बीते मंगलवार को आंधी-पानी
से बचने के लिए खड़े लोगों ने ओवरब्रिज के नीचे का पूरा रास्ता बंद कर लिया था. उसी
में दोपहिया गाड़ियां ठुंसी थीं. कारें हॉर्न पर हॉर्न बजाए जा रही थीं और कोई टस
से मस होने को तैयार नहीं था. पूरी सड़क चीखती गाड़ियों और गाली-गलौज के शोर से भरी
रही. चलिए, यह तो अचानक और बेमौसम आई आंधी-पानी के कारण हुआ था लेकिन बाकी समय?
जब रेल का फाटक बंद होता है
तो हम कितने तमीज से गाड़ियां खड़ी करके ट्रेन के गुजरने का इंतजार करते हैं? चौराहे कितने अनुशासित ढंग
से बत्ती के हरी होने तक खड़े रहते हैं? बाएं जाने वाला बिल्कुल दाहिने और दाहिने जाने वाला बाएं
छोर पर क्या सोच कर अपनी गाड़ी लगा देता होगा? दाएं-बाएं मुड़ने का संकेत देने के लिए लगी
इण्डीकेटर लाइटों का सिर्फ सजावट के लिए होना क्या जरूरी है? कानफाड़ू हॉर्न जरूर बजाइए
ताकि सबको लगे कि हमारे पास गाड़ी है! कार सरकारी हो और ड्राइवर साहब का मुंह लगा
तो फिर देखिए करतब. दस गुना ज्यादा डेसिबल का हॉर्न और यातायात के नियम गाड़ी की छत
पर लगी लाल-नीली बत्ती के नीचे दम तोड़ते नजर आते हैं.
मोटरसाइकिल वाले कहीं से भी
फर्राटा मारते हुए आ सकते हैं और कहीं को भी जा सकते हैं. आप बाएं जा रहे हैं तो वे
अचानक आपके सामने बाएं से दाएं मुड़ जाएंगे, पीछे से आकर ठीक सामने तिरछे हो जाएंगे, सर्कस के कुएं में बाइक
चलाने जैसा करतब दिखाते हुए आपको चकरघिन्नी खिला देंगे और डिवाइडर फांद कर कोई भी स्टण्ट
करने को हर वक्त आजाद.
सड़क पर आप पैदल हैं तो जान
हथेली पर और वाहन चला रहे हैं तो हर वक्त जान-माल के लाले. बिना हील-हुज्जत के 5-6
किमी आगे बढ़ जाएं तो गनीमत. यहां अब भी सबसे तमीजदार साइकिल वाला है जो साइकिल पथ
के बावजूद सड़क पर टेढ़ा-मेढ़ा ही चलता है लेकिन आपको घूरता कतई नहीं. तमीज के मामले
में लखनऊ की परिभाषा पूरी तरह बदल गई है. जितनी बड़ी गाड़ी होगी, चलाने–बैठने वाले उतने ही
बेशऊर. ट्रैफिक सिपाही हो या मर्सिडीज वाला, गुस्सा रिक्शा वालों पर ही उतारता है.
सड़क किनारे या बीच बाजार गाड़ी कैसे खड़ी जाती है, इसका
ठसका तो खैर हुजूर की राजनीतिक या सार्वजनिक प्रतिष्ठा बता ही देती है, रिहायशी कॉलोनियों में भी कोई ठीक आपके घर के गेट के सामने अपनी गाड़ी खड़ी
कर बाजार या रेस्त्रां चल दे तो चौंकना नहीं होता. यह नई तरह का घेराव या घर में
आपकी नजरबंदी होगी, जब तक कि हुजूर पूरे नवाबी ठाठ से
खरामा-खरामा नमूदार न हो जाएं. हो सकता है गाड़ी में बैठने से पहले वे आपकी दीवार
पर निवृत्त भी होना चाहें!
बात सड़क पर ही हमारे व्यवहार की नहीं है. बार विचार और
बर्ताव की है. हमारी नजर मुहल्ले के पार्क से गुप-चुप फूल तोड़ने या पौधा ही उखाड़ लाने
पर लगी रहती है या हम उसे संवारने में भी कुछ योगदान करते हैं? पान
की पीक दफ्तर की दीवार या कूड़ेदान में थूकते हुए हमें कुछ गड़बड़ लगता है या नहीं? पॉलीथिन और प्लास्टिक कचरा कहीं भी डाल देने में हाथ झिझकता है? मेट्रो आ रही है, उसकी दीवारों पर हम मुहब्बत की निशानियां
बनाएंगे न! बस की गद्दी फाड़ने का आनंद कैसा होता है? पानी का
भू-भण्डार अगली पीढ़ी के लिए बचाकर क्यों रखा जाए?
सिर्फ इसलिए याद दिलाने का मन हुआ कि अपना यह नखलऊ, सुना
है, स्मार्ट होने वाला है. इसकी यह मजाल!
(नभाटा, लखनऊ में 04 दिसम्बर को प्रकाशित)
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