1970 के दशक की बात है। सूचना निदेशक और साहित्यकार ठाकुर प्रसाद सिंह के दफ्तर में अक्सर युवाओं का जमावड़ा लगा रहता था। युवा लेखकों-कवियों को वे खूब प्रोत्साहित करते थे। अपने खास अंदाज़ में रोचक किस्से भी सुनाया करते थे। एक दिन बताने लगे कि कहीं फोन करने के लिए जब उन्होंने चोगा उठाकर कान में लगाया तो रिसीवर से आवाज़ें आ रही थीं उन दिनों अक्सर ऐसा हो जाता था। आपकी फोन लाइन किसी दूसरी लाइन से अपने आप जुड़ जाती थी और आप उनकी बातचीत सुन सकते थे। तो, फोन पर एक लड़का किसी लड़की से किसी शांत और एकांत जगह में मिलने की बात कर रहा था। लड़का हर बार एक जगह सुझाता तो लड़की तुरंत मना कर देती कि वहां ऐसा है, वहां वैसा है, वहां पास में चाचा रहते हैं, वहां दीदी की ससुराल है, वगैरह।
ठाकुर साहब बता रहे थे- ‘बेचारा प्रेमी जोड़ा मिलने के लिए छटपटा रहा था। सो, थोड़ी देर बाद मैंने फोन पर कहा कि अगर चिड़ियाघर या दिलकुशा या रेजीडेंसी में न मिलना चाहो तो किसी लायब्रेरी में मिलो। वहां कोई देखेगा भी तो शक नहीं करेगा। यह कहकर फोन रख दिया मैंने।’
पता नहीं वे सच्चा किस्सा सुना रहे थे या किस्से की मार्फत हम युवाओं को मिलने की जगह सुझा रहे थे। वह उम्र ही ऐसी थी। इकतरफा प्रेम में सभी पड़े रहते थे। अगर किसी का किस्सा दोतरफा हो गया तो मिलने के अवसर और जगहें ढूंढना बोर्ड के इम्तहान पास करने से कठिन होता था। हो सकता है, ठाकुर साहब को हममें से किसी के इस संकट का पता चल गया हो।
बहरहाल, उस समय तो नहीं लेकिन चंद वर्ष बाद शहर के पुस्तकालय हमारा बढ़िया और गोपनीय मिलन केंद्र अवश्य बने। ठाकुर साहब की सलाह तो काम आई ही, किताबों की संगत में मुहब्बत भी ‘क्लासिक’ हुई! मोतीमहल स्थित आचार्य नरेंद्र देव पुस्तकालय और हजरतगंज के सूचना केंद्र वाले पुस्तकालय का आनन-फानन सदस्य बना-बनवाया गया। मेफेयर बिल्डिंग में ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी में बिना सदस्य हुए भी देर तक बैठा जा सकता था। वहां एसी चलता था और चंद ही पाठक होते थे। कोई-कोई तो सिर्फ ठंडी हवा में झपकी लेने आ जाया करते थे और एक पत्रिका सामने खोलकर ऊंघा करते थे। वहां निश्चिंत होकर देर तक बैठा और मंद्र स्वर में बतियाया जा सकता था। काउंटर पर बैठे हिंदुस्तानी सख्श की निगाह जरूर पीछा करती रहती थी।
लड़कियों के लिए भी ‘लाइब्रेरी जा रही हूं’ कहकर घर से निकलना कुछ आसान होता था। तब लड़कियों को आज जैसी आज़ादी नहीं थी। शाम को अंधेरा होने तक घर लौटना होता था। कोई दो-ढाई घंटे बाद हाथ में एक किताब लेकर घर लौटने पर सवालों से कुछ बचत हो जाती थी, हालांकि बाहर की किताबें भी शक के दायरे में आती थीं। नरेंद्र देव लाइब्रेरी बिल्कुल कोने में थी। जाड़ों में उसके हरे-भरे लॉन में धूप भी सेकी जा सकती थी, हालांकि इसमें ‘पकड़े’ जाने का खतरा रहता था। मोतीमहल सोसायटी कुछ छात्र-छात्राओं को साल भर के लिए निशुल्क पाठ्य पुस्तकें भी जारी कर देती थी। विश्वविद्यालय में टैगोर लाइब्रेरी का लॉन भी अच्छी जगह था लेकिन दोस्त चैन से बैठने दें तब तो! सूचना केंद्र शहर के बीच में होने से वहां आना-जाना कतई मुश्किल नहीं था। ‘शॉर्ट नोटिस’ पर मिलने के लिए वह अच्छी जगह थी।
