Thursday, March 17, 2016

सिटी तमाशा/ खुले में निपटान आखिर किसकी शर्म है?



उत्तर प्रदेश परिवहन निगम का ताजा फैसला है कि राज्य के सभी बस स्टेशनों में खुफिया कैमरे लगाए जाएंगे जो खुले में निपटने वालों की तस्वीर (पीछे से) खींच लेंगे. ये तस्वीरें सोशल साइटों पर डाली जाएंगी ताकि ऐसा करने वाले शर्मिंदा हों और दूसरों को भी सबक मिले. हम खुद घर के इर्द-गिर्द दिन-रात सू-सू करने वालों से बहुत परेशान हैं. कुछ लोग मुहल्ले के किसी पेड़ की आड़ में, पार्क के कोने में और घर के सामने की नाली में दीर्घ शंका भी निपटा जाते हैं. हमारा काम रोज सुबह उस पर मिट्टी डालना है. दिन भर के खर्चों के साथ स्वच्छ भारत अभियान के लिए सेसभी हमें ही चुकाना होता है. सोचा कि हम भी खुफिया कैमरे लगवाएंगे ताकि उन्हें शर्मिंदा कर सकें जो यह धत कर्म कर जाते हैं. यह भी लिख देंगे कि आप कैमरे की नजर में हैं.

मगर हमारा यह उत्साह ज़्यादा देर टिका नहीं रह सका. घर के चारों ओर नजर डालते ही हमारा चिंतन दूसरी तरफ चला गया. पत्रकारपुरम चौराहे और अमीनाबाद के गड़बड़झाला बाजार में ज़्यादा फर्क नहीं रहा. यहां सात बड़े कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स हैं. आधिकारिक दुकानों के अलावा उनकी पार्किंग की जगह में खुली अवैध दुकानें हैं. ज्यादातर मकानों में भी छोटी-बड़ी दुकानें खुली हुई हैं. मोबाइल बेचने, रीचार्ज करने और उसकी मरम्मत करने वालों से लेकर फास्ट फूड सेण्टर तक खूब हैं. फिर सड़क किनारे तरह-तरह के ठेले-खोंचे काबिज हैं. फल-फूल के ठेलों से लेकर रबर की मोहर बनाने वाले, पंक्चर जोड़ने वाले और मेहंदी लगाने वाले बराबर मौजूद रहते हैं. मोटा अंदाजा है कि बड़ी-छोटी, वैध-अवैध दुकानों की संख्या एक हजार कम न  होगी. इनमें काम करने वालों की संख्या चार हजार से ज्यादा ही होगी. इनमें  कम से कम तीन हजार प्राणी ऐसे होंगे जिनके लिए कॉम्पलेक्स में बने शौचालय प्रतिबंधित हैं. सभी शौचालयों में ताले लगे हैं जिनकी चाभियां  दुकान मालिकों के पास हैं. नौकरों को वहां जाने की इजाजत नहीं. तो, तीन हजार लोग हमारे चौराहे पर खुले में निपटने को आजाद हैं. इनके अलावा एक हजार दुकानों में दिन भर आने-जाने वाले बेशुमार लोगों में से बहुत सारे पुरुष इस आजादी का उपयोग करते हैं. महिलाओं की तकलीफ पर कौन सोचे!

इन दुकानों में आठ-दस घण्टे काम करने वाले तीन हजार नौकरोंमें  कभी किसी का पेट खराब होता होगा. समय-असमय हाजत भी होती होगी. इस आपातकालीन मरोड़ का वे क्या करें? जाहिर है, किसी खुली नाली या पेड़ की आड़ में  बैठेंगे ही. यह सिर्फ एक चौराहे की बात है. शहर में ऐसे जाने कितने लाख लोग होंगे जो खुले में विसर्जन करने को मजबूर हैं. चर्चित पुस्तक मैक्सिमम सिटीमें लेखक-पत्रकार सुकेतु मेहता ने मुम्बई में खुले में निपटने वाली आबादी का हिसाब लगाकर बताया है कि प्रति व्यक्ति आधा किलो विसर्जन की दर से रोज कितने टन मानव-मल खुले में या समुद्र में गिरता है. क्षमा करेंगे, यह कटु सत्य है.


कुछ आंकड़े जुटा कर लखनऊ का भी ऐसा हिसाब लगाया जा सकता है लेकिन उससे क्या होगा?  क्या कैमरा लगा कर हम इन शौचालय वंचित लोगों को शर्मिंदा कर सकते हैं? यह शर्म उनकी है या हमारे प्रशासन और सरकारों की? मानव की इस अत्यावश्यक प्राकृतिक जरूरत का सम्मानजनक हल निकालने की बजाय कैमरा लगाने का ख्याल भी भयानक अत्याचार होगा. हां, परिवहन निगम के कर्ता-धर्ता खुफिया कैमरे लगाने की बजाय बस स्टेशनों में पर्याप्त शौचालय बनवाने और उन्हें इस्तेमाल लायक साफ-सुथरा बनाए रखने पर ध्यान देंगे तो बड़ी सेवा होगी.   

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