Friday, March 11, 2016

सिटी तमाशा / मरता जा रहा हमारे भीतर का मनुष्य


गोमती नदी में उतराती एक लाश का बवालदूसरे पर टालने के लिए  महानगर और हज़रतगंज थानों  की पुलिस ने  बेरहमी से उसे इधर–उधर घसीटा. झगड़ा न सुलझने पर लाश को फिर नदी में फिंकवा दिया. एसएसपी को हस्तक्षेप करना पड़ा. ऐसा अक्सर होता है जब पुलिस वाले थानों के सीमा विवाद में लाश की छीछालेदर करते हैं, लात मार कर दूसरे के इलाके में धकेल देते हैं. मानवाधिकारों की प्रशिक्षण कार्याशालाओं और सम्वेदनशील होने के बहुतेरे उपदेशों के बावजूद  डीआईजी जैसा जिम्मेदार अधिकारी जरा-सी बात पर एक बुजुर्ग दुकानदार को थप्पड मार देता है. एक दरोगा जीपीओ के बाहर बैठे एक बूढ़े व्यक्ति का टाइपराइटर लात मारकर तोड़ देता है जबकि वह पुराना टाइपराइटर उसकी रोजी-रोटी का एकमात्र जरिया था. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि डीआईजी को मुख्यमंत्री निलम्बित कर देते हैं, बूढ़े टाइपिस्ट को एक नया टाइपराइटर दिला देते हैं और शव से बदसलूकी करने वाले सिपाही भी निलम्बित कर दिए जाते हैं. साबित सिर्फ इतना होता है कि युवा मुख्यमंत्री संवेदनशील हैं और नजर पड़ जाने पर ऐसी खबरों का संज्ञान लेते हैं. लेकिन उनका तंत्र इससे कोई सबक नहीं लेता और वे अपनी व्यवस्था को मानवीय नहीं बना पाते.

पुलिस की सम्वेदनहीनता जगजाहिर है. लाशों के साथ ही नहीं, वे जिंदा या अधमरे मनुष्यों के साथ भी अमानुषिक व्यवहार करते हैं. पुलिस का यह अमानवीय रूप ब्रिटिश काल में बनाया गया था ताकि गुलाम भारतीयों पर जुल्म ढाए जा सकें. आजादी के 68 वर्ष बाद भी उसका यह चेहरा बदला नहीं है.  इस बीच पुलिस सुधार, उसके मानवीकरण और मित्र-पुलिस जैसे जुमलों  पर बेशुमार बातें हो गईं. लगता नहीं कि उसकी छवि और व्यवहार कभी सुधरेंगे.

सम्वेदनहीनता का अफसोसनाक नजारा हमारे अस्पतालों के कर्मचारी भी पेश करते हैं. बीमार मरीज और तीमारदारों के साथ नर्स, वार्ड बॉय, सफाई कर्मचारी आदि का व्यवहार ऐसा होता है जैसे उन्हें अपने शत्रुओं की देखभाल में जबरन लगा दिया गया हो, हालांकि  बीमार का इलाज शत्रु या मित्र देखकर नहीं किया जाता. अस्पतालों के कर्मचारी मरीजों के हर अनुरोध पर उन्हें झिड़कने और सामान्य सेवा के लिए भी रकम वसूलने की फिराक में रहते हैं. चंद रोज पहले राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान के कर्मचारियों ने  सम्वेदनहीनता की हदें पार कर दीं. हड़ताल  तो डॉक्टर-कर्मचारी सभी करते रहते हैं लेकिन लोहिया संस्थान के कर्मचारियों ने तेज आवाज वाला साउण्ड सिस्टम लगा लिया और जोर-शोर से भाषणबाजी ही नहीं की, गाने भी फुल वॉल्यूम में बजाए. लोहिया संस्थान विशिष्ट चिकित्सा के लिए जाना जाता है और वहां ज्यादातर गम्भीर मरीज भर्ती रहते हैं. कानफाड़ू  शोर से उन्हें कितनी यंत्रणा पहुंची होगी, यह सोचने की सम्वेदनशीलता वहां किसी में नहीं थी. संस्थान प्रशासन ने भी तब जांच बैठाने की औपचारिकता निभाई जब मामला मीडिया में उछला. अस्पतालों के भीतर ही नहीं, आस-पास भी शोर करना सख्त मना होता है. पुराने अस्पतालों के करीब वाहन चालकों के लिए निर्देश लिखे मिलेंगे कि यहां हॉर्न न बजाएं. अब अस्पतालों में डीजे बजने लगे हैं तो नए अस्पतालों के आस-पास ऐसे संकेत पट लगाने का ख्याल भी कौन करे.  


सम्वेदनहीनता हमारे समय के बड़े संकटों में एक है. जरा सी बात पर पिस्तौल निकाल कर किसी की जान ले लेना हो या सड़क पर छटपटाले घायल को तमाशबीन होकर देखना, इसी महामारी का किस्सा है. दरअसल, हमारी दुनिया और जीवन के बेरहम अंदाज हमारे भीतर के मनुष्य की हत्या कर रहे हैं. धीरे-धीरे हम मशीन में तब्दील हो रहे हैं और मशीन सम्वेदनशील नहीं हुआ करती.
(नभाटा, 11 मार्च, 2016) 

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