Thursday, December 31, 2015

सिटी तमाशा /वर्ना कैसे कहूं अगली पीढ़ी से नया साल मुबारक!


नए साल में नया क्या होता है? जैसे हर नया दिन, हर नया महीना, वैसे ही नया साल, जैसा पिछले साल और उससे भी पिछले साल शुरू हुआ था! लेकिन देखो, कितने उत्साह से मनाया जा रहा है. आधी रात से चला बधाइयों और शुभकामनाओं का सिलसिला सुबह से और तेज हो चला है. गज़ब है मनुष्य की यह उत्सवधर्मिता लेकिन सुंदर है.
खुशी और उत्साह से लबरेज नई शुरुआत करने का दिन. कितने संकल्प, कितनी प्रतिज्ञाएं, कितने वादे. 365 पृष्ठ की डायरी का पहला पन्ना. बिल्कुल कोरा, शफ्फाक. एक नई इबारत के लिए तैयार. क्या हो पहला वाक्य? शुभकामनाएं अनंत लेकिन शुभ की शुरुआत कैसे हो? इसमें सुख लिखूं. सुख क्या है? दुख का न होना. दुख क्या है? सुख-दुख की पहचान ही खो रही है शायद. पहचान भी पा रहा हूं सुख-दुख? जो करता आया हूं अपने सुख के लिए वह ला क्या रहा है? डर दिखता है न आगे! चलिए, आज हम सब अपने आप से पूछते हैं कि कामना ही करता हूं या जीवन को सुन्दर बनाने के लिए कुछ यत्न भी कर रहा हूं ?
तो, नए साल के इस पहले पन्ने पर कुछ जतन लिखूं? तन-मन का जतन, अपने समाज, देश और दुनिया का जतन. इसमें लिखूं शहर में थोड़ा कम धुंआ छोड़ने की कोशिश. गाड़ी कम चले, थोड़ी-थोड़ी दूर के लिए तो कतई नहीं. कभी पैदल, कुछ साइकिल. सड़कों-चौराहों पर थोड़ी अराजकता तो मैं कम कर ही सकता हूं. लिखूं ? कुछ पानी का जतन भी लिखूं, जो धरती के नीचे तेजी से खत्म हो रहा है और मेरा बेहिसाब उलीचना जारी है? जरा-सा सोचूं उसके बारे में? वह पॉलीथीन, रैपर, पैकेट, वगैरह जो मैं सुबह से शाम तक लाता-फैंकता रहता हूँ, कैसे चोक कर रहे हैं नाले-नालियों को, बेजुबान जानवरों की आंतों को और बंजर बना रहे हैं धरती की कोख को. जिसे प्रकृति ने नहीं बनाया लेकिन जिसे मैं प्रकृति के गले में ठूंसे जा रहा हूँ. लिखूं कि उसे इस्तेमाल करते, इधर-उधर फैंकते मेरे हाथ कांपें?
लिखूं चिड़िया का चहकना-फुदकना भी कि वह मेरे आस-पास बची रहे. सिर्फ कविता में नहीं, साक्षात जीवन में वह बची रहे, इसलिए लिखूं कुछ उपाय जो मैं करूं, जिनका ध्यान रखूं. बचाऊं मिट्टी और घास, पेड़-पौधे, जितनी बच सके मुझसे हरियाली. बारिश पड़े तो उठ सके सौंधी महक. लिखूं कि कुम्हार की तरक्की हो और चाक की भी लेकिन बचे रहें सुराही और सकोरा. दूब की जड़ों से एक कीड़ा चोंच में दबा लाए कोई गौरैया, घोंसले में खाप खोले अपने बच्चे के लिए. कब से नहीं देखी तितली. लिखूं कि वह लौट सके मेरे बच्चों और उनके बच्चों के खेल में. लिखूं कि मैं ऐसा सोच सकूं, याद रखूं और कुछ करूं भी जरूर.
सोचना और बरतना चाहिए मुझे कि खेत बचें, फसलें उगें और किसान राज करे. अगर यह दुनिया मेरे साथ खत्म नहीं हो जानी है तो मुझे नए साल के पहले दिन से ही ऐसा मानस बनाना होगा कि नहीं? अब नहीं तो कब मैं सोचूंगा कि यह दुनिया मुझे कैसी मिली थी और मैंने इसे कैसा बना दिया? मुझे तो इसे संवार कर जाना था. बर्बाद तो न कर जाऊं. कम से कम वैसी तो इसे छोड़‌ ही सकूं जैसी मेरे पुरखों ने मुझे दी थी. कुछ कर्ज मुझ पर है कि नहीं इस धरती का?
पूछा आपने अपने आप से? तो क्या कहते हो, आज से ही यह कर्ज उतारने की सोचूं? वर्ना कैसे कहूं अपनी अगली पीढ़ी से नया साल मुबारक? बोलो तो!
(-नवीन जोशी, नभाटा, लखनऊ में, 01 जनवरी 2016)



1 comment:

अभय पन्त said...

सम्पादक महोदय, अपनी तरफ से छोटे छोटे कदम हम उठा ही सकते हैं, कपड़े का थैला ले जाने के अतिरिक्त। टॉफियों, गुटखों, और हर उस पैकेट बंद वस्तु के रैपर, जो आकार में छोटे होते हैं और आंखों को आसानी से नहीं दिखते,का अलग से ढेर बनाकर, उन्हें एक पन्नी में भरकर, प्लास्टिक के कूड़े वाली बाल्टी में डालकर, कूड़े के बेहतर प्रबंधन में प्रयास किया जा सकता है। बाकी, जिसकी जितनी श्रद्धा, उतना तन्मयतापूर्ण कर्म🙏🙏।