गर्मी बस शुरू ही हुई है और पानी के लिए
हो-हल्ला मचने लगा है. ऐसा नहीं कि जाड़ों में पानी की इफरात रहती है, बस जरूरत कम हो जाती है, अन्यथा पानी का संकट अब बारहों मास रहता है. जब भी पानी के लिए त्राहि-त्राहि, झगड़े-फसाद और धरना-प्रदर्शन की खबरें पढ़ता हूं तो बहुत अफसोस होता है और बचपन
के दिन याद आने लगते हैं. कोई 40-45 साल पहले इसी लखनऊ में पानी कितना सुलभ था! इस
मौसम में जब स्कूल से लौटते थे तो फुटपाथ पर जगह-जगह म्युनिसिपलिटी के नल लगे होते
थे. बम्बा कहते थे हम उन्हें. बम्बा खोला और चुल्लू लगा कर पानी पी लिया, मुंह-हाथ धो लिया. केकेसी तिराहे से खटिकाना, नई बस्ती और उदयगंज
होकर हम लौटते थे तो डेढ़-दो किमी में कम से कम चार जगह के बम्बे मुझे अब भी याद
हैं. तीन तरफ से ईटों की छोटी दीवार उन्हें ढके रहती थी और सामने की तरफ से कोई भी
बम्बा खोल कर पानी पी ले, भर ले, नहा-धो ले. तब
न कोई टोटी चुराता था, न बम्बा खुला
छोड़ता था. पानी की इज्जत करते थे लोग.
उदयगंज तिराहे पर एक किनारे बम्बे के नीचे बड़ी-सी नाद थी, आज के बाथरूम वाले टब की तरह, सीमेण्ट से बनी. उसमें पानी भरता रहता था. सदर से केसरबाग चौराहे तक खूब
इक्के-तांगे चलते थे. प्यासा घोड़ा
अपने आप नाद की तरफ मुड़ जाता तो तांगे वाला प्यार से कहता- ‘चल प्यारे, पी ले, पी ले. चैत-वैशाख में ही जेठ-सा तप रहा है, पी ले’. रास छोड़ कर वह वह नाद का पानी चुल्लू से उछाल-उछाल कर घोड़े की अयाल तर कर
देता, उसकी पीठ पोछ देता.
सवारियां भी उतर कर पानी भी लेतीं. छुट्टा जानवर पानी पीने वहां आते रहते. नाद से
पानी बाहर बहने लगता तो पड़ोसी हलवाई अपने नौकर से टोटी बंद करवा देता. 1975 तक भी
यह नाद और कुछ बम्बे देखने की याद है. बाद-बाद में पानी हर वक्त नहीं आता था.
दोपहर में जब कभी बम्बा खोलते तो उसके मुंह से निकलती तेज हवा सीटी बजाने लगती.
फिर कुछ साल बाद पानी आना बिल्कुल बंद हो गया. फिर देखते-देखते बम्बे गायब हो गए.
इक्के-तांगे आज होते तो कहां पानी पीते? बची-खुची चिड़ियों को भी अब चोंच भर पानी नसीब नहीं.
पिछले चालीस-पचास वर्षों में क्या हो गया? शहरों की आबादी तेजी से बढ़ी क्योंकि हमारी सरकारों ने गांवों के विकास की घोर
उपेक्षा की. तो भी, पानी क्या, अपने किसी भी प्राकृतिक संसाधन का सम्मान किया न बेहतर
प्रबंधन. मुक्त अर्थव्यवस्था के नाम पर हर वस्तु का ‘आकर्षक’ व्यापार होने
लगा. बड़ा अचम्भा होता है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हमारा हवा-पानी हमें ही बेच कर
भारी मुनाफा कमा रही हैं. अब इस व्यापार ने मनुष्य-भाव खत्म कर दिया. पानी का जतन करने वाला समाज दो
हिस्सों में बांट दिया गया. एक, लूटने की हद तक पानी की बर्बादी करने लगा. दूसरा पानी के लिए तरसने लगा. देखिए
कि कुछ लोगों के विशाल हरे-भरे लॉन बेहिसाब पानी से सींचे जा रहे हैं. उधर, आम जनता खाली घड़े-बाल्टियां लिए सड़क पर है. अगले दस वर्षों
में और स्थिति भयावह होगी. बदलाव या बिगड़ने की रफ्तार बहुत तेज है. मुक्त
अर्थव्यवस्था और भ्रष्ट राजनीति ने जो नव-धनिक वर्ग पैदा किया है वह संसाधनों का
अंधाधुंध दोहन कर रहा है. उन्हें पता नहीं कि चुल्लू भर पानी भी उनकी अगली पीढ़ियों के लिए नहीं बचेगा.
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