Friday, November 14, 2025

बराबरी की भाषा लिए पितृसत्ता की जड़ पर हमला कीजिए

यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि हमारी पितृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था में हर क्षेत्र में जबर्दस्त लैंगिंग असमानता और भेदभाव है। हमारे रीति-रिवाजों-त्योहारों, खान-पान, पहनावे, बोली-बानी और दैनंदिन आचार-व्यवहार में यह स्पष्ट दिखाई देता है।

पुराने समय में इस ओर ध्यान नहीं जाता होगा। अब प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी हुई है, शिक्षा और चेतना का विकास हुआ है और वे पुरुष-गढ़ों को ध्वस्त कर रही हैं। ऐसे में भाषाई भेदभाव चुभना स्वाभाविक है। इसीलिए स्वतंत्रचेता स्त्रियों ही में नहीं, पुरुषों में भी भाषा बरतने में सतर्कता दिखाई देने लगी है। अंग्रेजी जैसी वर्चस्व की भाषा में चेयरमैन’, ‘बैट्समैन’, आदि के स्थान पर चेयरपर्सन’, ‘बैटर’, आदि शब्दों का प्रयोग शुरू हुआ है। यह स्वागत योग्य कदम है।

कुछ समय से एनबीटीअखबार ने, जो कभी नभाटा’ (नवभारत टाइम्स) कहलाता था, हिंदी भाषा की लैंगिंग असमानता मिटाने के लिए नया प्रयोग शुरू किया है। अंग्रेजी और अन्य विदेशी भाषाओं ने जहां लिंग निरपेक्ष शब्दों का चयन किया, वहीं एनबीटीने बहुत सारे शब्दों को पुरुष वाचक मानते हुए उनके स्थान पर स्त्री वाचक शब्द गढ़ने शुरू किए हैं। बल्लेबाजिनी’, ‘निवेशिका’, ‘सैनिका’, जैसे काफी शब्द उसमें छपने लगे हैं। जैसे, शुभमन गिल के लिए बल्लेबाज और स्मृति मंधाना के लिए बल्लेबाजिनी लिखा जाता है। शेयर बाजार में निवेश करने वाला पुरुष निवेशकहै और स्त्री निवेशिका

ये शब्द अटपटे ही नहीं, हास्यास्पद भी लगते हैं। व्याकरण सम्मत भी नहीं। मान लेते हैं कि भाषा बहता नीर है और अनेक बार वह व्याकरण के कूल-किनारों को ध्वस्त करते हुए भी बहती है। ग्रामीण-कस्बाई क्षेत्रों में महिला डॉक्टर के लिए डॉक्टरनीशब्द प्रयुक्त होते हुए सुनते हैं- “डाक्टरनी जी, मेरे बच्चे को ठीक कर दीजिए।महिला वकील के लिए कोई वकीलिनी नहीं कहता।

हिंदी का व्याकरण लैंगिंग प्रयोग के मामले में स्पष्ट है। वह अच्छा डॉक्टर हैऔर वह अच्छी डॉक्टर हैसे स्पष्ट हो जाता है कि किसके बारे में बात की जा रही है। इंदिरा गांधी के लिए कभी प्रधानमंत्राणीनहीं कहा-लिखा गया। वह सख्त प्रधानमंत्री थींसे स्पष्ट हो जाता है। राष्ट्रपतिका स्त्रीलिंग क्या बनाएंगे? इसमें पतिपुरुष के लिए प्रयुक्त नहीं हुआ है, जिसके कारण इसे पितृसत्तात्मक शब्द मान लिया जाए और द्रौपदी मुर्मू को सम्बोधित करने के लिए नया शब्द बनाया जाए।

हिंदी में कई बार अध्यक्षा’, ‘सम्पादिका’, जैसे शब्द भी प्रयुक्त होते दिखते हैं और चल भी रहे हैं। कहा न कि भाषा अपने व्याकरण को भी कभी तोड़ देती है। जो चल गया, सो चल पड़ा। लेकिन भाषाई प्रकृति और व्याकरण के हिसाब से अध्यक्षअध्यक्ष है, महिला हो या पुरुष। सम्पादकसम्पादक है, महिला हो या पुरुष। सम्पादिकाकी तर्ज़ पर विधायक को विधायिकालिखेंगे तो अनर्थ हो जाएगा। पद, पद है। पुरुष या स्त्री वाचक नहीं।  

हिंदी में एकवचन के बाद बहुवचन ही होता है, द्विवचन नहीं। संस्कृत का व्याकरण अलग है। वहां एक वचन, द्विवचन और बहुवचन यानी तीन वचन होते हैं। इसलिए संस्कृत में दम्पतीशब्द बनता है। अब हिंदी के कुछ विद्वानों ने दम्पतीचला दिया। एनबीटीभी हिंदी के दम्पतिको गलत कहते हुए दम्पतीलिखता है, जो गलत है। भाषाविद सुरेश पंत ने अपनी हालिया दो चर्चित किताबों शब्दों के साथ-साथमें ऐसी कई गलतियां इंगित की हैं।

हिंदी में न्यूट्रल जेंडर नहीं होता। कुर्सी स्त्रीलिंग है, चश्मा पुल्लिंग। अंग्रेजी की तरह संस्कृत में तीसरा न्यूट्रल जेण्डर भी होता है। आपने महिला बल्लेबाज को बल्लेबाजिनी बना दिया। कल को ट्रांसजेण्डर बल्लेबाज के लिए क्या शब्द बनाएंगे, ‘बल्लेबाजा जैसा कुछ? वे भी लैंगिंग असमानता की शिकायत करते हैं।

भाषा को सहज-सरल होना चाहिए। लिंग निरपेक्ष शब्द बनाना समझ में आता है, जैसा अंग्रेजी ने किया। एक ही संज्ञा के लिए अलग-अलग लिंग वाचक शब्द भाषा को जटिल भी बनाते हैं, जैसे कवयिता’ (पु) और कवयित्री (स्त्री)। कवि पर्याप्त होना चाहिए।

बराबरी की भाषा बनाने के लिए, शब्दों से खिलवाड़ नहीं, समाज की सोच में आमूलचूल बदलाव लाने की जरूरत है। हमारी भाषा की गालियों, मुहावरों और लोकगीतों में घनघोर स्त्री-विरोध है। सारी गालियां स्त्री का अपमान करने के लिए हैं। भाषा में जबर्दस्त जातीय भेदभाव, बल्कि घृणा है। कितने ही मुहावरे जातीय द्वेष से भरे हुए हैं। दलितों के लिए और भी अपमानजनक शब्द और मुहावरे हैं। पुरुषों के लिए गालियां गढ़कर या उनके लिए मुहावरे बनाकर बराबरी की भाषा नहीं बनेगी। इसके लिए उन अंधेरे कोनों में झांकना ज़्यादा जरूरी है, जहां से स्त्री-द्वेष जन्म लेता है। पितृसत्ता की जड़ पर हमला कीजिए। स्त्री को जीवन में बराबर का सम्मान मिले, इसका अभियान चलाइए।

काफी समय से हिंदी अखबारों में अंग्रेजी शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। हिंदी में जबरिया अंग्रेजी ठूंसी जा रही है। व्याकरण भी अंग्रेजी का चलाया जा रहा है। एनबीटी इसका अगुवा बना हुआ है। राहतऔर बचाव की बजाय रेस्क्यूक्यों लिखा जाए, पहले इस पर सोचिए। 

-नवीन जोशी, नवभारत टाइम्स के सम्पादकीय पृष्ठ पर 14 नवम्बर 2025 को प्रकाशित 

                

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