़ी हो गई है। गांव-गांव मोबाइल
की पैठ ही अब काफी नहीं है। जीवन अधिकाधिक डिजिटल हो रहा है तो स्मार्ट फोन और इण्टरनेट
कनेक्टिविटी उसके लिए आवश्यक आधार हैं। उसका उपयोग करने की बेहतर समझ और चतुराई तो
बहुतेरे अमीरों को भी सीखनी बाकी है।
महामारी ने गरीब दुनिया को और लाचार बनाया है।
(सिटी तमाशा, नभाटा, 20 नवम्बर, 2021)
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