Thursday, December 10, 2015

सिटी तमाशा/ मैं तुम्हारी गोमती, तुम से कुछ कहती हूँ आज

, लखनऊ के आधुनिक बाशिंदो, मैं गोमती हूँ. तुम्हारी नदी. लाड़ से तुम मुझे गोमा भी कह देते हो. आज थोड़ी देर ठहर कर अपनी गोमा की बात सुन लोगे? बहुत दिनों से कहना चाहती रही हूं पर यहां किसी के पास मेरी बात सुनने की फुर्सत ही नहीं.

शहर के एक हिस्से में आजकल मुझे सुंदर बनाने का काम जोर-शोर से चल रहा है. तभी से मेरी आत्मा में हाला-डोला मचा है. आज का मनुष्य जब किसी नदी या जंगल को सुंदर बनाने चलता है तो उसकी जान ही निकाल लेता है. सरकार उसमें शामिल हो जाए तो फांसी का फंदा बहुत खूबसूरत बनाया जाता है. मेरी रूह कांप रही है.

देखो, मेरे पाटों को बड़ी-बड़ी मशीनें रौंद रही हैं. गहरी खुदाई करके मोटी-मोटी सरिया और सीमेंट-कंक्रीट भर कर मेरा श्रृंगार किया जा रहा है. उफ, नदी का इन बेजान चीजों से भला क्या वास्ता! मजबूत दीवारें खड़ी करके मुझे बांधा जाएगा ताकि मैं सीधी राह चलूं! यह दीवार मुझे मेरी हर धमनी से काट रही है. सरकारी भाषा में इसे रिवर फ्रण्ट डेवपमेण्ट कहते हैं. मेरी तलहटी से जो गाद निकाली जा रही है उसे किनारे बिछा कर समतल किया जा रहा है. यहरिक्लेम्ड लैण्ड (गजब, तुम नई जमीन भी पैदा कर लेते हो!) व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए बेची जाएगी ताकि मेरे सुंदरीकरण का खर्चा निकल सके. इस पर निजी बिल्डर और भी कंक्रीट से भव्य निर्माण कराएंगे. झुग्गी-झोपड़ियों को हटा कर यहां रिवर व्यू होटल-ढाबे-आरामगाह खुलेंगे. दोनों किनारों पर बढ़िया सड़कें होंगी, बेंच होंगी. सुनते हैं कुछ हरियाली भी होगी लेकिन मेरा उससे क्या रिश्ता बचेगा! तुम्हारी शामें यहां पुरलुफ्त होंगी. कभी सोचा है, तब मैं, तुम्हारी गोमा, कहां हूँगी?

भारी मशीनों से जो लोहा-सीमेण्ट मुझे जबरन पिलाया जा रहा है, उससे मेरे रहे-बचे सोते सूख रहे हैं, जिनसे मैं सांस लेती हूँ. मेरी जल वाहिनियां, मुझमें प्राण भरने वाले भीतरी कुएं, मेरी मिट्टी, मेरे पेड़-पौधे, मेरे जीव-जंतु सब मर रहे हैं. एक रात जब मशीनों का शोर बंद हो गया तो मेरे किनारों की मिट्टी रोने लगी कि गोमा, सीमेण्ट की यह मजबूत दीवार हमारा रिश्ता खत्म कर रही है. भारी-भारी पत्थर बिछाए जाने वाले हैं अब मैं बारिश का पानी कैसे सोखुंगी और कैसे तुझे दूंगी? घास और जड़ें भी फूट पड़े- गोमा, अलविदा. हमारे लिए तो कोई जगह ही नहीं बची. तभी केंचुए निकल आए. उनके साथ छिपकली, बिच्छू, सांप, अजगर, गोह, जाने कितने पुराने दोस्त आ गए. उन सबका दम घुट रहा था और सबने रो-रो कर मुझसे विदा ले ली. वे अब रहें भी कहां? मेरी सुंदरता की राह में वे दुश्मन हो गए. ऐ नए जमाने के बाशिंदो, जब ये सब मेरे अजीज, जो मुझे नदी बनाते आए हैं, नहीं रह जाएंगे तो मैं ही कैसे बचूंगी?

जैसी भी थी, मैं आज तक इन सब ही की वजह से नदी थी. तुमने मुझ पर कम अत्याचार नहीं किए. मुझमें अपने गंदे नाले डाले, मिलों का खतरनाक कचरा डाला, मेरी जीवनी शक्ति पर कितने तो हमले किए. अत्याचार सह कर भी मैं खुश थी कि आदमजात को मैं अपने किनारे बसेरा देती हूँ तो कभी वह मेरी पीड़ा भी समझेगा ही. लेकिन अब तुम बहुत विकसित हो गए हो. तुम्हें अब नदी की नहीं रिवर फ्रंट की जरूरत है. अब तुम्हें नदी के किनारे भी कंक्रीट के चाहिए लेकिन उसके बीच जो बहेगी वह तुम्हारी गोमा नहीं होगी. नालों का पानी रिसाइकिल करोगे और कभी नहर का पानी उसमें छोड़ोगे. नदी कह पाओगे उसे?
किसी नदी का श्रंगार अब तुम क्या जानो! सो, अलविदा! – तुम्हारी गोमा.
(नभाटा, लखनऊ में 11 दिसम्बर को प्रकाशित)


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