लाइब्रेरी में मिलने का एक लाभ यह भी था कि अगर दोनों में कोई एक पहले पहुंच गया या दूसरे को देर हो जाय तो भी प्रतीक्षा असहज नहीं होती थी। तब लाइब्रेरी का वह लाभ उठाया जा सकता था जिसके लिए वे वास्तव में बनी होती हैं! सड़क पर साथ-साथ चलना अत्यंत दुस्साहस का काम था और रिक्शे पर साथ बैठना निश्चित रूप से खतरा मोल लेना होता था। तब सारा शहर घूरता था और बात कान-कान होते हुए लड़की को कटघरे में खड़ा कर देती थी। लड़की का भाई सबसे खतरनाक प्राणी हुआ करता था, भले ही वह स्वयं अपने लिए मिलने की जगह तलाशने में भटका फिरता हो। इसलिए लाइब्रेरी से कुछ समय के अंतराल पर अलग-अलग निकलना ही समझदारी होती थी।
हमारे एक मित्र और उनकी ‘वह’ कुछ अधिक ही दुस्साहसी थे। वे किसी मित्र की स्कूटर दो घण्टे के लिए उधार लेकर चार घंटे से पहले न लौटते। इधर मित्र से सचमुच का झग़ड़ा होता, उधर घर पर कन्या का मुंह सूज गया रहता। ऐसा सिर्फ रोने से ही नहीं होता था, उससे पहले पिटाई की रस्म भी निभाई दी गई होती थी। सीतापुर रोड पर कोई आठ-दस किमी दूर नया-नया खुला ‘पूरब-पश्चिम’ रेस्त्रां उनका पसंदीदा अड्डा हुआ करता था। कुछ ही दिन में उनका इश्क शहर भर में प्रसिद्ध हो गया। घायल खूब हुए लेकिन निकले वे प्रेमवीर चक्र विजेता ही। उनके किस्से हम बुढ़ापे में भी याद करते हैं, इस ताने के साथ कि ‘तुम बहुत दब्बू थे!’ सुनना ही मजबूरी है क्योंकि अब उस मोर्चे पर कुछ किया नहीं जा सकता!
‘डेटिंग’ शब्द हमने दूर-दूर तक सुना न था। यह जन्मा नहीं था या हमसे बहुत दूर कहीं पाया जाता था, पता नहीं। मुहब्बतों की तासीर में लेकिन कहीं कोई कमी नहीं होती थी। आज के प्रेमियों को हम चुनौती दे सकते हैं कि तुम्हारी मुहब्बतों में क्या तड़प होगी जो हमने झेली। दिल इतना उछलता था कि बस दौरा ही नहीं पड़ता था। उसांसें भरने का तो आपको अर्थ भी पता न होगा। ‘डेटिंग’ वाले वह कशिश क्या जानेंगे जब मिलने का समय और स्थान एक दूसरे तक पहुंचाने के लिए भी समुद्र लंघन करना पड़ता था। ये नहीं कि फोन उठाया, कॉल किया या वहट्सैप भेजा और सज-धज के पहुंच गए। आप समझ ही नहीं सकते कि हफ्ते भर की मेहनत से एक चिट सही ठिकाने पर पहुंचा पाने की जद्दोजहद क्या होती है और जवाब का इंतज़ार तन-मन में कितनी हलचल मचाया देता था।
और, चिट लिखना क्या आसान होता था? हड़प्पा-युग की जैसी अबूझ कोड-भाषा खोजने और उसका अभ्यास कर लेने के बाद भी कभी ऐसा भ्रम हो जाता था कि आप सूचना केंद्र की लाइब्रेरी में इंतज़ार करते बेचैन हो रहे हैं और वो नरेंद्र देव लाइब्रेरी में कुछ भेदती निगाहों के बीच कसमसा रही हैं। हद यह भी हो जाती थी कि घंटे भर प्रतीक्षा के बाद आप नरेंद्र देव लाइब्रेरी का रुख करते हैं और उसी समय वही बेचैनी उन्हें सूचना केंद्र ले आती है। दोनों तरफ ‘कहीं ऐसा तो नहीं हो गया, कहीं वैसा तो नहीं हुआ होगा’ के अंदेशे प्राण सोखने लगते थे। वह कशिश, वह बेचैनी, वह नाराजगी मुहब्बत का ऐसा अदृश्य फैविकॉल बन जाती थी कि पीयूष पाण्डे के उर्वर विज्ञापनी दिमाग की पहुंच भी वहां न हो सकती थी। इश्क के इस मजे से ‘डेटिंग’ वाली पीढ़ी वंचित ही रहेगी।
