Thursday, January 14, 2016

सिटी तमाशा / उत्तरायणी कौतिक यानी शहर में मनुष्यता के पर्व


सूर्य का उत्तरायण होना सम्पूर्ण भारत में मनाया जाने वाला पर्व है. यह शीत ऋतु से सहमे-ठहरे समस्त जीव-जगत के जागरण का उत्सव है. निराला ने इसी के लिए कहा था- “रूखी री यह डार वसन वासंती लेगी” और चंद्र कुंवर बर्त्वाल ने लिखा था- “रोएगी रवि के चुम्बन से अब सानंद हिमानी, फूट उठेगी अब गिरि-गिरि के उर से उन्मद वाणी.” अब इसका क्या करें कि ग्लोबल वार्मिंग के इस बेरहम जमाने में इस बार शीत ही नहीं पड़ा और सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार किए बिना आम में बौर आ गए! वैसे, सूर्य का मकर-प्रवेश भी अब दो-तीन सप्ताह पहले हो जाता है. खैर, मनुष्य ने अभी उत्सवों-पर्वों का अपना पंचांग नहीं बदला है.

गोमती किनारे गोविंद बल्लभ पंत स्मृति उपवन में सजे उत्तरायणी कौतिकयानी मेले में लखनऊ के उत्तराखण्डी समाज की भागीदारी और आयोजकों का उत्साह देख कर हमें फिर अपनी उत्सव धर्मिता पर गर्व हुआ. लखनऊ कितना ही बड़ा महानगर हो गया हो और जीवन आपा-धापी से भरा, तो भी यहां विभिन्न समाजों में अपने पर्व-उत्सव मनाने की ललक बराबर मौजूद है. पंजाबियों की लोहड़ी पर भांगड़ा और गिद्दा का जोश देखा. बंग समाज ने चंद रोज पहले पौष मेला लगाया था. भोजपुरी समाज जब छठ पर्व मनाता है या नवरात्र में जगह-जगह डांडिया-उत्सवों की धूम मचती है तो अपने महानगर गांवों-कस्बों के समुच्चय और लोक संस्कृतियों के खूबसूरत गुलदस्ते नजर आते हैं. रोजी-रोटी की जद्दोजहद या मध्यवर्गीय तनावों में पिसते मनुष्य इन मेलों में सहज व उन्मुक्त रूप में शामिल होते हैं. पद-प्रतिष्ठा या दीन-हीनता भूल कर जब लोगों को झोड़ा नाचते या मशक-बाजे के साथ झूमता देखते हैं तो उनमें भोले मानुष के दर्शन होते हैं. इन कौतिकों में सारे भेद-भाव बिला जाते हैं. यह महत्वपूर्ण है क्योंकि अपने बनाए आवरणों में इनसान का असली चेहरा खो गया है. सड़क पर, बाजार में या घर-दफ्तर में मनुष्य वह नहीं रह जाता जो वास्तव में वह है या उसे दिखना चाहिए. ये मेले ही उसका निर्मल चेहरा सामने लाते हैं.


उत्तरायणी जैसे कौतिकों के बहाने ही नागर समाज को अपने लोक की याद आती है. लोक में उसकी जड़ें होती हैं. कहां-कहां से आकर किस-किस तरह के लोग एक शहर बनाते हैं. शहर के बड़ा होते-होते विविध भाषा-बोलियां, लोक नृत्य-गीत, रीति-रिवाज, खान-पान और पहनावे शहरों की औपचारिकता, संकोच और दिखावे में कहीं खोने लगते हैं. गांवों में जड़ें बचाए रखने वाली पीढ़ी तो मन के किसी कोने में अपना लोक भी सहेजे रखती है लेकिन प्रवासी समूहों की शहरों में ही पली-बढ़ी पीढ़ियां अपने लोक से अछूती ही रह जाती हैं. उत्तरायणी कौतिक में उत्तराखण्ड की नायाब फसलों, फलों, जड़ी-बूटियों, और व्यंजनों को हसरत से देख, चख और महसूस कर रही नई पीढ़ी का बाल-सुलभ उत्साह सुख देता है. दही-मूली-चीनी-मिर्च-भांगे के नमक के साथ साने गए पहाड़ी नींबू के चटखारे सिर्फ अपने मौलिक स्वाद का आनंद ही नहीं बताते, वे मनुष्य बने रहने की जद्दोजहद के लिए भी जरूरी स्वाद हैं. जैसे पेड़ लहलहाने के लिए अपनी जड़ों की मार्फत मिट्टी से खाद-पानी लेते हैं वैसे ही हम अपनी लोक-संस्कृति से मनुष्य बने रहने के लिए जरूरी तत्व ग्रहण करते हैं. इस दौर में मनुष्य बने रहना ही सबसे कठिन हो गया है. जब समय बहुत बर्बर हो, समाज में विघटनकारी ताकतें सक्रिय हों, हमारी बहुलतावादी परम्परा को खारिज करने की साजिशें रची जा रही हों और मनुष्य को प्रकृति के खिलाफ खड़ा किया जा रहा हो तब ऐसे कौतिक बहुत जरूरी हो जाते हैं. ये मेले बने रहें.    

1 comment:

aaku said...

स्वागत..जिसको जितनी ताप
की जरुरत हो .. मिलती रहे