Friday, March 04, 2016

सिटी तमाशा/ तो अब कोयल की कूक सुनने को भी तरसेंगे?


मार्च का महीना लग गया और कोयल अब तक नहीं कूकी. आपने सुनी? अखबार हत्याओं और तथाकथित देशद्रोह की खबरों से भरे पड़े हैं. तब भी वसंत ने आने का साहस किया. आम के पेड़ बौर से लद गए हैं, हमारे मुहल्ले का इकलौता कचनार सचमुच फूला नहीं समा रहा, सेमल के वृक्षों में लाल-नारंगी अनार फूट रहे हैं और कहीं-कहीं बचा टेसू भी गमक रहा है लेकिन कोयल को चिढ़ाने के लिए हम तरस गए. बर्डवाचर बताते हैं कि अमूमन मध्य फरवरी से कोयल कूकने लगती है. इस बार जाड़ा कम पड़ा इसलिए उसे कुछ पहले ही घने पेड़ों की पतली टहनियों में छुपकर अपने साथी को पुकारना शुरू कर देना चाहिए था. अब तो अच्छी खासी गर्मी होने लगी है और वसंत का जल्द ही ग्रीष्म हो जाना दिखाई देने लगा है लेकिन कोयल नदारद है. यह रोमानी नहीं चिंताजनक यथार्थ है. जिस खतरनाक दिशा में हम जा रहे हैं, उसका संकेत.

गौरैया बचाने का दिन, 20 मार्च नजदीक है. उस प्यारी-सी दोस्त चिड़िया को बचाने के लिए देश-दुनिया में कई जतन किए जा रहे हैं. चंद वर्ष पहले लोगों का ध्यान गया था कि घरों के आस-पास फुदकने और रसोई तक साधिकार चली आने वाली गौरैया दिखना बंद हो गई है. कहीं से गौरैया बचाओ दिवस का आह्वान हुआ और हम छोटे-छोटे घरौंदे बना कर टांगने लगे, दाना-पानी रखने लगे और गिनने लगे कि हमारे आस-पास कितनी गौरैया बची हैं. अब क्या कोयल के लिए भी यही सब करना पड़ेगा? और बात सिर्फ गौरैया या कोयल तक सीमित नहीं है, हमारे पर्यावरण से कितने प्राणी गायब हो गए और कम होते जा रहे हैं. घौंसले बना कर, दाना-पानी रख कर किस-किस को बचाया जा सकेगा?

और क्या हम यानी इनसान, जो अपने को बहुत विद्वान समझते आए हैं, धीरे-धीरे खत्म नहीं हो रहे? जो अन्न, फल-सब्जियां हम खा रहे हैं, जो दूध-पानी पी रहे हैं और जिस हवा में सांस ले रहे हैं, कितने जहरीले हो गए हैं? चिकित्सा विज्ञानी कब से चेता रहे हैं कि हमारी दुनिया कितनी विषैली होती जा रही है और इस विष के मानव तन-मन पर क्या-क्या दुष्परिणाम हो रहे हैं. कितनी लाइलाज व्याधियां मनुष्य को खा रही हैं. मां के दूध से भी शिशु के तन में कीटनाशक प्रविष्ट हो रहे हों तो क्या अब हमें गौरैया के साथ मानव बचाओ दिवस भी नहीं मनाना चाहिए?

यह हालात किसने पैदा किए हैं? गौरैया, कोयल आदि प्राणी तो निरीह हैं लेकिन हमने अपने लिए जान-बूझ कर कैसी दुनिया बना ली है? कैसा कर लिया है हमने अपना रहन-सहन और कार्य-व्यवहार? मिट्टी का कोना-कोना कंक्रीट से पाटा जा रहा है. नदियां सीवर ढोने के नालों में तब्दील की जा रही हैं. खेत कीटनाशकों-उर्वरकों से बंजर बनाए जा रहे हैं. प्रकृति की हर सुंदर और मौलिक चीज विकृत की जा रही है तो जीवन कैसे सुंदर बना रह सकता है! कोशिश हो तो प्रकृति की मौलिकता को बचाए रखने की हो. लेकिन कैसे? हम तो आधुनिकता और विकास की अपनी जिद छोड़ने ही को तैयार नहीं. पॉलीथिन का इस्तेमाल न करने जैसा छोटा त्याग भी हम कर नहीं पा रहे. फिर कैसे उम्मीद की जाए कि हरियाली, पानी और हवा बचाने के कुछ कठिन जतन हमसे हो पाएंगे? गौरैया का प्राकृतिक संसार नष्ट करके उसके लिए कुछ घौंसले बनाना नाटक ही होगा. कोयल भी समय से तभी कूकेगी जब इस सृष्टि में उसकी स्वाभाविक जगह हम रहने देंगे. हमारे कानों से दूर कहीं वह कूक भी रही होगी तो कब तक? 
(नभाटा, 04 फरवरी, 2016)


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