सुबह पौधों को पानी दे रहा था. सहमी पत्तियां
पानी के स्पर्श से तरोताजा हो उठीं. थोड़ी देर में देखा कि क्रोटन की पत्तियों पर
टिकी पानी की बूंदों पर एक नन्हीं चिड़िया फुदकने-चहकने लगी. हलकी पीताभ उसकी चोंच
बूंदों से खेलने लगी. नन्हे पंखों की जुम्बिश से वह पानी उछालने लगी. अपनी
मंद-मधुर चहचहाहट से उसने अपने संगी को भी बुला लिया. क्रोटन का पूरा पौधा जैसे
जीवंत हो उठा. पानी से सराबोर पत्तों पर चिड़ियों की क्रीड़ा देख कर सारे तनाव, चिंताएं, आशंकाएं काफूर
हो गईं और मन बिल्कुल हल्का. मैंने पानी की एक बौछार चिड़ियों की ओर उछाली. वे
चीं-चीं-चीं करती फुर्र हो गईं और सामने के पार्क में जामुन की घनी पत्तियों में
छुप कर शिकवा-सा करने लगीं. सुबह से ही
धूप तीखी होने लगी है लेकिन रोज देखता हूं कि पड़ोस का गुलमोहर और भी ज्यादा
खिलखिलाता जा रहा है. हर रोज उसकी कुछ और कलियां चिटक कर समूचे पेड़ को चटख लाल रंग
में रंग जाती हैं. वहीं कहीं एक अमलतास की कलियां सूरज को चुनौती देती जान पड़ती
हैं कि जरा और आग बरसाओं तो हम दिखाएं कि जेठ में वासन्ती वसन कैसे ओढ़े जाते हैं.
गमले का दुपहरिया उसकी हां में हाँ मिलाता है और ढलते सूरज को चुनौती देता है- बस, थक गए!
जितनी तेज गर्मी होती है, प्रकृति हमारे लिए उतना ही शीतल रस बरसाती नजर आती है. इसे महसूस करना अद्भुत
है. ककड़ी-खीरा-तरबूज-खरबूज शहर की किसी दुकान से खरीद लाना अलग बात है और नदी
किनारे की झुलसाती रेत पर हरियाती बेलों में उनका फूलना-फलना देखना अलग ही सुख है.
रातों को इन बेलों के बीच होती सरसराहट और
सुबह ककड़ी को एक अंगुल बढ़ा हुआ देखना बांझ रेत पर एक चमत्कार जैसा लगता है. जितनी
भीषण लू, तरबूज-खरबूज
का उतना ही मीठा होना प्रकृति का संदेश ही तो है हमारे लिए.
जैसे-जैसे हम प्रकृति से दूर होते गए, उसके संदेश पढ़ना-देखना भी भूलते गए. प्रकृति हमें जुझारू होना और धैर्य सिखाती
है. विगत वसंत में जन्मे पल्लव देखिए, कैसे सख्त और टिकाऊ होते जा रहे हैं. उन्हें पता है कि अगले पतझड़ तक कई
झंझावातों का मुकाबला करना है. इस सब से
मुंह मोड़े हम धैर्य खो कर बहुत जल्दी हार मान लेते हैं. यह क्या अकारण है कि हर
समय हम शहरियों की भृकुटियां चढ़ी रहती हैं और नाना प्रकार के रोग शरीर में डेरा
डालते जाते हैं. सहजता को हमने अपने से दूर जाने दिया और मान लिया कि यही विकास और
आधुनिकता है. क्या अभावग्रस्तता के बावजूद आम ग्रामीण कहीं ज्यादा तनाव मुक्त, सहज तथा सहनशील नहीं है? वह बड़ी-बड़ी
दिक्कतों को आसानी से नहीं झेल जाता? और क्या इसका कारण यह नहीं है कि वह प्रकृति के बहुत करीब
और अपनी जड़ों से गहरे जुड़ा है?
इस सब के बावजूद हमारे जीवन व्यवहार में प्रकृति के करीब जाने और और अपने
पर्यावरण को सहेजने की प्रवृत्ति नहीं दिखाई दे रही. जो कॉलोनियां कागज पर जितनी
हरी-भरी और साफ-सुथरी हैं, वे वास्तव में उतनी ही रूखी और गंदी हैं. प्रकृति को हमने ठगी का सबसे बड़ा
शिकार बना डाला. असल में ठगे हम खुद गए हैं. आज हमारे जीवन के अस्वाभाविक और
अप्राकृतिक होने के क्या यही कारण नहीं हैं? अगली सुबह जब आप पौधों को पानी दें तो जीवंत हो उठी पत्तियों और पड़ोस में कहीं
से आती मधुर चहचहाहट को इस नजर से देखें और सोचें कि हमसे यह सब कैसे छिन गया. (नभाटा, 22 अप्रैल 2016)
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