कोई चार-पांच साल पुरानी
बात होगी. जनता को विविध सेवाएं ऑनलाइन उपलब्ध कराने और शिकायतों के त्वरित निपटान
के लिए बनाए गए लोकवाणी केंद्र के माध्यम से सीतापुर के तत्कालीन डी एम आमोद कुमार
ने उल्लेखनीय काम किया था. लोकवाणी केंद्र बने सभी जिलों में थे लेकिन सीतापुर
जैसे चंद जिलों में हुए बेहतर काम के कारण ‘लोकवाणी’ की चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर
हुई थी. जैसा कि होता है अधिकारियों के तबादले के साथ उनके शुरू किए गए अच्छे काम
भी ठप हो जाते हैं, लोकवाणी की चर्चा फिर नहीं सुनाई दी, हालांकि ये केंद्र आज भी
कई जिलों में अस्तित्व में हैं. बीते सोमवार को जब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने “जन
शिकायतों के जल्द और पारदर्शी निपटारे के लिए देश के पहले एकीकृत पोर्टल जनसुनवाई”
का शुभारम्भ किया तो हमें लोकवाणी की याद हो आई.
बहुत समय नहीं हुआ जब प्रदेश
के कुछ सरकारी दफ्तरों में ‘सिटीजन चार्टर’ लागू करने की बात हुई थी. दावे किए गए थे कि जनता की किसी
भी अर्जी का पंद्रह दिन में निपटारा कर दिया जाएगा. निपटारा नहीं होने की स्थिति
में सम्बद्ध व्यक्ति को बताया जा सकेगा कि उसके काम की प्रगति क्या है. क्या कोई बता
सकता है कि सिटीजन चार्टर योजना कहां दफ्न हो गई या कर दी गई?
विचार और योजना के स्तर पर
कई अच्छे और जनहितकारी कार्यक्रम बनते हैं, सरकार उन्हें बड़े दावों के साथ जोर-शोर
से शुरू करती है. कुछ समय बाद वे उनकी जगह प्रचार का शोर-शराबा दूसरे कार्यक्रम ले
लेते हैं. लोकवाणी हो, सिटीजन चार्टर या जनसुनवाई पोर्टल वे सुशासन के ऑनलाइन औजार
हैं. सुशासन के आधारभूत मूल्य हैं- पारदर्शिता, जवाबदेही और जिम्मेदारी. सरकार यहां
सेवा-प्रदाता है जिसे जनता की सेवा करनी है. किसी भी व्यक्ति का कोई भी काम, चाहे वह जन्म-मृत्यु
प्रमाण पत्र बनवाना हो या खसरा-खतौनी लेना या किसी काम में गड़बड़ी की शिकायत, उसका निपटारा एक समय-सीमा
में पारदर्शी ढंग से होना चाहिए. जनता को दफ्तर-दफ्तर या विभाग-विभाग दौड़ने की
जरूरत नहीं होनी चाहिए. जनता के उत्पीड़न अथवा किसी अधिकारी के भ्रष्टाचार की
शिकायत भी इतने ही खुले रूप में सुनी–निपटाई जानी चाहिए.
सिटीजन चार्टर मूलत: 1991
में ब्रिटेन से निकली सुशासन की अवधारणा है जिसे बाद में कई देशों ने अपनी शासन
प्रणाली का हिस्सा बनाया. भारत सरकार ने भी 1997 में इसे अपनाने की घोषणा की. कोई
तीन वर्ष पूर्व प्रदेश शासन ने भी इसे लागू करने का ऐलान हुआ था. घोषणा करना और
अमल में लाना अलग-अलग बातें हैं. उत्तर प्रदेश में तमाम घोषणाओं के बावजूद सरकारी
काम-काज में सुशासन की संस्कृति बनी ही नहीं. कुछ सेवाओं के ऑनलाइन हो जाने से काम-काज
में तेजी आई और सुधार भी हुआ लेकिन जिसे कहते हैं पारदर्शिता और जिम्मेदारी वह ऊपर
से कार्य संस्कृति का हिस्सा बनने ही नहीं दी गई. हाल के महीनों में जिस तरह हाई
कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने यू पी में कुछ महत्वपूर्ण तैनातियों को खारिज किया उससे
समझा जा सकता है कि यहां पारदर्शिता और जिम्मेदारी का क्या हाल है. ज्यादातर नेता
और आला अधिकारी ही सुशासन पर कुण्डली मारे बैठे हैं.
जनता की वाजिब शिकायतों का
निपटारा क्यों नहीं हो रहा, अधिकारी उसे क्यों और कहां दबाए बैठे हैं, क्या अड़ंगे
लगा रहे हैं, वगैरह-वगैरह पर मुख्यमंत्री कार्यालय की नजर रहे यह बहुत अच्छा है.
इससे पता चलता रहेगा कि सरकारी तंत्र कैसे काम कर रहा है या नहीं कर रहा है. मगर
इसके लिए सुशासन के जिन तीन आधारभूत मूल्यों की जरूरत है, वे कहां हैं?
(नभाटा, जनवरे 29, 2016)
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