लड़के तो लड़कों की तरह आज़ाद होते थे मगर लड़कियों के लिए हज़ार आपदाएं टूट पड़ने का इंतज़ार करती रहती थीं। आज की तरह यह नहीं कि सजे-धजे, परफ्य्यूम महकाया और मम्मी की ओर ‘सी, यू’ का जुमला उछालते हुए स्कूटी की चाबी घुमा दी। मिलने वाले दिन लड़की सुबह से सारे काम जल्दी-जल्दी निपटाकर घर के कुछ अतिरिक्त काम भी उत्साह से निबटा दिया करती थी ताकि ऐन मौके पर मां कोई काम न बता दे। और, अक्सर ऐन मौके पर ओले पड़ ही जाते थे। ‘मैं सहेली के घर से किताब लेकर आती हूं’ कहकर वे घर से निकलने वाली होतीं कि मां को गंदे कपड़ों के ढेर की याद आ जाती- ‘जल्दी से कपड़े फींच दे, फिर धूप चली जाएगी।’ मजाल जो मना किया जा सके। कुढ़न के मारे मुंगरी से कपड़ों की ऐसी चुटाई होती कि मां को कहना पड़ जाता- ‘कपड़े फाड़ डालेगी क्या? किस बात का गुस्सा दिखा रही है छोकरी, सहेली के यहां कल चली जाएगी तो क्या आसमान टूट पड़ेगा?’ उधर आप बेचैनी से टहल रहे हैं, बार-बार उस दिशा में देख रहे हैं, रूठने के दसियों तरीके इजाद कर रहे हैं और दो घंटे बाद युद्ध के मैदान में पराजित सिपाही की तरह लौट रहे हैं।
‘डेटिंग’ में जितनी आसानी से आप ‘हग’ कर लेते हो, उसमें वह बात कहां जब साड़ी या दुपट्टे का पल्लू छू लेने की मासूम ख्वाहिश भी बार-बार दम तोड़ दिया करती थी। दिल गुंथे रहते थे लेकिन बीच की भौतिक दूरी कम करते-करते युग बीत जाया करते थे। यह मोर्चा किसी तरह फतह कर लिया तो अंगुलियों का स्पर्श करना ऐवरेस्ट की चढ़ाई से कम नहीं था। ‘एक मुद्दत से तमन्ना थी तुम्हें छूने की’ जैसा गीत अब कोई क्या खाक लिख पाएगा! कशिश की हदों से गुजरना पड़ता था, बच्चो! ... और पहले स्पर्श का वह कम्पन, वह गुदगुदी, वह झुरझुरी, वह धुक-धुक ...शब्दातीत! ... आज तक उसकी महक दिल-दिमाग और सांसों में बसी हुई है! ‘हग’ करने वालों को इस अनुभव के लिए टाइम मशीन में बैठकर चालीस-पचास साल पीछे जाना होगा।
शायर को चीटी ने नहीं काटा था न कि वो कह गया- ‘दोनों तरफ हो आग बराबर लगी हुई।’ मतलब होता था इसका। ऐसी आग लगती थी कि ‘बुझाए न बुझे’। आज तक सुलग रही है। यहां ‘सुलगने’ का अर्थ-अनर्थ कर दिए जाने का खतरा है क्योंकि अब आग ठीक से लगती भी नहीं कि बारिश हो जाती है। मतलब कि किसी भी नुक्कड़ पर, फुटपाथ पर कहीं भी, किसी पार्क या मॉल में ‘मुदहुं आख कतहुं कछु नाहीं!’ तब सारे जमाने की आंख आप पर हुआ करती थी। मजाल जो कोई पलक भी झपका ले। यह तो अपना ही जिगरा था कि सौ तालों के बीच से आसमान का एक टुकुड़ा चुरा लिया करते थे।
मुहब्बत की परिभाषा ही बदल गई है ससुर। जमाने भर से जितनी शायरी कही-दोहराई जाती रही, सब बेकार हो गई हैं। ‘डेटिंग’ पर मुई एक मरियल सी कविता भी आज तक किसी से लिखते न बनी। विज्ञान और टेक्नॉलजी ने कितनी ही तरक्की कर ली हो, इश्क का जमाना तो हमारा ही अव्वल था। इसे बुढ़ापे का फलसफा समझकर हंसी में न उड़ा दिया जाए।
- न जो, 17 नवम्बर, 2025 के नवभारत टाइम्स यानी कि NBT में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment